सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net
नई दिल्ली- जेएनयू प्रकरण में बेहद उतार-चढ़ाव आए. इस मामले में उमर ख़ालिद और कन्हैया कुमार कई दिनों तक अखबार की सुर्ख़ियों में छाए रहे. लेकिन इस मामले में सबसे कम नाम जिस शख्स का सुना गया, वह नाम है अनिर्बन भट्टाचार्य का. दो दिनों पहले जेएनयू के एड ब्लॉक पर अनिर्बन से हमारी बात हुई. नीचे पढ़ें वह बातचीत.
TCN: जब मीडिया में ये सारी चीज़ें आ रही थीं, तो आप, उमर और कन्हैया में से सबसे कम डिस्कस किया जाने वाला चेहरा आप थे.
अनिर्बन: हाँ, यह सच है.
TCN: तो क्या हुआ कि आप लगातार कम उपस्थित थे? क्या पूरे डिस्कोर्स में आपकी आवाज़ कम महत्वपूर्ण थी? या कम सुनी गयी?
अनिर्बन: मुझे नहीं लगता कि आवाज़ न सुने जाने या कम सुने जाने का मसला है. मसला कन्हैया की गिरफ्तारी से शुरू होता है. कन्हैया जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष हैं. वे बहुत लोकप्रिय और लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुने गए नेता हैं. अब जेएनयू में पुलिस आती है और दिनदहाड़े यूनियन प्रेसिडेंट को उठा लेती है. इससे एक आन्दोलन शुरू होता है. मीडिया ट्रायल शुरू होता है. संस्थान के रूप में पूरा जेएनयू सवालों के घेरे में आ जाता है. और शुरुआती दिनों में सिर्फ कन्हैया थे, जो पूरे आन्दोलन के मोर्चे पर अगली पंक्ति में खड़े थे. और उसी वजह से कन्हैया वह बने, जिसे कन्हैया कुमार के रूप में हम आज देख रहे हैं.
अब कन्हैया गिरफ्तार हो गए. एक तरह से सरकार का एक उद्देश्य पूरा हो गया. अब उन्हें एक मुस्लिम चेहरा चाहिए था. 9/11 की घटना के बाद से पूरी दुनिया में मुस्लिमों को आतंकवादी के तौर पर देखने का जो नज़रिया फैला है, इस पूरे नैरेटिव में उमर ख़ालिद फिट बैठ रहे थे. आप सोचिए, एक मुस्लिम चेहरा मिला जिसके आधार पर काल्पनिक बातें गढ़ी जा रही हैं. ख़ालिद तीन बार पाकिस्तान गया है, ख़ालिद ने बांग्लादेश और खाड़ी देशों में फोन किए हैं, ख़ालिद कश्मीर भाग गया है, जैश-ए-मोहम्मद के साथ उसका लिंक है…ऐसी कहानियां. अनिर्बन भट्टाचार्य उनके इस पूरे काल्पनिक संसार में फिट नहीं बैठ रहा था. न कन्हैया, न उमर और न ही मैं, हम तीनों इस तरह की कोई पब्लिसिटी नहीं चाहते थे, जैसी हमें अभी मिली है. लोगों का ध्यान हम पर इसलिए पड़ा क्योंकि पहले सरकार ने हमपर हमला किया. उन्होंने चुनाव किया था कि किस पर हमले करने हैं और किस पर हमले नहीं करने हैं. उन्हें पता था कि किस पर हमले करने से फायदा होगा और किस पर करने से नुकसान. एक संस्थान के रूप में जेएनयू पर हमला करने के लिए उन्होंने स्टूडेंट यूनियन के प्रेसिडेंट कन्हैया को निशाना बनाया. मुस्लिम चेहरे की कमी पूरी करने के लिए उमर खालिद को निशाना बनाया. मैं उनके उद्देश्यों में कहीं फिट नहीं बैठता था. मीडिया और सरकार के मिलजुले ऑर्केस्ट्रा ने अपना काम किया. अब मैं उनके उद्देश्यों में जब कहीं फिट नहीं बैठ रहा था तो मेरे बारे में डिस्कशन कम हुआ.
