Afroz Alam Sahil, TwoCircles.net
आज़मगढ़ : इस देश में कई नाम ऐसे हैं, जो एक कोने में चुपचाप पड़े रहते हैं और लोगों के हक़ के लिए अपना सबकुछ निछावर कर देते हैं. लेकिन संसार उनके विषय में कुछ नहीं जान पाता. गुदड़ी के इन लालों का जितना कम नाम होता है, उनका काम उतना ही बड़ा… इन्हीं गुदड़ी के लालों में एक नाम जो उत्तरप्रदेश के आज़मगढ़ की ज़मीन पर इन दिनों दलितों व अल्पसंख्यकों के मानवाधिकार और इंसाफ़ की लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाने में जी-जान से जुटा हुआ है. वो नाम विनोद यादव का है.
विनोद यादव एक ऐसी शख़्सियत, जिसने दिल्ली में हुए बटला हाउस ‘एनकाउंटर’ से लेकर दूसरे उन तमाम मामलों में, जिनमें मानवाधिकार का उल्लंघन हो रहा है, जिसने खासकर बेकसूर मुस्लिम नौजवानों की गिरफ़्तारी पर आवाज़ बुलंद करने में ज़मीन-आसमान एक कर दिया है.
विनोद यादव के लिए दूसरों के मानवाधिकार व इंसाफ़ की जंग लड़ना इतना आसान नहीं रहा है. इन्हें अपने इस लड़ाई का खामियाजा भी उठाना पड़ा है. पुलिस ने इन्हें उठाकर न सिर्फ जेल में ठूंस दिया, बल्कि तरह-तरह से टार्चर भी किया. बावजूद इसके वो अभी भी पूरे जज़्बे व साहस के साथ उन बेक़सूरों व गुमनाम आवाज़ों को ज़बान देने की कोशिश में डटे हुए हैं, जिन्हें पूछने वाला कोई नहीं है.
आज़मगढ़ में जन्में 38 साल के विनोद की प्रारंभिक शिक्षा यूपी के सिद्धार्थनगर से हुई, लेकिन पांचवी के बाद वो आरएसएस द्वारा संचालित ‘सरस्वती विहार’ नामक स्कूल में पढ़ने के लिए वो नैनिताल चले गए. दसवीं तक की पढ़ाई के बाद वो आज़मगढ़ लौट आए.
उसके बाद बारहवीं और स्नातक की पढ़ाई आज़मगढ़ शहर से ही हुई. उनके पिता सरकारी इंजीनियर और मुलायम यादव के समर्थक थे. कल्याण सिंह के दौर में इनके पिता पर कुछ गंभीर आरोप लगें. उसके बाद इनका पूरा परिवार बीजेपी व आरएसएस विरोधी हो गया. इसका असर विनोद यादव पर भी पड़ा.
खैर, घर वालों की ख्वाहिश थी कि विनोद पढ़-लिखकर एमबीबीएस डॉक्टर बने, लेकिन विनोद का स्पोर्ट्स में दिलचस्पी थी, वो तैराकी में माहिर थे और क्रिकेट से खासा लगाव था. इसलिए घर वालों के कोशिशों के बावजूद वो डॉक्टर बनने के लिए खुद को तैयार नहीं कर पाएं. लेकिन स्नातक की पढ़ाई के दौरान वो ‘सामाजिक डॉक्टर’ बनकर समाज की सेवा ज़रूर करना चाहते थे. इसी चाहत में वो स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर छात्र-संघ का चुनाव भी लड़ें, लेकिन हार गए.
फिर स्नातक के बाद उन्होंने वकालत करने की ठानी और अब वकील बनकर दलितों-अल्पसंख्यकों के मामलों की पैरवी करते रहते हैं. ज़रूरतमंदो को निशुल्क क़ानूनी सलाह व उनके समस्याओं के निवारण के तरीक़े बताते रहते हैं. साथ ही समाज में जो बुराईयां हैं, उसको दूर करने के प्रयास में लगे रहते हैं. इस तरह से वो विनोद यादव 2001 से सामाजिक कार्य में सक्रिय हैं.
