मोदी सरकार एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान नहीं मानती है

TwoCircles.net Staff Reporter

नई दिल्ली : अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) को लेकर केन्द्र की मोदी सरकार की मंशा अब खुलकर सामने आ चुकी है. सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में एएमयू को ‘माइनॉरिटी इंस्टिट्यूशन’ की कैटिगरी में रखा जा सकता है या नहीं, से संबंधित याचिका पर सुनवाई में केन्द्र सरकार ने स्पष्ट तौर पर कहा है कि वो एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान नहीं मानती है. वो इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली पूर्व के यूपीए सरकार की अपील को वापस लेना चाहती है.


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इस मामले में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से हाईकोर्ट के फैसले के ख़िलाफ़ दायर अर्जी को वापस लेने पर अपने जवाब के लिए कोर्ट से अतिरिक्त समय की मांग की. केंद्र सरकार की अपील को मंज़ूर करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें छह सप्ताह में अपना जवाब दायर करने को कहा है.

स्पष्ट रहे कि पिछली सुनवाई में केंद्र सरकार ने कहा था कि वह अपील को वापस लेना चाहती है और मानती है कि अजीज बाशा केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला सही था और एएमयू को माइनॉरिटी संस्थान नहीं क़रार दिया जा सकता, क्योंकि इसे संसद के एक क़ानून के द्वारा बनाया गया है.

एटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने आज सुप्रीम कोर्ट में कहा कि –‘एएमयू की स्थापना केंद्रीय क़ानून के तहत की गयी थी और 1967 में शीर्ष अदालत की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने अज़ीज़ बाशा फ़ैसले में इसे ‘केंद्रीय विश्वविद्यालय’ कहा था, अल्पसंख्यक संस्थान नहीं.’

रोहतगी ने कहा कि –‘1981 में विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा देने के लिए एक संशोधन लाया गया, जिसे उच्च न्यायालय ने असंवैधानिक क़रार दिया था.’

इस मामले की सुनवाई न्यायमूर्ति जे.एस. खेहर की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की पीठ कर रही है. इस पीठ में न्यायमूर्ति एम.बी. लोकुर और न्यायमूर्ति सी. नागप्पन भी शामिल हैं.

पीठ ने कहा है कि केंद्र का जवाब आने के चार हफ़्ते के भीतर एएमयू भी अपना पक्ष जवाबी हलफ़नामा के द्वारा रख सकता है. अगली सुनवाई ग्रीष्मावकाश के बाद यानी जुलाई में होगी.

एएमयू का पक्ष वरिष्ठ वकील पी.पी. राव रख रहे थे. इसके अलावा इस मामले में कुछ अन्य संगठन भी दख़ल दे रहे हैं. इन संगठनों की ओर से पेश वरिष्ठ वकील सलमान खुर्शीद ने कहा कि वह इस मामले में अपना पक्ष रखना चाहते हैं. जिस पर अदालत ने कहा कि अंतिम निर्णय लेने से पहले उनका पक्ष भी सुना जाएगा.

उल्लेखनीय है कि 4 अक्टूबर 2005 को एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जा को ग़लत क़रार दिए जाने के बाद एएमयू, केंद्र सरकार और कुछ अन्य लोगों ने एक पुनर्विचार याचिका दायर की थी.

इस पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश ए.एन. रे और न्यायमूर्ति अशोक भूषण के दो सदस्यीय पीठ ने कहा कि जिस तरह मुसलमानों को 50 प्रतिशत आरक्षण दिया जा रहा है वह असंवैधानिक और ग़लत है.

जबकि केंद्र सरकार ने वर्ष 2004 में 25 फ़रवरी को एक अधिसूचना जारी करके एएमयू में मुसलमानों को 50 प्रतिशत आरक्षण देने का फ़ैसला किया था. केंद्र सरकार की इसी अधिसूचना के ख़िलाफ़ एक याचिका दायर की गई थी.

स्पष्ट रहे कि यह मामला पहले भी अदालत में आया था. अज़ीज़ बाशा का यह मामला 1968 में सर्वोच्च न्यायालय तक भी पहुंचा था. उस समय भी सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फ़ैसले में कहा था कि विश्वविद्यालय केंद्रीय विधायिका द्वारा स्थापित किया गया है और इसे अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय का दर्जा नहीं दिया जा सकता.

लेकिन तब की सरकार ने इस फ़ैसले को प्रभावहीन करते हुए 1981 में संविधान संशोधन विधेयक लाकर एएमयू को मुस्लिम यूनिवर्सिटी का दर्जा दे दिया था.

लेकिन यह मामला यूं ही चलता रहा, लेकिन जब केंद्र सरकार ने 50 फ़ीसदी सीटें मुसलमानों के लिए आरक्षित करने की मांग की तो इसका विरोध शुरु हुआ और इसके ख़िलाफ़ याचिका दायर की गई. उस समय विरोध सबसे आगे बीजेपी व आरएसएस से जुड़ी अन्य संस्थाएं सबसे आगे थी.

इस मामले का दिलचस्प पहलू यह भी है कि केस सुप्रीम कोर्ट में जाने के बाद तत्कालीन यूपीए सरकार ने भी बहुत ज़्यादा दिलचस्पी नहीं लिया, बल्कि वो भी इस मामले को अपनी सियासत के ख़ातिर ज़िन्दा रखना चाहती थी. हालांकि अल्पसंख्यक दर्जा दिए जाने की मांग बराबर उठती रही. 2013 में जब राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने विभिन्न विषयों पर विचार करने के लिए संसद की संयुक्त बैठक बुलाई थी, तब भी यह मुद्दा संसद में भी उठा. उस समय बहुजन समाज पार्टी के सांसद शफीकुर रहमान बर्क ने यह मुद्दा उठाया था.

अब जानकारों का मानना है कि आरएसएस व बीजेपी इस पूरे मामले को तुल देना चाहती है, ताकि इस संस्थान में आरक्षण के बहाने उत्तर प्रदेश में दलितों-मुसलमानों को आपस में बांटा जा सके. अगर बीजेपी अपने मंसूबे में कामयाब रही तो इसका स्पष्ट लाभ सपा व बीजेपी को मिलना तय है.

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