Afroz Alam Sahil, TwoCircles.net,
उन्हें ज़िन्दगी में मौक़े मिले, जो उन्हें लंदन तक ले गए. लेकिन लंदन उन्हें बांध नहीं सका और अब वो उन्हीं मौक़ों को अपने साथ लेकर किशनगंज लौट आए हैं, ताकि यहां की नई नस्ल इन मौक़ों का फ़ायदा उठा सके.
यह मौक़ा क्या है? अगर तफ़हीमुर रहमान के शब्दों में कहें तो ‘बेहतर बुनियादी शिक्षा’, जो बच्चों को मशीन के बजाए एक बेहतर इंसान बनाए…
30 साल के तफ़हीम बिहार के किशनगंज में पले-बढ़ें. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से 12वीं तक पढ़ाई की. फिर दिल्ली आ गए. दिल्ली में जामिया मिल्लिया इस्लामिया से इतिहास विषय में बैचलर की डिग्री हासिल की. तफ़हीम की ख्वाहिश मास कम्यूनिकेशन करने की थी. उन्होंने जामिया में इंट्रेस टेस्ट भी पास कर लिया था, लेकिन तफ़हीम के मुताबिक़ कैम्पस की पॉलिटिक्स में एक्टिव रहने के जुर्म में जामिया ने उनके साथ ज़्यादती की. उन्हें जामिया छोड़ना पड़ा.
जामिया से निकलने के बाद तफ़हीम लंदन गए और वहां के Buckinghamshire University से एमबीए की डिग्री हासिल की. पढ़ाई ख़त्म होने के बाद लंदन में ही रहकर ब्रिटिश गैस कम्पनी में 2 लाख से अधिक की तन्ख्वाह पर नौकरी की.
तफ़हीम बताते हैं कि –‘लंदन में भी हम अलीगढ़ वाले आपस में मिलते थे. अक्सर हम यह बात करते थे कि हम इतना पढ़-लिख कर अपने देश, समाज और शहर के लिए क्या कर रहे हैं.’
बस यही सोच मुझे मेरे देश बल्कि मेरे सरज़मीन पर खींच लाई. दिल्ली में अपने कई क़रीबी दोस्तों से बातचीत की. हमारे दोस्त नजमुल होदा, जो उस समय जामिया से एम.फिल करके रिसर्च स्कॉलर थे, से खास बातचीत हुई. हमने उन्हें बताया –‘लेक्चरर-प्रोफेसर कोई भी बन सकता है, लेकिन बच्चों का टीचर बनना मुश्किल है.’
फिर वो भी किशनगंज आने को तैयार हो गए. एक और दोस्त मोहतसिम रज़ा, जो दिल्ली यूनिवर्सिटी के हिन्दू कॉलेज से पढ़कर मेडिकल-इंजीनियरिंग की तैयारी कराने वाले एक बड़े कोचिंग में पढ़ाते थे, किशनगंज लौट आने को तैयार हो गए.
अब हम तीनों दोस्त वहां के कई दोस्तों के साथ मिलकर ‘दिशा फाउन्डेशन’ नामक एक ट्रस्ट बनाया. इसी फाउन्डेशन के तहत मोहतसिम ने एक कोचिंग सेन्टर की स्थापना की. लोगों में बेदारी के लिए कई कार्यक्रम किए. कई सेमिनार-सिम्पोज़ियम आयोजित किए. कई ड्रामें किए.
एक नाटक इस बात को लेकर किया कि गांव के सरकारी स्कूलों में जाने वाले बच्चों के मां-बाप को उनके पढ़ाई से अधिक स्कूल से मिलने वाले पैसे, पोशाक व खिचड़ी पर ध्यान होता है. इसके नाम पर वो टीचरों से भी लड़ जाते हैं. लेकिन क्या कभी यह सोचा कि बच्चों को क्या पढ़ाया जा रहा है. हमने अपने नाटक के ज़रिए उन्हें संदेश दिया कि कभी बच्चों के पढ़ाई को लेकर भी टीचर से झगड़ा कीजिए.
फिर हमने सोचा कि किशनगंज में एएमयू का सेन्टर तो खुल गया. लेकिन किशनगंज के कितने बच्चे यहां दाखिला ले पाएंगे. शायद यह संख्या ज़ीरो हो.