TCN: इस पूरे मूवमेंट का आपको क्या रिज़ल्ट निकलता हुआ दिख रहा है?
अनिर्बन: पहली बात ये कि इस मूवमेंट का कोई परिणाम अभी तक आया नहीं है. हमें लगता है कि एक ऐसी समझदारी जनरल लेवल पर हो सकती है. पहले-पहल मूवमेंट छिड़ा जहां कन्हैया को अरेस्ट किया गया. फिर मूवमेंट का एक दौर आया जब मीडिया ट्रायल शुरू हुए. फिर एक और जब मुझे और उमर को गिरफ्तार किया गया. फिर एक-एक करके हम तीनों को जमानत मिली और अभियान की यह एक जीत थी. लोग इसे अभियान की जीत की तरह ऐसे देख रहे हैं.
TCN: लेकिन यह तो इस मामले का इतिहास हो गया न?
अनिर्बन: वही तो कह रहा हूं. आमतौर पर लोगों को यह लग सकता है और लग भी रहा है कि जमानत मिल जाना जेल से छूट जाना एक तरह से मूवमेंट की जीत है और इसी के साथ मूवमेंट ख़त्म होता है, लेकिन ऐसा नहीं है. राजनीतिक समझदारी से हम देखें तो पिछले डेढ़ महीने में जो कुछ भी हुआ है, वह तो एक मूवमेंट की शुरुआत है. चीज़ें कितनी खराब और बदतर हो सकती हैं, इस डेढ़ महीने में तो हमें बस उसकी एक झलक ही मिली है. और इसके साथ ही हमें उसकी झलक भी मिली है कि यदि हम अपनी पूरी शक्ति और एकता के साथ खड़े रहें तो क्या होगा? बस इसी किस्म की दो झलकियां मिली हैं. सच कहें तो परिणामों की झलक नहीं मिली है. परिणामों की संभावनाओं की झलकियां मिल रही हैं. तो मुझे नहीं लगता है कि हमें कोई रिज़ल्ट मिल रहा है. हमें बस उसकी झलकियां मिल रही हैं कि ऐसा हो सकता है.
TCN: लेफ्ट की जो पूरी राजनीति है, उस पर एक बड़ा सवालिया निशान लगा हुआ है. राइटिस्ट लोगों ने तो ज़ाहिर है कि लेफ्ट पर सवाल खड़े किए ही हैं, साथ ही साथ कई लिबरल लोगों ने भी लेफ्ट की राजनीति को सवालिया कटघरे में रखा है. आपको क्या लगता है?
अनिर्बन: लेफ्ट की जो राजनीति है, वह ज़रूर सवालों के घेरे में है. और यह एक सच है, मैं खुद एक लेफ्टिस्ट हूँ. इसको मानते हुए मैं कहूंगा कि लेफ्ट पॉलिटिक्स में समस्याएँ हैं. इसका मतलब यह नहीं कि सिर्फ हम ही गलत हैं. पूरे पॉलिटिकल फ्रेम में ही गलतियां हैं, लेकिन अपनी मार्क्सवादी विचारधारा से हम खुद की आलोचना सीखते हैं. इसलिए समस्याओं को मानता हूं. लेकिन लेफ्ट की पॉलिटिक्स का हमारे देश में कोई एक अर्थ नहीं होता है. तमाम किस्म के लेफ्ट हैं. बहुत सारी लेफ्ट पार्टियां हैं. लेकिन फिर भी बात को सरल करते हुए लिफ्ट को दो हिस्सों में बांटना चाहें तो हमारे पास एक संसदीय लेफ्ट है और एक गैर-संसदीय लेफ्ट है. आप मुझसे पूछेंगे तो मैं कहूंगा कि सामाजिक बदलाव को ध्यान में रखते हुए और इतिहास को देखते हुए संसदीय लेफ्ट से हमें सबसे ज्यादा