Mohammad Aijaz for TwoCircles.net
बरेली : उत्तरप्रदेश की अखिलेश सरकार वर्ष 2016 को ‘किसान वर्ष’ के रूप में मना रही है. अखिलेश यादव का मानना है कि –‘प्रदेश और देश का विकास तब तक संभव नहीं है, जब तक कृषि को बढ़ावा नहीं दिया जाएगा और किसानों की खुशहाली के बिना देश खुशहाल नहीं हो सकता.’
अखिलेश यादव के इसी विचार को ध्यान में रखकर सरकार पिछले वित्तीय वर्ष में किसानों के लिए कई कार्यक्रमों व स्कीमों की शुरूआत की. लेकिन बरेली का गुपलापुर गांव की बदहाली बता रही है कि सरकार की कोई यहां पहुंचने में कामयाब नहीं हो सकी है. किसान यहां दम तोड़ने पर मजबूर हैं. यानी ‘किसान वर्ष’ की आत्मा ‘किसानों की खुशहाली’ सिर्फ़ सरकारी विज्ञापनों तक सीमित नज़र आ रही है.
गुपलापुर के किसान कहते हैं कि उन्हें सरकार के किसी योजना का न तो लाभ मिला है और न ही इसके बारे में कोई ठोस जानकारी है. बदहाली की दास्तान समेटे कई किसान अपना दर्द साझा करते हुए रो पड़ते हैं. उनका स्पष्ट कहना है कि –‘आख़िर हम किसान करे तो क्या करें?’
सरकारी योजनाओं से महरूम 51 वर्षीय किसान महमूद बताते हैं कि –‘हम चार भाई हैं. सब मिलाकर हमारी पुश्तैनी ज़मीन लगभग 18 बीघा है. यानी हमारे हिस्से में तक़रीबन 6 बीघा ज़मीन आई है. पर इतनी ज़मीन होने के बावजूद आज की महंगाई ने हमें बेदम कर दिया है. समझ नहीं आता कि चार बच्चों के पढ़ाई की फीस कहां से लाएं?’
वो आगे कहते हैं कि –‘कहने को तो सरकार ने हमारे लिए कई स्कीमें चला रखी हैं, लेकिन सकार के किसी भी स्कीम के तहत हमें खेती-बाड़ी के नाम पर एक फूटी कौड़ी भी नहीं मिली है.’
इस गांव के तक़रीबन सारे किसानों की हालत महमूद जैसा ही है. बल्कि कुछ तो ऐसे हैं कि उन्हें अकेले छोड़ दिया जाए तो शायद वो ज़रूर आत्महत्या कर लें.
दरअसल, गुपलापुर गांव बरेली ज़िले के उत्तर दिशा में मुख्यालय से 14 किमी दूर भोजीपुरा ब्लाक के अंतर्गत आता है. इस गांव में तक़रीबन 221 है. यहां के 60 फीसदी लोग भूमिहीन हैं, जो मजदूरी पर आश्रित हैं.
सरकारी योजनाओं का आलम यह है कि वो यहां तक पहुँचने से पहले ही दम तोड़ देती हैं. बल्कि सच तो यह है कि सरकार कागज़ों व विज्ञापनों में चाहे जितनी बड़ी-बड़ी स्कीमें बना ले, लेकिन उनकी स्कीमें आज भी गांव तक नहीं पहुंच पा रही है. गुपलापुर के लोगों में भी सरकारी स्कीमों की कोई जानकारी नहीं है.
गुपलापुर सहित सूबे में आज तक एक भी किसान मित्र भी सरकार नहीं रख पाई है. इससे ‘किसान वर्ष’ की नब्ज़ को आंका जा सकता है.
दूसरी तरफ़ इस गांव के विकास के स्थिति का अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि यहां 50 फ़ीसदी से अधिक लोगों के पास राशन कार्ड नहीं है. गांव के 80 फिसद से अधिक लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं, उसके बावजूद यहां के बीपीएल कार्ड क्या होता है, शायद किसी को मालूम हो. सरकार की अनदेखी का आलम तो यह है कि यहां खेती बाड़ी के लिए लगा सरकारी नलकूप भी पिछले डेढ़ सालों से ख़राब पड़ा हैं.
यानी सूबे के मुखिया का ‘किसान वर्ष’ के खुशहाली की हवा यहाँ नहीं बह पा रही है. ऐसे में सवाल उठता है कि बेहतर उत्पादकता के लिए, प्रमाणित बीजों के लिए, खादों के भंडारण के लिए, मुफ्त सिंचाई के लिए, कृषि दुघर्टना के लिए, कृषि विकास के लिए जारी बजट आखिर कहां चला गया?
और सबसे ज़रुरी सवाल जो सतह पर उभर कर सामने आता है कि यहां पर तमाम सरकारी योजनाएं सफ़ेद हाथी की तरह हैं?
(लेखक मोहम्मद एजाज़ ने बरेली में जन अधिकारों की समर्पित मुहिम का हिस्सा हैं. फिलहाल मिसाल नेटवर्क से जुड़े हैं.)