मुश्किल है बिहार में भाजपा की जीत

पटना से सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net

बिहार की चुनावी बयार में यह ज़ाहिर होता जा रहा है कि सत्ता के इस संग्राम में लाख चुनावी पैंतरे अपना लिए जाएं लेकिन बिहार के अधिकतर मतदाता दो फांकों में बंटे हुए हैं.


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एक तरफ जहां मतदाता नीतीश कुमार के विकास कार्यों की तारीफ़ करते नहीं थक रहे हैं वहीं दूसरा धड़ा बिहार में एक ‘नयापन’ या ‘बदलाव’ लाने के लिए प्रयासरत है. इन सबके बीच एक बड़ा हिस्सा वह भी है जो हर स्थिति में नीतीश कुमार से सहमत है लेकिन नीतीश का राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव के साथ जाना उन्हें रास नहीं आ रहा है, इसलिए वे नीतीश कुमार का साथ छोड़ भाजपा का दामन पकड़ने के लिए तैयार हैं.

भुजी हुई नमकीन चीज़ों की दूकान लगाने वालीं शीला देवी कहती हैं कि नीतीश ने बहुत विकास किया है. यह पूछने पर कि लालू के साथ जाकर क्या नीतीश ने गलती की, शीला कहती हैं, ‘बिलकुल नहीं, हमें तो लगता है कि सही किए.’ विकास के मुद्दे अकसर व्यक्तिगत लाभ पर आकर टिक जाते हैं, व्यक्तिगत राय के बारे में पूछने पर शीला देवी कहती हैं, ‘हमें विधवा पेंशन मिला. पेंशन नीतीश कुमार की ही बदौलत है.’ शीला देवी ठीक गांधी मैदान के पास मिलती हैं, लेकिन विडम्बना यह है कि उन समेत अन्य कई भाजपा के नाम पर सिर्फ नरेंद्र मोदी को जानते हैं, किसी प्रादेशिक नेता को नहीं.

नीतीश और मोदी की लड़ाई के बारे में सुनिए मतदाताओं से.

गांधी मैदान के पास स्थित अपना बाज़ार की किताब मंडी में कोई किताब खरीदने आईं सरिता जैन गृहणी हैं और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी भी करती हैं. सरिता का कहना है, ‘नीतीश कुमार बहुत काम कराए हैं. पटना हम लोगों के लिए सुरक्षित है.’ लालू यादव के साथ के प्रश्न पर सरिता कहती हैं, ‘दोनों का साथ बहुत बढ़िया है. इस गठबंधन से कहीं कोई परेशानी नहीं है.’

रिक्शा चलाने वाले मोहम्मद बशीर कहते हैं, ‘हम लोगों को डर है कि भाजपा आएगी तो वही सब अराजकता और हिंसा फैलेगी. नीतीश कुमार लालू के साथ जाकर कुछ भी गलत नहीं किए, क्या गलत किए? इतना सब सड़क बन गया है और बिजली रहती है, कोई गलत तो है नहीं. अब उनके ऊपर किसी और को क्यों चुनें?’ किताब के दुकानदार शेखू खान भी लगभग यही दलील देते हैं. उनका कहना है, ‘नीतीश कुमार के आने से माहौल भी सही हुआ है और एग्रीकल्चर में भी बदलाव हुआ है. राहत-सहायता के कार्यक्रमों में भी सुधार हुआ है. इसलिए लगता है कि नीतीश कुमार को आना चाहिए.’ लालू और नीतीश के साथ पर शेखू रोचक बात कहते हैं, ‘देखिए! लालू यादव ने तो गरीबों के लिए काम किए लेकिन आगे चलकर जो नहीं कर पाए उन कामों को नीतीश कुमार ने सम्हाला. एक तरह से सारा टेंडर तो लालू यादव ने पास किया लेकिन काम पूरा किया नीतीश कुमार ने. अब दोनों मिल जाएंगे तो बढ़िया ही होगा.’