निराशा हाथ लगी है. सन् 47 के बाद का ट्रैक देखते हुए गैर-संसदीय लेफ्ट से ज्यादा परिणाम सामने आए हैं. गैर-संसदीय लेफ्ट ने संसदीय लेफ्ट के मुक़ाबिले लेफ्ट के एजेंडे पर ज्यादा काम किया है. लेकिन यह कहने के साथ ही यह भी कहना चाहूंगा कि संसदीय और गैर-संसदीय लेफ्ट दोनों को एक बड़ा ग्राउंड कवर करने की ज़रुरत है. हम लोगों के बीच कैसी जगह बना पा रहे हैं और लोगों के बीच अपनी बात को कितने सही तरीके से रख पा रहे हैं, इन चीज़ों पर काम करने की हमें ज़रुरत है. लोगों के बीच लेफ्ट को कैसे ज़रूरी बनाया जाए, उसके लिए हम अभी संघर्ष कर रहे हैं और रास्ते तलाश रहे हैं. लोग खड़े हो रहे हैं, जड़ें मजबूत हो रही हैं. वे जुड़ना भी चाह रहे हैं, लेकिन फिर भी हम पहुंच बना पाने में असफल हैं. मुस्लिम हैं, दलित हैं, मजदूर हैं और समाज के बहुत सारे क्षेत्र हैं जहां से हमें बुलावा आ रहा है. लेकिन हम ही नहीं पहुंच पा रहे हैं. हमें लोगों के रुझान को देखने की ज़रुरत है. यदि हम उसे नहीं देख पा रहे हैं तो भले ही इधर-उधर लिखते-छापते रहे, हम आगे नहीं बढ़ पाएंगे.
TCN: बहुत सारे लोग खुद के लिए लेफ्ट की कोई छवि को ही नहीं बना पा रहे हैं. लोग भाजपा, कांग्रेस और अब तो आम आदमी पार्टी में अपने मन की सरकार को तो देख ले रहे हैं, लेकिन लेफ्ट में नहीं. क्या आपको लगता है कि भारत की जनता को एक कांग्रेसीटाइप लेफ्ट की ज़रुरत है? एकदम चुपचाप मेनस्ट्रीम में काम करता हुआ दिखता रहने की?
अनिर्बन: पहले तो इस सवाल से ही एक सवाल उपजता है कि ऐसा बोलने वाले लोग कौन हैं? जहां तक मैं सनझ पा रहा हूं, मिडिल क्लास ऐसा सोच रहा है. वह मिडिल क्लास जिसके पास सारी सुविधाएं हैं, लेकिन वह सिस्टम से भी परेशान है. उसे अपनी चयन से मूव करना है. ‘अच्छे दिन’ नहीं आ रहे हैं, मिडिल क्लास उससे भी चिढ़ रहा है. वह एक मिडिल क्लास लेफ्ट की डिमांड कर रहा है. यह उसका सोचना है. लेकिन वह भारत की बची हुई 77 प्रतिशत आबादी के बारे में बात करे तो उसे पता चलेगा कि वह 77 प्रतिशत की आबादी जो 20 रूपए रोजाना से कम पर जीवन बिता रही है, वह नहीं चाहती कि बचे हुए 23 प्रतिशत से कोई आए और उन पर राज करे. अब यहां इसका मतलब यह नहीं है कि वे 77 प्रतिशत लोग लेफ्ट का मिडिल क्लास स्वरुप नहीं चाहते हैं. अव्वल तो यह भी नहीं पता कि वह लेफ्ट चाहते भी हैं या नहीं? लेकिन फिर भी वे चाहते हैं कि उनके बीच से ही कोई विकल्प निकले. तो लेफ्ट का ध्यान इस 77 प्रतिशत की तरफ होना चाहिए न कि 23 प्रतिशत की तरफ. हालांकि यह वह 23 प्रतिशत है, जो राय बनाने में सबसे ज्यादा कारगर होते हैं.