नासिरूद्दीन
18 दिसम्बर 2015 यानी ठीक एक साल पहले. हमारे जैसे सभ्य नागरिक समाज के लोगों का एक आम-सा दिन था. मगर हैदराबाद केद्रीय विश्वविद्यालय के एक दलित छात्र और उसके दोस्तों के लिए जद्दोज़हद का दौर. अस्तित्व और अस्मिता बचाने के संघर्ष का दौर. उन्हें अम्बेडकर पढ़ने और अम्बेडकर के विचार के आधार पर छात्रों के बीच सामाजिक बदलाव की मुहिम चलाने की सजा मिली थी. एक घटना का बहाना बनाकर, उन्हें कैम्पस की ‘सामाजिक जिंदगी से बहिष्कृत’ कर दिया गया था. उनकी बात किसी ने नहीं सुनी. वे विश्वविद्यालय में इस चौखट से उस चौखट गुहार लगा रहे थे, पर किसी के कान पर जूं नहीं रेंगी. वे जिस छात्र समूह के सदस्य थे, वह बड़े सामाजिक बदलाव की बात करता था. इसलिए उनके पीछे कोई पार्टी भी नहीं खड़ी थी. वे जद्दोज़हद कर रहे थे लेकिन उन्हें इंसाफ की लौ कहीं नजर नहीं आ रही थी. ऐसे में इस समूह के एक सदस्य ने एक खत लिखा. अंग्रेजी में लिखे इस खत की कहन, स्टाइल या शब्दों के चुनाव को हम हिन्दी में कटाक्ष, व्यंग्य जैसा कुछ नाम दे सकते हैं. हम चाहे जो नाम दे दें, पर यह झकझोर देने वाला है.
जी, सही समझ रहे हैं. हम अम्बेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन (एएसए) और उसके सदस्यों की बात कर रहे हैं. एएसए कैम्पस के अंदर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) को मजबूत वैचारिक टक्कर दे रहा था. एबीवीपी का केन्द्र की सत्ता में बैठी पार्टी और उसके मूल विचार वाले संघ से वैचारिक रिश्ता है. इस रिश्ते का खामियाजा एएसए के पांच सदस्यों को उठाना पड़ा. इनमें पीएचडी कर रहे दलित छात्र रोहित वेमुला भी थे. जिस खत का जिक्र पहले किया गया है, वह रोहित ने ही लिखा था.
कुलपति के दलित विरोधी रवैये और कार्यवाही से रोहित बेहद बेचैन थे. उनकी बेबसी, बेचैनी और परेशानी का अक्स इस खत में देखा जा सकता है. रोहित कुलपति को लिखते हैं, ‘सबसे पहले, मैं एचसीयू कैम्पस में दलितों के आत्मसम्मान आंदोलनों से निपटने की आपकी प्रतिबद्धता की तारीफ करना चाहता हूं. जब एबीवीपी अध्यक्ष से दलितों के बारे में की गई उसकी अपमानजनक टिप्पणी के बारे में पूछताछ हुई तो इस मामले में आपका कृपालु व्यक्तिगत हस्तक्षेप ऐतिहासिक और दूसरों के लिए उदाहरण है.’ इसे तंजिया बयान कहा जा सकता है लेकिन दरअसल यह उस हालात की हकीकत बयानी भी है, जिसका सामना कैम्पस में दलित स्टूडेंट कर रहे थे. जाहिर है, यह हालात दलित विरोधी और अम्बेडकर विचार विरोधी है.
दिलचस्प है कि उस वक्त डोनाल्ड ट्रम्प की शोहरत आज जैसी नहीं थी और न ही दूर-दूर तक उनके राष्ट्रपति बनने के संकेत थे. लेकिन लगता है कि रोहित ने ट्रम्प की खासियत को पहचान लिया था. वे कुलपति को उससे भी बड़ा मानते हैं. वे लिखते हैं, ‘कैम्पस के इलाके से पांच दलित स्टूडेंट ‘सामाजिक रूप से बहिष्कृत’ हैं. जनाब, आपके सामने तो डोनाल्ड ट्रम्प भी लिलिपुट हैं.’ यानी जहां तक नफरत का मामला है, एचसीयू कुलपति अमरीकी राष्ट्रपति से काफी आगे हैं. वही कुलपति आज भी कैम्पस के सर्वेसर्वा हैं.
कैम्पस न सिर्फ ज्ञान के नाम पर डिग्री पाने की जगह होती है बल्कि हर तरह के विचारों के साथ प्रयोग करने की भी जगह है. यहां विचार नहीं पनपेंगे और उन पर खुलकर बहस नहीं होगी तो सवाल है, कहां होगी. लेकिन रोहित और एएसए के उनके दोस्त दलित और अम्बेडकर का नाम लेने की वजह से ही कैम्पस और कैम्पस के बाहर के ताकतवर संगठनों और लोगों के निशाने पर थे.
दलित विद्यार्थियों की चेतना से ये डरे हुए थे. उन्हें इसी वजह राष्ट्रविरोधी माना गया. इसी वजह से उन पर कार्रवाई हुई. रोहित और उनके दोस्त इसी सामाजिक-राजनीतिक चेतना की वजह से बहिष्कृत कर दिए गए थे. इसलिए रोहित कुलपति को एक ऐसा सुझाव देते हैं, जिसे पढ़ या सुनकर खुद को इंसान मानना वाला कोई भी जीव शर्मसार तो हो ही जाएगा. ये शब्द भले ही तंज लगे लेकिन ये तकलीफ की इंतहां को बयान करते हैं. तंज भी मानें तो यह महज कुलपति महोदय तक सीमित नहीं है. यह तंज हमारे सारे समाज पर है.
