नासिर अली, TwoCircles.net
बांदा : उत्तर प्रदेश के बांदा क्षेत्र में हर गांव, हर आदमी बस एक ही इंतज़ार में है कि कब कोई करिश्मा हो और सरकारी योजनाएं उनके द्वार पर भी दस्तक दे. बांदा ज़िले के नरैनी ब्लॉक में मौजूद सुलखानपुर गांव की हालत तो और भी गंभीर है. गांव पूरी तरह अब टूट गई है. इसमें रही-सही कसर मौसम ने भी पूरी कर दी है.
बदहाल किसान कहते हैं कि भगवान ने भी मुंह फेर लिया है. रात के अंधेरे में यह गांव न जाने कहां खो जाता है.बदहाल सुलखानपुर चीख-चीख कर अपनी दास्तान सुना रहा है, लेकिन किसी महकमे और हुक्काम की नज़र इस ओर नहीं उठती.
आज़ाद भारत की तस्वीर के सपने भले ही हसीन बुने गए हों, लेकिन इसी देश के नक्शे में अभी तक आबाद सुलखानपुर कुछ और ही तस्वीर पेश करता है. गांव में मनहूसियत फैल गई है. फ़सलें मुरझा गई हैं.
अथक मेहनत और पसीने का निवेश नाकाम साबित हो रहा है. गेहूं की फ़सल काटने का वक़्त है. लेकिन न खेत की छाती पर फ़सल है और न ही ज़मीन के गर्भ में पानी…. एकदम मुर्दा…यहां तक किसान की उम्मीदें भी. सच तो यह है कि ऐसे हालात में कोई भी मुर्दा हो सकता है.
जो इस मुश्किल वक़्त को टाल जाएंगे वो आगे के हालात को सोचकर बदहवास हैं. क्योंकि सूदखोरों की एक बड़ी फौज गांव में दस्तक देने वाली है.
ढिबरी में यहां के लोग ज़िन्दगी गुज़ारने को हैं मजबूर
यह कितना अजीब है कि शाम को इसी सूबे की राजधानी तरह-तरह की साज-सज्जा वाली रोशनी से लबरेज़ होगी और यह गांव अंधेरे में कहीं गुम हो जाएगा. ढ़िबरी युग में जी रहे इस गांव का कोई भी पुरसा-हाल लेने वाला नहीं है. न बिजली है, न साफ़ पानी. भले ही संविधान में साफ़ पानी मूलभूत अधिकार हो, लेकिन यहां ‘ये’ संविधान लागू नहीं दिखाई देता.
सुलखानपुर सुबह सवेरे ही लग जाता है पानी के इंतज़ाम में
बांदा के नगर मुख्यालय से 52 किमी दूर बसे इस गांव में जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाएंगे, मन में असल भारत के पिछड़ेपन का एहसास गाढ़ा होता जाएगा.
आख़िरी छोर तक फैले गांव के 85 फ़ीसदी मकान कच्चे हैं. कोई पगडंडी ऐसी नहीं मिलेगी जो पक्की और विकास के नए पैमाने की गवाही देती हो. कच्ची सड़कों को देखकर एहसास होगा कि सरकारी योजनाएं भी कितनी कच्ची हैं. गांव से ब्लॉक और ज़िला मुख्यालय जाना हो तो सिर्फ़ आपके अपने साधन और मज़बूत पांव ही साथी होंगे.
सुलखानपुर गांव जाने के लिए मुख्य सड़क
लहलहाते बजट की इबारत लिखना कितना सरल और खेती करना कितना कठिन है. इस बात का एहसास गांव का हर भूमिहीन किसान बता देगा. न ही सिंचाई का कोई साधन है और न ही कोई सरकारी नलकूप. सोच कर भी ख्याल नहीं आता कि यह भारत के ही नक्शे में ही मौजूद कोई गांव है.
गांव में आवागमन का कोई भी साधन नहीं है. गांव के कुल 40 परिवार हैं. कुल 202 लोग आबाद हैं. सच्चाई यह है कि मरघट फैला हुआ है. मरी फ़सलों को देखकर जिंदा कौमें मुर्दा हो चली हैं. इस एहसास में सरकारी अस्पताल और स्कूल खोजना बेवकूफ़ी है. लेकिन फिर भी खोजने की कोशिश की तो एक भी न मिला. मुसीबत और कठिनाई कुछ व्यक्तित्व को मज़बूत और अडिग बना देती हैं.
इसी हालत में आठवीं में पढ़ने वाला मोबिन इस गांव का इकलौता चिराग़ है. वह तड़के उठकर कुल 28 बच्चों को पढ़ाता है. इसके बाद खुद के स्कूल पहुंचता है.
सुलखानपुर में सुबह सवेरे 11 साल के मोबिन 3 महीने से पढ़ा रहे हैं
गांव की इस आबादी में 90 फ़ीसदी लोगों के पास खेती के लिए अपनी ज़मीनें नहीं हैं. बस गुज़र-बसर के लिए कच्चे मकान और कठिन जिंदगी के सिवा इस आबादी के पास कुछ नहीं.
गांव में रहने वाले 60 वर्षीय रहमान कहते हैं कि उनके पास कुल 7 बीघा ज़मीन है. लेकिन सिंचाई का कोई साधन मौजूद नहीं है. जल-स्तर इतना नीचे चला गया है कि पानी निकालना एक बेहद मुश्किल काम बन गया है.
गर्मी के आहट से पहले ही सूख गया है यहां का एकमात्र कुंआ
गांव के 40 वर्षीय चुन्नु कहते हैं कि इंसान तो इंसान पानी और चारे की कमी की वजह से जानवर भी भूखे मर रहे हैं.
वहीं गांव की बुजुर्ग चुन्नी कहती हैं कि हम लोग अक्सर सूखी बेर खाकर गुज़र-बसर करते हैं. गांव का हर किसान और मज़दूर या तो पलायन को सोच रहा या फिर जल्द से जल्द जिंदगी खो देने की आस में ज़िन्दा है.
सूखी बेर को उबाल कर खाते हैं सुलखानपुर के लोग
ऐसा नहीं है कि इस गांव के हालात से सरकार बेख़बर है. गांव के लोगों के मुताबिक़ वो कई बार अपने हालात की कहानी सरकारी दफ़्तरों के बड़े अधिकारियों तक पहुंचा चुके हैं, लेकिन कभी किसी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया. ऐसे में यह सोचने वाली बात है कि किस सरकार और हुक्काम से यह गांव वाले अपनी फ़रियाद रखें?
[नासिर अली नरैनी ब्लॉक अंतर्गत नौगवां गांव के रहने वाले हैं. बुंदेलखंड यूनिवर्सिटी से पढ़ाई के बाद ‘मिसाल नेटवर्क’ से जुड़कर सरकारी योजनाओं को ज़मीन तक पहुंचाने में लगे हैं. उनसे 9452140528 पर संपर्क किया जा सकता है.]