मरे हुए लोगों के रखवाले – भोलानाथ एंड कंपनी

सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net

वाराणसी: भोलानाथ बनारस में रहते हैं. कबीर के मोहल्ले कबीरचौरा स्थित मंडलीय चिकित्सालय के मुर्दाघर के पास भोलानाथ और उनके सहयोगियों से दिन के किसी भी वक़्त मिला जा सकता है. भोलानाथ मुर्दा लाशों को ढोते और उनका क्रियाकर्म करते हैं. उनके साथ उनके दो सहयोगी नानक और कौशल हैं. एक ऑटो चालक बलराम यादव भी हैं जो उन्हें मुर्दाघर से लेकर घटनास्थल, फिर पोस्टमार्टम हाउस और आखिर में श्मशान तक का सफ़र करते हैं.


Support TwoCircles

सत्तर साल के भोलानाथ पिछले चालीस सालों से इस काम को कर रहे हैं. बनारस के प्रसिद्द काशी विश्वनाथ मंदिर के बगल में ज्ञानवापी मस्जिद है. यहीं से कुछ चालीस साल पहले भोलानाथ के काम की शुरुआत हुई. अपनी शुरुआत के बारे में भोला बताते हैं, ‘मेरी अस्पताल से सटी हुई पान की दुकान थी. यहीं पर बैठता था, लोगों की मरहम-पट्टी में कभी मदद भी कर दिया करता था. उसी वक़्त ज्ञानवापी के पास एक वॉच टावर से एक दरोगा जी नीचे गिर गए. पुलिस उनको यहान अस्पताल लेकर आई लेकिन लाते-लाते उनकी मौत हो गयी थी.’ भोला आगे बताते हैं, ‘उनकी लाश को सील करना था. यह कानूनी प्रक्रिया होती है. उनके लिए लाया गया कफ़न बाकायदे उन पर अट नहीं रहा था तो लाश भी सील नहीं हो पा रही थी. मुझे किसी ने बताया कि लाश सील नहीं हो पा रही है, मैं देखने गया तो मैंने हाथ लगाया. देखते ही देखते उनकी लाश उतने ही कफ़न से सील कर दी. बस वही पहला दिन था, जिस दिन मैंने इस काम में हाथ लगाया था.’

1

बाएं से बलराम, कौशल, नानक और भोलानाथ

इसके बाद से भोलानाथ का काम बढ़ता गया. पुलिस अक्सर अस्पताल आने वाली लाशों की सीलबंदी के लिए भोला को याद करने लगी. सीलबंदी से शुरू हुआ काम आगे बढ़कर घटनास्थल पर जाकर लाशों को लाने, उनका पोस्टमार्टम करवाने और उनका अंतिम संस्कार करने तक पहुंच गया. भोलानाथ बताते हैं कि एक बार कुछ लोगों ने उन्हें पीट दिया था तो एक टूटे पैर के साथ उन्होंने लाशें ढोईं थीं. अपने काम के बारे में विस्तार से जानकारी देते हुए भोला कहते हैं, ‘मान लीजिए कि आपके यहां कोई घटना हो गयी या आपको कहीं लावारिस लाश मिली, तो आप पुलिस को फोन करते हैं. पुलिस हमको फोन करती है. हमलोग घटनास्थल पर पहुंचते हैं. लावारिस या वारिस जैसा भी लाश हो, उसे सील करते हैं, पोस्टमार्टम हाउस तक ट्राली या ऑटो से ढोते हैं. उसका पोस्टमार्टम करवाते हैं फिर दाह-संस्कार के लिए श्मशान घाट ले जाते हैं.’ भोला बताते हैं, ‘हम लाश को पीठ पर लादेंगे, हाथ में लेंगे, रिक्शे-ठेले-ट्राली पर लादेंगे लेकिन काम पूरा करेंगे. बीच में नहीं छोड़ेंगे. यदि बाढ़ की वजह से अंतिम संस्कार नहीं हो पता तो गंगा में प्रवाहित कर देंगे लेकिन पूरा काम करके ही लौटेंगे.’

