By सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net
वाराणसी: निदा फाज़ली नहीं रहे. वही निदा जिन्होंने ‘होश वालों को ख़बर क्या बेख़ुदी क्या चीज़ है’ और ‘तू इस तरह से मेरी ज़िन्दगी में शामिल है’ जैसी नज्में और गज़लें लिखकर भारतीय सिनेमा को एक फूहड़ता से बचा रखा था. वही निदा जिनकी ग़ज़लों पर जगजीत सिंह रीझे रहते थे. वही निदा जिन्होंने कलबुर्गी की ह्त्या पर नज़्म लिखकर अपना विरोध जताया. वही निदा जिन्होंने कहा कि अब देश में सच बोलने पर मार दिए जाने का भय होता है.
हाँ, वही निदा जिन्होंने अपनी आख़िरी सांस तक लिखा.
दिल्ली के एक कश्मीरी परिवार में पैदा हुए निदा ग्वालियर में पढ़े. विभाजन के समय उनके परिजन पाकिस्तान जा बसे, लेकिन निदा नहीं गए. पढ़ाई की और मुंबई आ गए. पत्रिकाओं के लिखा तो कमाल अमरोही की नज़र उन पर पड़ी और निदा फाज़ली को सबके सामने ला खड़ा किया. आज 78 वर्ष की आयु में हार्ट अटैक के चलते निदा फाज़ली चल बसे.
ज्यादा न कहते हुए उन्हीं की इस नज़्म से निदा को याद करें तो बेहतर…
तुम्हारी क़ब्र पर मैं
फ़ातिहा पढ़ने नही आया,
मुझे मालूम था, तुम मर नही सकते
तुम्हारी मौत की सच्ची खबर
जिसने उड़ाई थी, वो झूठा था,
वो तुम कब थे?
कोई सूखा हुआ पत्ता, हवा में गिर के टूटा था
मेरी आँखे
तुम्हारी मंज़रो मे कैद है अब तक
मैं जो भी देखता हूँ, सोचता हूँ
वो, वही है
जो तुम्हारी नेकनामी और बदनामी की दुनिया थी
कहीं कुछ भी नहीं बदला,
तुम्हारे हाथ मेरी उंगलियों में सांस लेते हैं,
मैं लिखने के लिये जब भी क़ागज़ क़लम उठाता हूं,
तुम्हें बैठा हुआ मैं अपनी कुर्सी में पाता हूं
बदन में मेरे जितना भी लहू है,
वो तुम्हारी लगजिशों नाकामियों के साथ बहता है,
मेरी आवाज़ में छिपकर तुम्हारा जेहन रहता है,
मेरी बीमारियों में तुम मेरी लाचारियों में तुम
तुम्हारी क़ब्र पर जिसने तुम्हारा नाम लिखा है,
वो झूठा है, वो झूठा है, वो झूठा है,
तुम्हारी क़ब्र में मैं दफ़न तुम मुझमें जिन्दा हो,
कभी फुरसत मिले तो फ़ातिहा पढ़ने चले आना