अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
नोखा (राजस्थान)- इस शहर का एक गुमनाम लड़का जब यह बोलता है कि ‘मुझ जैसे गरीब के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है, लेकिन पाने के लिए सारा संसार है’, तो इस समाज में मर रहीं इंसाफ़ की लड़ाईयां कुछ और सांसे लेती हैं. नोखा की गलियों से बाहर उसे शायद ही कोई जानता हो, मगर ये 23 साल का लड़का डेल्टा मेघवाल को इंसाफ़ दिलाने की मुहिम का नायक बन चुका है. नाम – मंगनाराम मेघवाल.
मंगनाराम मेघवाल का बस एक ही सपना है कि डेल्टा के इंसाफ़ की लड़ाई को उसके आख़िरी अंजाम तक पहुंचाना. नोखा से लेकर सुदूर उत्तर में दिल्ली और दक्षिण में बंगलुरु और तिरुवनंतपुरम तक डेल्टा के इंसाफ़ की लड़ाईयों का केन्द्र कहीं जाकर जुड़ता है, तो इस मंगनाराम के हौसलों से.
बाबासाहब अंबेडकर को अपना आदर्श मानने वाले मंगनाराम की ज़िन्दगी की तकलीफ़े किसी भी दलित की ज़िंदगी जैसी ही हैं. नोखा के केडली गांव में एक गरीब किसान परिवार में जन्मा यह नौजवान दो जोड़ी कपड़ों और एक जोड़ी चप्पल के साए में अपनी ज़िन्दगी बसर कर रहा है. इससे ज़्यादा उसे कुछ चाहिए भी नहीं. न खाने की परवाह है और न सोने की चिन्ता. सपना बस एक कि दबी-कुचली आवाज़ों को इतनी प्रमुखता से उठाया जाए कि अन्याय का महल हमेशा के लिए ढह जाए.
मंगनाराम TwoCircles.net के साथ बातचीत में बताते हैं कि उन्हें अम्बेडकर के साहित्य में काफी रूचि है. 15 साल की उम्र में जब वे 10वीं क्लास में थे, तब उन्होंने अंबेडकर, ज्योतिबा फुले और बाकी सभी विभूतियों के साहित्य को पढ़ लिया था. अब वे अम्बेडकर की विचारधारा को अपने जीवन में आत्मसात करने की कोशिश में लगे हुए हैं.
मंगनाराम बताते हैं, ‘इन किताबों को पढ़ने के बाद से ही मेरे दिल में यह बैठ गया कि जहां भी दलितों, किसानों, गरीबों व मज़दूरों के साथ ज़ुल्म होगा, अन्याय होगा, वहां मैं बोलूंगा. विरोध करूंगा. चाहे इसके लिए मुझे अपनी जान की कुर्बानी ही क्यों न देनी पड़े.’
मंगनाराम 2013 में जब डूंगर कॉलेज में बीए फर्स्ट ईयर की पढ़ाई कर रहे थे. तब वे अकेले अपने दम पर छात्रसंघ का चुनाव जीते थे और महासचिव बने थे. लेकिन किसी वजह से उन्हें यह कॉलेज छोड़ना पड़ा, अब वे पत्राचार के माध्यम से बीए की पढ़ाई कर रहे हैं.
मंगनाराम का संघर्षपूर्ण रोजनामचा यह है कि वे सुबह-सुबह नोखा के तहसील रोड पर पहुंच जाते हैं, जहां सरकारी कार्यालयों में गरीब जनता चक्कर काटती रहती है. जिनका काम अधिकारी नहीं करते और पैसे मांगते हैं. वहां मंगनाराम उन्हीं अधिकारियों से इन गरीबों का काम करवाते हैं. रिश्वतखोर अधिकारियों से इन गरीबों के लिए लड़ते हैं.
डेल्टा मेघवाल के मामले में भी मंगनाराम ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है. घटनास्थल और बाक़ी जगहों पर पहुंच कर विरोध-प्रदर्शन करने में सबसे आगे रहे हैं. जब स्थानीय मीडिया इस मामले को दबाने का प्रयास करने लगी तो मंगनाराम ने ही सोशल मीडिया के ज़रिए पूरे भारत में अपना संदेश भेजकर इस मामले को दबने से बचाने का काम किया.
यह जानकार हैरानी होगी कि पर्दे के पीछे से इस मुहिम में जी-जान से जुटा यह शख्स अपने फ़ौलादी इरादों और दृढ़ इच्छाशक्ति से राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की संवेदनहीनता की सरेआम क़लई खोल चुका है. दरअसल, 26 जनवरी, 2016 को नोखा से 20 किलोमीटर दूर कागड़ा गांव में वसुंधरा राजे के एक कार्यक्रम में दलितों व सवर्णों के खाने के लिए अलग-अलग टेन्ट लगाए गए थे, उस समय सबसे पहले मंगनाराम ने ही अपना विरोध दर्ज कराया. इसकी चर्चा पूरे राज्य में हुई. डांगावास हत्याकांड में बाद की घटनाओं में इस शख्स की काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है. आखिर तक संघर्ष करने वालों में सबसे अहम नाम मंगनाराम का ही है.
डेल्टा मेघवाल की मौत को दुखद घटना बताते हुए मंगनाराम बताते हैं, ‘डेल्टा मेघवाल की मौत काफी दुखद घटना है. हम इस मामले को लेकर वसुंधरा राजे से मिलने गए थे, लेकिन उन्होंने बग़ैर सोचे इल्ज़ाम लगाया कि लड़की के अवैध संबंध पीटीआई से थे. हमने उनकी इस बात का कड़ा विरोध किया. यहीं से हमें यह समझ में आ गया है कि न्याय इतनी आसानी से मिलने वाला नहीं है. क्योंकि जब एक महिला मुख्यमंत्री जिसने खुद डेल्टा मेघवाल के प्रतिभा को सलाम किया हो, ऐसा सोच रही है तो फिर सवर्ण पुरूषवादी मानसिकता वाले पुलिस प्रशासन से हम क्या उम्मीद कर सकते हैं.’
वो आगे बताते हैं, ‘जब तक हमें न्याय नहीं मिलेगा, हम अपना संघर्ष जारी रखेंगे. इस मामले की सीबीआई जांच हर हाल में होनी चाहिए ताकि दूध का दूध और पानी का पानी हो जाए. स्थानीय पुलिस प्रशासन में यहां ज़िन्दा लाशें बैठी हुई हैं. हमें इनकी जांच पर कोई भरोसा नहीं है.’
आख़िर में मंगनाराम पूरी उम्मीद के साथ कहते हैं, ‘हमारी इस लड़ाई में सारे समाज के लोग हैं. सभी पार्टियों के लोग हैं. भाजपा के एक नेता भी इस मुद्दे को विधानसभा में उठा चुके हैं. हमें पूरी उम्मीद है कि न्याय की इस लड़ाई में जीत हमारी ही होगी.’
समाज में कुछ भी कर देने और विरोध में खड़े होने की बात हम सभी मानते हैं. लेकिन हमें हमेशा एक ऐसा चेहरा चाहिए होता है, जिसे आंदोलन के चेहरे के रूप में देखा जा सके. मंगनाराम उन चेहरों में से एक हैं और उनकी गुमनाम शख्सियत यहीं से एक दलित छात्रा को इंसाफ़ दिलाने का हथियार बनती है.
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