लेकिन जैसा प्रशासन के साथ मिलकर काम करने की प्रक्रिया से होता है, इस काम में पैसे जितने हैं वे बेहद कम हैं. पुलिस को लावारिस लाशों के दाह संस्कार के लिए 1500 रूपए प्रति लाश का बजट दिया जाता है. लेकिन भोला और उनके सहयोगियों को इस बात का पता ही नहीं है. पुलिस उन्हें 100-200 रूपए देती है, बलराम को ऑटो का भाड़ा दे देती है और कहती है कि यह पैसे पुलिस ने अपनी जेब से दिए हैं. इसके साथ देसी शराब की पावभर की चार शीशीयां भी दी जाती हैं. इसके अलावा इनके पास कमाई का कोई भी दूसरा ज़रिया नहीं है.

शराब की प्रासंगिकता के बारे में भोला कहते हैं, ‘पांच दिन-दस दिन की सड़ी हुई लाश हम बिना शराब के निकाल ही नहीं सकते. लोग खड़े होते हैं तो उन्हें उबकाई आ जाती है, फिर हमें तो उस लाश के साथ दिन भर रहना होता है.’

अपने काम के चलन को लेकर भोलानाथ में कोई शर्म नहीं है. भोला बताते हैं, ‘जब काम शुरू हुआ था तो रोज़ 6-8 लाशें मिल जाती थीं. कमाई भी हो जाती थी. अब ज़माना बदल गया है, लोग ज्यादा पढने-लिखने लगे हैं. कानून से डरते भी हैं. अब एक हफ्ते में तीन-चार लाशें मिल जाएं तो भी बहुत है. इन्हीं लाशों के ज़रिए जो कमाई हो पाती है, वही कमाई हम चार लोग आपस में बराबर-बराबर बांट लेते हैं.’ भोला अक्सर उन्हीं मृतकों के रखवाले बनते हैं, जिनकी मौत या तो किसी हादसे की वजह से हुई हो या हत्या-आत्महत्या सरीखा मामला हो. भोला और उनके साथ के लोगों के पास दो तरह के मामले आते हैं, एक तो उन लोगों का जिन्हें कोई जानने-पहचानने वाला नहीं होता, और दूसरे उन लोगों का जिनके दोस्त-यार या एकाध परिजन मौजूद होते हैं.

2

भोलानाथ

आय के बारे में और स्पष्ट तरीके से बताते हुए भोला कहते हैं, ‘यदि लाश लावारिस है, तो कोई बात नहीं है. हम पहले से मान लेते हैं कि इसमें कोई कमाई नहीं होने वाली. लेकिन एकाध लाश किसी ऐसे की मिल गयी जिसे कोई जानता-पहचानता हो, तो अधिकतम हज़ार रूपए तक की कमाई हो जाती है. ये हज़ार रूपए भी हम आपस में बांट लेते हैं.’

इनके वाजिब आर्थिक हिस्से के बारे में प्रशासन भी अपेक्षित जवाब देता है. ज़ाहिर है कि प्रशासन क्यों स्वीकार करेगा कि इन्हें इनके हक़ से कम पैसे दिए जा रहे हैं. इन्हें पैसे देते समय न कोई लिखा-पढ़ी होती है न ही कोई दस्तख़त-अंगूठा निशानी.

इन्हें बस जेब से पैसे निकालकर पकड़ा दिए जाते हैं. यानी यह तय है कि सरकारी महकमा इस खर्च को मनचाहे तरीके से दर्ज करता होगा.

मृतकों के इस पूरे कर्म का असल खर्च अप्रत्याशित है. भोला बताते हैं, ‘एक लाश पर मजदूरी, भाड़ा, जलाने का खर्च मिलाकर दो हजार रुपयों से भी अधिक हो जाता है. हम यह नहीं कहते हैं कि पैसा हमारे जेब से जाता है लेकिन इस काम में खर्च इतना है कि पैसा जेब में ही नहीं जा पाता. अब बिजली से लाश जलाई जाने लगी हैं तो खर्च ककम हो गया है नहीं तो पहले लकड़ी खरीदने में ही 1200 रुपयों से भी अधिक पैसे लग जाते थे.’ भोला के सहयोगी नानक बताते हैं, ‘अब कुछ संस्थाएं आगे आ गयी हैं. उनके पास पैसा होता है तो घाट पर पैसा नहीं देना पड़ता लेकिन फिर भी काम हम ही लोग करते हैं.’