विनोद यादव बताते हैं कि दिल्ली में बटला हाउस एनकाउंटर के बाद वो आज़मगढ़ में सक्रिय हुए. क्योंकि आज़मगढ़ को मीडिया ‘आतंकगढ़’ बनाकर पेश कर रही थी, जो मुझे किसी भी रूप में बर्दाश्त नहीं था. हमने बाहर से आने वाले उन मीडियाकर्मियों की मदद करनी शुरू की, जो ज़ेहनियत से साम्प्रदायिक नहीं थे. हम और हमारे कुछ साथी आज़मगढ़ से आतंकवादी बताकर उठाये गए मुस्लिम युवकों के परिजनों को कानूनी सहायता दिलाने का प्रयास भी कर रहे थे. इतना ही नहीं, आज़मगढ़ में एक हमने एक सम्मेलन भी कराया, जिसका विषय था –‘आज़मगढ़ साम्प्रदायिकता का गढ़ नहीं है.’ कुछ लोगों ने इसका विरोध भी किया. इसके बाद साम्प्रदायिक पुलिस व एजेन्सियों के ख़िलाफ़ एक धरना भी दिया, जिसे आज़मगढ़ पुलिस ने रोका था.
वो बताते हैं कि मेरे इन्हीं सब कार्यों को लेकर 23 अक्टूबर 2008 को फैजाबाद रेलवे स्टेशन पर ट्रेन में पुलिस व एसटीएफ के लोगों ने मेरे साथ मेरे एक दोस्त सरफ़राज़ को किडनैप किया. कई दिनों तक अवैध हिरासत में रखा. फिर मुझ पर ‘आतंक’ से जुड़े परिवार की मदद करने का आरोप लगा. 14 दिन की ज्यूडिशियल कस्टडी में रखा गया. इस दौरान मुझसे बार-बार एक ही सवाल पूछा जाता था –कि हिन्दू होकर मुसलमानों की मदद क्यों करते हो? उनके लिए क्यों बोलते हो? आदि-अनादि…
विनोद यादव बताते हैं कि इस गिरफ़्तारी के बाद मालूम हुआ कि पुलिस व एजेन्सियां पिछले 8 महीने से मुझ पर नज़र रखे हुए थीं. यहां तक कि हमारे घर के बच्चों पर भी वो नज़र रख रहे थे. आगे वो बताते हैं कि इस गिरफ़्तारी के बाद अहसास हुआ कि मुसलमान होना इस देश में कितनी बड़ी परेशानी है. सिर्फ मुसलमानों के हक़ की आवाज़ उठाने के लिए पुलिस ने मेरे साथ न जाने कितने प्रकार से टार्चर किया, लेकिन अगर मैं मुसलमान होता तो यह पुलिस वाले मेरे साथ क्या करते…
विनोद यादव अल्पसंख्यकों के अधिकारों की लड़ाई के अलावा इन दिनों दलितों में मुसहर समुदाय को लेकर आन्दोलन चला रहे हैं. राष्ट्रीय स्तर के वो भले ही तैराक न बन पाए हों, लेकिन विनोद इन दिनों पानी की समस्या को लेकर लोगों को जागरूक ज़रूर कर रहे हैं. उत्तरप्रदेश में नहर के मसले को लेकर कई आरटीआई भी डाल चुके हैं. इतना ही नहीं, अपने दादा जी के नाम पर ‘चौधरी-मौलवी देवश्री वेलफेयर एसोसियशन’ नामक एक संस्था बनाकर सामाजिक कार्य में लागातर लगे हुए हैं.
विनोद यादव मुल्क के वर्तमान हालात पर चिंता व्यक्त करते हुए बताते हैं कि इनके पीछे राजनीतिक साज़िश है. साम्प्रदायिक राजनीतिक पार्टियां हम लोगों को लड़ाने का काम कर रही हैं. ऐसे में हम सब लोगों को आपस में मिलकर रहने की ज़रूरत है. साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ संघर्ष करने की ज़रूरत है. खासकर दलित-मुस्लिम नौजवान अब अपनी समस्याओं को लेकर आगे आएं.
विनोद यादव की दिनचर्या इंसाफ़ की लड़ाई की जीती-जागती एक तस्वीर है. वे सुबह से लेकर रात तक दलितों, मज़लूमों, अल्पसंख्यकों और समाज के सताए हुए तबक़ों के हक़ में पूरी शिद्दत से खड़े रहते हैं. उनका सपना एक ऐसी व्यवस्था को जन्म देने में सहयोग करने का है, जहां इंसाफ़ की आवाज़ झूठी एफआईआर और फ़र्ज़ी चार्जशीटों के जुतों तले कुचली न जाती हों. उम्मीद की जानी चाहिए कि एक दिन उनका ये सपना साकार होकर रहेगा.
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