इबरार रज़ा : दलित-मुसलमानों में जागरूकता लाने की एक मिसाल

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net

पटना (बिहार) : अच्छी-ख़ासी नौकरी छोड़कर ग़रीबों के लिए कुछ बेहतर कर सकने का जज़्बा इबरार अहमद रज़ा के लिए किसी मंज़िल की तरह है. ये वो मंज़िल है, जिसके लिए इबरार ने सुख-सुकून और आराम की नौकरी की सारी वजहें दरकिनार कर दीं. रिलायंस जैसे संस्थानों के एक कम्पनी में काम कर रहे इबरार आज की तारीख़ में गरीबों व मज़लूमों के हित के ख़ातिर दिन रात लगे हुए हैं.


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इबरार ‘मिसाल’ नामक संस्था से जुड़कर दलितों व मुसलमानों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने में लगे हुए हैं. यहां बताते चलें कि ‘मिसाल’ नामक ये संस्था बिहार के मधुबनी ज़िला में जन्में डॉ. सज्जाद हसन नाम के एक आईएएस अधिकारी ने अपने पद से इस्तीफ़ा देकर शुरू किया है. इबरार ने जब इस संस्था के काम को देखा तो उनको इससे जुड़ने की बेहद दिलचस्पी हुई और उन्हें लगा कि वो इसके ज़रिए उन तमाम ग़रीब और अभावग्रस्त बच्चों के सपनों को पूरा करने की कोशिश कर सकते हैं, जो कभी खुद उनकी रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा था.

IBRAR RAZA
32 साल के इबरार अपनी बचपन की बातों को याद करते हुए बताते हैं कि –‘मेरा बचपन संघर्षपूर्ण रहा. मैं बचपन में वैशाली ज़िले के एक गांव में नानी के घर रहता था और गावं के मकतब में पढ़ता था. मकतब से आने के बाद बकरियां चराने का काम मेरे ही ज़िम्मे था. तब मेरी ख़्वाहिश होती थी कि काश कि नानी के पास भैंस होता और मैं उन्हें चराता. क्योंकि जो लड़के भैंस चराने आते थे, वो अक्सर भैंस पर ही बैठे रहते थे. मुझे भी भैंस पर चढ़ने का मन करता. लेकिन मेरी नानी मुझे डरा देती कि भैंस बच्चों को गिरा देती है. इस बीच मेरी सोहबत बिगड़ गई. मैं गाली देने के सारे हुनर सीख गया था. ऐसे में जब मेरे अम्मी-अब्बू नानी के घर आयें तो लोगों ने शिकायत की, बस फिर क्या था वो मुझे वापस पटना लेकर आ गएं.’

अपनी इस कहानी को वो आगे बढ़ाते हुए बताते हैं कि –‘मेरे अब्बू का जेवर के डब्बों का घर में ही छोटा सा कारखाना था. एक बार कारखाने के कारीगरों ने लगन में ही काम छोड़ दिया. जिससे मेरे अब्बू परेशान हो गए. तभी एक अकंल मे उन्हें सलाह दी कि पढ़कर आने के बाद इबरार को ही ट्रेंड करो. बस फिर क्या था. मैं भी अब्बू के साथ डिब्बा बनाने में जुट गया. अक्सर रात को 12 बज जाते थे. अब तो ऐसा हो गया कि मुझे अपना होमवर्क करने का मौक़ा घर पर कभी नहीं मिलता. लेकिन स्कूल में पिटाई की वजह से मैं लंच की छुट्टी में स्कूल में ही अपना होमवर्क करता था या सुबह जल्दी उठकर ये काम करता. इस कारण मैं मैट्रिक व इंटर मैं प्रथम आया. मैं डॉक्टर बनना चाहता था, इसलिए बायोलॉजी से इन्टर किया. लेकिन न तो कोई गाईड करने वाला था न पैसे थे. बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर मैंने इंटर किया और कोचिंग की फ़ीस दी. जॉब करते हुए ही समाजशास्त्र में स्नातक और फिर एमबीए किया.’