रोहित कुलपति को अब दो सुझाव देते हैं. पहला, ‘कृपया, एडमिशन के वक्त सभी दलित स्टूडेंट को 10 मिलीग्राम सोडियम एजाइड भी साथ में दे दिया जाए. इसके साथ एक निर्देश हो कि जब कभी उन्हें अम्बेडकर को पढ़ने की ख्वाहिश हो, वे इसका इस्तेमाल कर लें.’ दूसरा, ‘…आप अपने साथी, महान चीफ वार्डेन के मार्फत सभी दलित स्टूडेंट के कमरों में खूबसूरत रस्सी की सप्लाई भी करा दें.’
उम्मीद और उमंग से भरे नई चेतना की तलाश में आए नए दलित स्टूडेंट सोडियम एजाइड और रस्सी का क्या करेंगे? ये दोनों अम्बेडकर के विचारों से लैस होने की ख्वाहिश रखने वाले विद्यार्थियों की चेतना खत्म करने में काम आएंगे. सोडियम एजाइड काफी खतरनाक जानलेवा जहर है. इसकी थोड़ी सी मात्रा भी जान लेने के लिए काफी है.. और रस्सी…? इसके इस्तेमाल के बारे में हमें एक महीने बाद पता चलता है.
रोहित इस खत में अपने जैसे पुराने और विचारों से लैस स्टूडेंट के बारे में भी कुछ कहते और मांगते हैं. वे कुलपति को आगे लिखते हैं, ‘हालांकि हम, स्कॉलर, पीएचडी स्टूडेंट इस स्टेज को अब पार कर चुके हैं. और बदकिस्मती से हम अब दलित आत्म-सम्मान आंदोलन के भी सदस्य हैं, इसलिए ऐसा लगता है कि हमारा यहां से आसानी से बाहर निकल पाना थोड़ा मुश्किल है. इसलिए, महामहिम आपसे गुजारिश है कि मेरे जैसे स्टूडेंट के लिए ‘इच्छा मृत्यु’ यानी ‘दर्द से निजात दिलाने वाली सुकून वाली मौत’ (EUTHANASIA) की सहूलियत के इंतजाम कर दीजिए. हां, और मैं दुआ करता हूं कि इसके बाद आप और कैम्पस हमेशा अमन-चैन से रहें.’
इस खत को लिखे हुए ठीक एक साल हो रहे हैं. इसे लिखने वाले रोहित हमारे बीच नहीं रहे. लेकिन उसके न रहने के जिम्मेदार लोगों के चेहरे उसके इस खत में साफ देखे जा सकते हैं. यही नहीं, उसके न रहने के जो हालात और वजह हैं, वह अब तक जस की तस हैं.
रोहित के साथी डोंथा प्रशांत के लिए यह खत बहुत अहम है. वे कहते हैं कि इस खत को याद किया जाना निहायत जरूरी है. उनका कहना है कि यह खत अपने आप में पर्याप्त सुबूत है कि किस तरह कुलपति प्रोफेसर अप्पाराव पोडिले ने रोहित को मौत की मुंह में धकेल दिया. यह संस्थागत हत्या है. अप्पाराव की वजह से हमने रोहित जैसा मेधावी स्कालर और साथी खो दिया. अप्पाराव को बचाकर सरकार गलत काम कर रही है. यह एक जातिवादी अपराधी को बचाना है. वे कहते हैं कि अप्पाराव को केन्द्र सरकार अपने राजनीतिक मकसद को पूरा करने के लिए बचाती आ रही है. अप्पाराव उनके ही हितों को पूरा करने में लगे हैं. उन्होंने दलितों की आवाज दबाई है. हमारे खिलाफ जो कुछ भी हुआ, वह सब कुलपति की वजह से हुआ. मगर इतना सब कुछ होने के बाद भी अप्पाराव के खिलाफ कुछ नहीं हुआ. ऐसे शख्स को बचाकर सरकार अपराधियों को बचाने का संदेश दे रही है. यह मुजरिम को दण्ड से बचा लेने जैसा है.
इसलिए रोहित के खत के एक साल पूरा होने पर वे और उनके दो साथियों – विजय पेडापुडी और सेशैयाह चेमुदुगुंटा ने राष्ट्रपति को लम्बा खत लिखा है. उन्होंने राष्ट्रपति से हैदराबाद विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर पोडिले अप्पाराव को हटाने की अपील की है. साथ ही मांग की है कि राष्ट्रपति तेलंगाना सरकार को अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत अप्पाराव पर कानूनी कार्रवाई करने का निर्देश दें. अप्पाराव पर पहले से ही इस मामले में केस दर्ज है.
हालांकि, यह खत असलियत में दलित छात्रों की कैम्पस के अंदर की बदतर सामाजिक हालात और उनके साथ होने वाले सुलूक का आईना है. मगर वह भारतीय लोकतंत्र के पैरोकारों और सभ्य नागरिक समाज के अलमबरदारों के लिए भी उतना ही शर्मनाक है जितना सत्ता के बैठी ताकत के लिए. अगर यह बात कुछ ज्यादा लग रही है तो हम दिल पर हाथ रखकर सोचें और देखें कि हमारे कैम्पस में ऐसा सुलूक समाज के किस तबके के स्टूडेंट के साथ डंके की चोट पर होता है. यकीन जानिए, वह सामाजिक हाशिए पर ढकेल दिए गए समूह का सदस्य ही होगा.
[नासिरुद्दीन ने बहुत समय तक कई मीडिया संस्थानों के साथ काम किया है. फिलहाल वे लखनऊ में रहते हैं और स्वतंत्र रूप से लिखने में मसरूफ हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.]