नैय्यर इमाम सिद्दीक़ी
जामिया के छात्रों (वर्तमान और पूर्व) और शिक्षक संगठन द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दीक्षांत समारोह में आने का विरोध करने की वजह से जामिया के साथ राजनीति हुई. मामला गरमाया कि जामिया मिल्लिया इस्लामिया अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है. तब से लेकर अभी तक जामिया के अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान होने का मामला पेंडुलम की तरह है. असल तलवार लटकी है अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय पर.
देश के बँटवारे के बाद सिख समुदाय के खालसा कॉलेज के लाहौर(पाकिस्तान) में चले जाने के बाद यह माँग भी उठी थी कि खालसा कॉलेज के बदले अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को सिखों को सौंप दिया जाए. इस माँग के उठने के बाद मौलाना आज़ाद और डॉ. ज़ाकिर हुसैन के हस्तक्षेप के बाद नेहरू ने मामले को संभाला और एएमयू के चरित्र को बरक़रार रखा.
पहले स्वाधीनता संग्राम के बाद सर सैय्यद अहमद ख़ान ने मुसलमानों में तालीम को जगह देने के लिए 1858 में मुरादाबाद में और 1863 में ग़ाज़ीपुर में स्कूल की बुनियाद रखी. मुसलमानों में वैज्ञानिक रुझान को पैदा करने और पोसने के लिए उन्होंने 1864 में साइंटिफ़िक सोसाइटी की बुनियाद रखी. इसी सिलसिले को बढ़ाते हुए सर सैय्यद अहमद ख़ान ने अलीगढ़ में मदरसतुल ओलुम मुसलमान-ए-हिन्द की बुनियाद रखी जिसे 1877 से मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज के नाम से जाना जाने लगा. शुरु में यह कॉलेज कलकत्ता यूनिवर्सिटी से सम्बद्ध था जो आगे चलकर 1885 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सम्बद्ध हो गया. एएमयू की स्थापना के लिए चंदे और ज़मीनें देने वालों में अधिकाँशतः मुसलमान हैं. सर सैय्यद के कुछ हिन्दू दोस्तों ने चंदे और ज़मीनें दीं मगर इसे मदरसे से यूनिवर्सिटी बनाने तक इसकी परवरिश अधिकतर मुसलमानों ने ही की है. इसके बाद भी जब भारतीय न्यायव्यवस्था जब इस बात पर इसरार करती है कि एएमयू एक अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है तब आर्टिकल 30 की वहीँ मौत हो जाती है.
भूतपूर्व अल्पसंख्यक मंत्री (राज्य प्रभार) सलमान ख़ुर्शीद ने वक़्फ़ बोर्ड की ज़मीन पर बाबा साहब भीमराव आंबेडकर यूनिवर्सिटी, लखनऊ (उत्तर प्रदेश) और इंदिरा गाँधी नेशनल ट्राइबल यूनिवर्सिटी, अमरकंटक (मध्य प्रदेश) की तर्ज़ पर तीन नए केंद्रीय अल्पसंख्यक विश्विद्यालय खोलने की बात की थी. इसके तहत मैसूर (कर्णाटक) में टीपू सुल्तान यूनिवर्सिटी ऑफ़ साइंस एंड टेक्नोलॉजी, किशनगंज (बिहार) में रफ़ी अहमद क़िदवई यूनिवर्सिटी ऑफ़ हेल्थ साइंसेज़ और अजमेर (राजस्थान) में ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ यूनिवर्सिटी खोलने की योजना थी. टीपू सुल्तान की जयंती पर विश्व हिन्दू परिषद और बजरंज दल के उपद्रव और केंद्र सरकार की चुप्पी ने ये साबित कर दिया कि मैसूर में प्रस्तावित टीपू सुल्तान यूनिवर्सिटी ऑफ़ साइंस एंड टेक्नोलॉजी खोलने में मौजूदा केंद्र सरकार की कोई दिलचस्पी नहीं है इसलिए भाजपा के संरक्षण में पल रह ऐसे संगठनों द्वारा टीपू सुल्तान को देशद्रोही, हिन्दू विरोधी और लुटेरा साबित करने के लिए किये उपद्रव सुनियोजित थे. मौजूदा सरकार का अल्पसंख्यंकों के प्रति जो रवैया और इतिहास है उसे देखते हुए लगता है कि केंद्र सरकार एएमयू के बाक़ी बचे दो केन्द्रों के अलावा तीन प्रस्तावित अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय खोलने के लिए शायद ही कभी पहल करे.