IBRAR RAZA
इबरार बताते हैं कि –‘मेरे पिताजी न्यूज़ सुनने के आदी थे. वो रात काम करते-करते बीबीसी ज़रूर सुनते थे. अडवाणी की रथ-यात्रा और सद्दाम हुसैन की ख़बरों में उनकी दिलचस्पी थी. इस तरह न्यूज़ सुनने और देखने की दिलचस्पी मुझ में भी पैदा हो गई. अल्लामा इक़बाल के बोल “ग़ुरबत में भी अगर हम रहता है दिल वतन” को मैंने खुद को फ़ॉलो करते देखा.’

वो आगे बताते हैं कि –‘नौकरी मेरी मजबूरी थी. क्योंकि पैसे कमाकर घर पर भी देना होता था. लेकिन मुझे जॉब के दौरान कभी सुकून नहीं मिला. अक्सर मेरी ख़्वाहिश समाज के लिए कुछ करने की रही. ख़ासतौर पर उस समाज के लिए जो समाज शिक्षा की अहमियत को नहीं समझ पाया है. जो संविधान में मिले अपने अधिकारों से ही अनभिज्ञ है. साल 2012 में रिलायंस से एग्जीक्यूटिव सेल्स मैनेजर की नौकरी त्याग दी और खुद समाजसेवा के लिए समर्पित कर दिया. अभी एक साल से अधिक समय से ‘मिसाल’ का राज्य पर्यवेक्षक हूँ. ‘मिसाल’ से जुड़कर अल्पसंख्यक-दलित अधिकारों पर काम कर रहा हूं.’

IBRAR RAZA
इबरार रज़ा अपनी ज़िन्दगी में बेहद ही सादगी से जीने वाले और सामाजिक न्याय की लगातार सोचने वाले व्यक्ति हैं. उन्होंने जिस गरीबी व अभाव को झेला और भोगा है, उसकी तक़लीफ़ से वो आज भी वाक़िफ़ हैं. वे आज भी उन दिनों को भूले नहीं हैं. यही वजह है कि वो अपने ज़िन्दगी के हर लम्हे को इसी दिशा में लगाना चाहते हैं ताकि एक बेहतर कल का निर्माण हो सके और वो नन्हीं उम्मीदें जो बचपन में ही खाकसारी की कमी से मुर्झा जाती हैं, उन्हें नया जीवन दिया जा सके.

TwoCircles.net के साथ एक लंबी बातचीत में इबरार बताते हैं कि –‘मुसलमानों के बीच काम करने वाले संगठनों की कोई कमी नहीं है. लेकिन इनमें अधिकतर मज़हबी तंज़ीमें हैं, जो जलसे-जुलुस और मदरसों तक सीमित हैं. ‘मिसाल’ इससे काफी अलग हटकर है. डा. सज्जाद हसन ने भारतीय प्रशासनिक सेवा से त्यागपत्र देकर समाजसेवा को चुना. जब वह पूर्व आईएएस हर्षमंदर के साथ मुज़फ्फ़रनगर दंगा पीड़ितों के बीच काम कर रहे थे तो उन्होंने अल्पसंख्यको के बीच काम करने वाली संगठन की कमी को शिद्दत से महसूस किया और जब पटना की मीटिंग में मैंने उनकी बात सुनी तो मुझे ऐसा लगा मुझे एक जिस मार्ग की तलाश थी, वह यही है.’

IBRAR RAZA
इबरार बताते हैं कि –‘आज हम बिहार के पांच ज़िलों में काम कर रहे हैं. आज ख़ुशी होती है कि हम गावं के दूर-दराज इलाक़ों में सरकारी योजनाओं की न केवल जानकारी बल्कि लोगों को उनका हक़ दिलाने में कामयाबी पा रहे हैं.’

मुस्लिम युवाओं के क्या संदेश देंगे? इस सवाल पर वो काफी गंभीरता के साथ अपनी बात रखते हुए कहते हैं कि –‘मुसलमान युवाओं को ‘पढ़ो और पढ़ाओ’ नीति पर काम करने की ज़रूरत है. अगर हर पढ़ा-लिखा युवा अपने आस-पास के कम से कम 5 लोगों को भी पढ़ाना शुरू कर दे, या कम से कम उन्हें उनके अधिकारों से रूबरू करा दे, तो काफी हद तक लोग शिक्षित होने लगेंगे. और अगर शिक्षा के क्षेत्र हम एक बार आगे आ गए तो फिर हमें आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता. हमारी सारी बदहाली दूर हो जाएगी. और ये सब कुछ मुमकिन है.’

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