चुनावी मौसम में अल्पसंख्यकों और दलितों की मर्जी पर सबसे बड़ा सट्टा लगता है. बिहार जैसे प्रदेश में यह देखना रोचक है कि दलित और अल्पसंख्यक दोनों ही परम्परागत तरीकों से हटकर अपने मताधिकार का भविष्य तय कर रहे हैं. दलित और अल्पसंख्यक दोनों ही इस हिसाब से चुनाव में हिस्सा नहीं ले रहे कि उनका कुनबा या जाति किस ओर जा रहे हैं. ऑटोरिक्शा चलाने वाले दिलीप महतो बदलाव का बहाना लेकर भाजपा को लाना चाहते हैं. तो दूसरी पढ़ाई कर रहे मोहम्मद जुनैद का पक्ष साफ़ है कि नीतीश कुमार ने काम तो किया है लेकिन बदलाव के लिए नए आदमी को लाना चाहिए. ज़ुनैद से पूछने पर भाजपा को दक्षिणपंथी दल के रूप में गिना जाता है तो क्या ऐसी संभावना नहीं है कि क्या भाजपा हमेशा की तरह अराजकता की ओर नहीं बढ़ सकती? इस पर जुनैद का जवाब है, ‘यह चुनाव के पहले की बात है. चुनाव के बाद ऐसा कुछ नहीं होगा.’ यानी ज़ुनैद की बात से यह साफ़ है कि भले ही वह परिवर्तन चाहते हों लेकिन देश में दिनोंदिन बढ़ते जा रहे अराजकता के माहौल से उन्हें कोई इनकार नहीं है.

मुश्किल है नीतीश के प्रभाव को मिटा पाना –

यहां सबसे मजेदार बात यह देखने को मिल रही है कि बिहार में भाजपा ने अपने अलावा एनडीए के सभी घटक दलों और उनके नेताओं को हाशिए पर धकेल दिया है. कोई भी मतदाता जीतनराम मांझी या उनके हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा, रामविलास पासवान या उनकी लोक जनशक्ति पार्टी या किसी भी अन्य पार्टी के बारे न जानकारी रखता है न बात करता है. लेकिन महागठबंधन के बारे में ऐसा नहीं है, लोग भले ही लोकसभा चुनाव में दुर्गत देखने के बाद कांग्रेस को ज्यादा तवज्जो न दे रहे हों लेकिन महागठबंधन के अन्य घटक दलों और उनके नेताओं की जानकारी पूरी तरह से बिहार के मतदाताओं की ज़ुबान पर है.

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दरअसल यह हाल कमोबेश पटना में मिले हरेक मतदाता है. यहां किसी भी बयानबाजी की आड़ में नीतीश कुमार के विकास कार्यों को नकारा नहीं जा सकता है, लेकिन थोड़ी-थोड़ी उगती एंटी-इनकम्बेंसी के प्रभाव को भी नकारा नहीं जा सकता है. लोग परिवर्तन ज़रूर चाहते हैं लेकिन यह भी लाजमी है कि वे इस परिवर्तन के साइड-इफेक्ट्स को भी नहीं नकार पा रहे हैं. लेकिन यह भी एक तथ्य बनता है कि यह एंटी-इनकम्बेंसी गुजरात जैसे प्रदेश में क्यों नहीं लागू होती?

यह तो तय है कि अब ‘विकास’ को सिर्फ नरेंद्र मोदी ही नहीं परिभाषित कर सकते हैं. नीतीश कुमार कहीं ज्यादा गैर-प्रचाराना ढंग से बिहार में विकास की गाड़ी को आगे बढ़ा रहे हैं. भाजपा विकास के मुद्दे पर बिहार में किसी नयी बहस को जन्म दे सकती है, गुंडाराज के बारे महिलाएं और लड़कियां तक ज्यादा मुखर तरीके से दावे कर रही हैं कि पिछले दस सालों में बिहार उनके लिए और भी ज्यादा सुरक्षित हुआ है, ले-देकर भ्रष्टाचार ही एक मुद्दा बचता है, जिसमें बीते एक साल के अन्दर भाजपा उतनी डूब चुकी है, जितने नीतीश कुमार पर आरोप भी नहीं लगे हैं. इन परिस्थितियों में भाजपा की बिहारी दाल गलने में समय लगेगा और ज़ाहिर है कि आंच के लिए किसी अच्छी लकड़ी की ज़रुरत होगी.

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