UGC एक्ट 1956 के अनुसार देश के विश्विद्यालयों को सेंट्रल, डीम्ड और स्टेट यूनिवर्सिटी का दर्जा मिलता रहा है. एएमयू को 1920 में ब्रिटिश हुक़ूमत ने सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी का दर्जा दिया था जिसे पहली बार 1968 में तत्कालीन सरकार ने ख़त्म किया था. 1981 में इंदिरा गाँधी की सरकार ने वापस इसे सेंट्रल यूनिवर्सिटी का दर्जा दिया था जिसे एक बार फिर 2006 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ये कहते हुए ख़त्म कर दिया कि ‘एएमयू की स्थापना संविधान के तहत हुई है न कि अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा’. इतिहास गवाह है कि एएमयू के संस्थापक सर सैय्यद अहमद ख़ान हैं न कि इसे संसद ने संविधान के एक्ट के अनुसार स्थापित किया है, ब्रिटिश संसद ने इसे सेंट्रल यूनिवर्सिटी का दर्जा दिया जिसे भारतीय क़ानून ने भी माना और सेंट्रल यूनिवर्सिटी होने की वजह से यूनिवर्सिटी का ख़र्च सरकार उठाती है. 2006 के बाद से एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे का मामला सुप्रीम कोर्ट में था और एक दशक बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी वही कहा जो 2006 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा था. दरअसल केंद्र सरकार एएमयू को उसका हक़ देना ही नहीं चाहती, चाहे वो UPA हो या NDA.
एएमयू को लेकर केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी की समझ सबसे ज्यादा चुकी हुई है. 1920 में ब्रिटिश संसद द्वारा ‘सेंट्रल यूनिवर्सिटी’ घोषित किए गए संस्थान को स्मृति ईरानी ‘डीम्ड यूनिवर्सिटी’ के नियम से साधना चाहती हैं. संघी नियम के हिसाब से एएमयू के ‘ऑफ़ कैंपस’ अवैध हैं जबकि ये कैंपस ‘सच्चर कमिटी’ की सिफ़ारिशों के बाद खोले गए हैं और अबतक 5 कैंपस में सिर्फ़ 3 कैंपस (केरल के मल्लापुरम, पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद और बिहार के किशनगंज में) ही खोले जा सके हैं और बाक़ी 2 कैंपस (मध्यप्रदेश के भोपाल और महाराष्ट्र के पुणे) के लिए सरकार के पास पैसे नहीं हैं. एएमयू के पुराने और नये किसी भी ऑफ़-कैंपस के लिए सरकार के पास पैसे नहीं हैं. पिछले दिनों केरल के मुख्यमंत्री के नेतृत्व में गए डेलिगेशन के सदस्य और एएमयू के कुलपति को ईरानी जी ने अपमानित किया और मुख्यमंत्री को ये तक कह दिया कि मल्लापुरम कैंपस को दी गयी अपनी ज़मीन वापस ले लीजिये क्योंकि सरकार के पास एएमयू के ‘अवैध कैंपस’ के लिए पैसे नहीं हैं.
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का भी एक ऑफ़-कैंपस उत्तर प्रदेश के मिर्ज़ापुर में है. हरियाणा के सोनीपत में आईआईटी दिल्ली का एक ऑफ़ कैंपस है तो आईआईटी रुड़की के दो ऑफ़-कैंपस सहारनपुर और ग्रेटर नोएडा में हैं लेकिन ‘अवैध’ सिर्फ़ एएमयू के ऑफ़-कैंपस ही हैं बाक़ी संस्थानों के नहीं. दरअसल कुछ महीने पहले संसद में स्मृति ईरानी ने कहा था कि डीम्ड यूनिवर्सिटी के वे सभी ऑफ़-कैंपस अवैध हैं जो मंत्रालय के बिना अनुमति और NOC के खोले गए हैं और इस लिस्ट में BIT, TISS, ISM और कई अन्य शिक्षण संस्थान के कैंपस शामिल हैं और यही नियम ईरानी जी AMU पर थोपना चाहती हैं. ये हमारा दुर्भाग्य है कि जिसे डीम्ड और सेंट्रल यूनिवर्सिटी में फ़र्क़ नहीं पता उसे हमारे सिर पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय का मुखिया बना कर थोप दिया गया है.
[नैय्यर इमाम प्राध्यापक हैं. उम्दा स्कॉलर हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है. ये उनके अपने विचार हैं.]