सरकार से कहने के लिए भोला के पास बस इतना ही है कि सरकार रोज़ कुछ ऐसा इन्तिज़ाम करे जिससे उन्हें रोज़ की रोटी के लिए न रोना पड़े. भोला कहते हैं, ‘काम ऐसा है कि हम यह भी नहीं कह सकते कि हमारी रोज़ ज़रुरत पड़े. कौन चाहेगा कि कोई न कोई रोज़ मरे. अक्सर ऐसा होता है कि मुर्दाघर 6-7 दिनों तक बंद रहता है, यानी उस दौरान कमाई बंद.’ भोला आगे कहते हैं, ‘हम सरकार का ही काम करते हैं लेकिन कोई ठिकाना नहीं है. हम कुँए, कीचड, नाले, नदी, जले-टूटे हर जगह से तो लाश निकालते हैं, सरकार इतना भी नहीं कर सकती. हमें भत्ता और सुविधा न मिले लेकिन कम से कम इतना तो हो हमारे पीछे हमारे बच्चे-पोते भूखे न मरें.’

3

काम की शुरुआत करते भोलानाथ और उनके साथी

भोलानाथ सवर्ण जाति के हैं. लेकिन वे यह छिपाते फिरते हैं. वे कहते हैं कि बनारस में ऐसा माहौल नहीं आया है कि आप यह साब बात किसी को बता दें तो आपकी वाहवाही होगी. उलटे लोग आपको दौड़ाकर पीटने लगेंगे, बदनामी होगी अलग से.
हिन्दू धर्म में मौत से भी एक अलग किस्म की विराटता उपजती है. यह तेरह दिनों तक चलने वाला ऐसा जश्न है, जहां ‘जश्न’ का अर्थ परम्परागत नहीं होता. यदि आप बनारस जैसे आदिकालीन शहर के निवासी हैं, तो यहां मृत्यु को ही एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर देखा जाता है. सुनी-सुनाई बात ही है कि यदि किसी ने यहां के घाटों पर दाह-संस्कार होते देख लिया तो जीवन भर के लिए मृत्यु से उसका डर ख़त्म हो जाता है. भारतीय परिदृश्य में जो चीज़ इतनी ज्यादा व्यापक और ज़रूरी हो, उससे जुड़े लोग और उसे अंजाम देने में लगे हुए लोग उतनी ही व्यापकता से अछूत माने जाते हैं.

समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी का बोध भोलानाथ जैसे लोगों को है. जातियों का जो समीकरण भारत में है, उसे देखते हुए एकदम मुमकिन था कि भोला कहीं भी अपनी जाति के दम पर कोई भी मक़ाम हासिल कर सकते थे. लेकिन भोलानाथ अछूत हैं, साथ ही उनकी पूरी कंपनी भी.

शायद यह कोई पहला दस्तावेज़ है जहां भोलानाथ का नाम और उनका काम लिखा जा रहा है. पुलिस के पास कोई अभिलेख नहीं कि भोलानाथ, नानक और कौशल नाम के तीन आदमी यह काम करते हैं. कल एक भारी लाश उठाते वक़्त कोई हादसा हो जाए तो कहीं कोई नहीं परेशान होगा. संभव है कि कहीं रिपोर्ट भी न दर्ज हो. समाज को भोलानाथ एंड कंपनी का ऋणी रहना चाहिए. इस खबर के लिए भोलानाथ को खोजने पर उसका पता बताने वाले हर आदमी ने कहा कि पागल है साला! उससे क्या मिलेंगे? लेकिन मिलकर लगा कि समाज के लिए अच्छा काम करने वाले लोग ज़रूरी नही कि एक आदर्श व्यक्तित्व के हों लेकिन ज़रूरी यह कि वे जो भी हों, जैसे भी हों, अपने समूचे कद के साथ लोगों के बीच बने रहें और अपनी पहचान न खोएं.

Related:

TCN Positive page

SUPPORT TWOCIRCLES HELP SUPPORT INDEPENDENT AND NON-PROFIT MEDIA. DONATE HERE