उधर मोहतसिम रज़ा ने भी महसूस किया कि यहां सिर्फ़ पैसा कमाया जा सकता है, बच्चों को कुछ दिया नहीं जा सकता. यही बच्चे जैसे-तैसे पास होकर प्राईवेट ‘दुकानों’ से इंजीनियरिंग करेंगे और फिर परिवार व देश को नुक़सान पहुंचाएंगे. बस यहीं हमने तीनों ने सोचा कि सबसे पहले ये सारा काम छोड़कर हमें बच्चों के प्राईमरी शिक्षा पर ध्यान देना चाहिए. बस फिर क्या था. हमने 2015 के शुरू में ही ‘ऑक्सफोर्ड इंटरनेशनल स्कूल’ की बुनियाद रख दी.
‘ऑक्सफोर्ड इंटरनेशनल स्कूल’ अभी सिर्फ़ पांचवी क्लास तक है, जिसमें 120 बच्चे अंग्रेज़ी मीडियम में शिक्षा हासिल कर रहे हैं. लेकिन हर साल इसमें एक क्लास बढ़ाने का इरादा है. स्कूल का अपना एक हॉस्टल भी है, जिसमें तकरीबन 80 बच्चे हैं. इस स्कूल में एससी/एसटी बच्चों के फीस में 25 फीसदी की छूट है. वहीं यतीम बच्चों की फीस पूरी तरह से माफ है.
मोहतसिम बताते हैं कि –‘हमारा ध्यान अधिक इस बात पर है कि हमारे शहर के गरीब व यतीम बच्चे हर हाल में पढ़े. स्कूल शायद सबको मुफ़्त शिक्षा नहीं दे सकता. इसके लिए हम लोगों ने ‘फ्रेंड्स ऑफ स्कूल’ नामक एक ग्रुप बनाया है, जिसके सदस्य अलग-अलग बच्चों के पूरे साल की फीस अदा करते हैं.’
जामिया में गोल्ड मेडलिस्ट रहे नजमुल होदा बताते हैं कि –‘हमलोग मुस्लिम समाज को सामने रखकर सोचते ज़रूर हैं, लेकिन हमारा विज़न यहीं तक महदूद नहीं है. क्योंकि हमलोग एक ग्लोबल सोसाइटी में रह रहे हैं. हमारा मज़हब भी सबको साथ लेकर चलने की बात करता है. सच पूछे तो बाबरी मस्जिद विध्वंस के समय या बाद में जो नस्ल पैदा हुई है, वो रोने-गाने से आगे बढ़कर कुछ देखना चाहती है.’
होदा बताते हैं कि –‘हम अपने बच्चों को अच्छा इंसान बनाना चाहते हैं. क्योंकि अगर वो अच्छा इंसान बन गए तो वो फिर आगे अच्छा डॉक्टर या अच्छा इंजीनियर भी ज़रूर बनेंगे.’
वो बताते हैं कि –‘हमारी वर्तमान शिक्षा बच्चों को मशीन बनाना चाहती है, लेकिन हम चाहते हैं कि हमारे बच्चों में खुद भी सोच सकने की सलाहियत हो.’
तफ़हीम का कहना है कि –‘हम सबको मानना पड़ेगा कि इस देश का मुसलमान शैक्षिक, आर्थिक, सामाजिक के साथ-साथ सांस्कृतिक व नैतिक आधार पर भी काफी पिछड़ा हुआ है. हमें समस्या को पहले पहचानना होगा. फिर उस समस्या के समाधान के लिए खुद ही आगे आना होगा. कोई दूसरा आकर हमारे समस्याओं का समाधान नहीं करेगा.’
वहीं मोहतसिम कहते हैं कि –‘हमारे युवा Excellence (श्रेष्ठता) के लिए काम शुरू करें. श्रेष्ठा में कमी की वजह से हम अधिकतर सरकारी नौकरियों से बाहर हैं. इसलिए ज़रूरी है कि सबसे पहले हम अपने बुनियादी तालीम पर ध्यान दें.’
हमारी युवा पीढ़ी खासकर मुसलमान नौजवानों को आप क्या संदेश देना चाहेंगे?
तो इस सवाल के जवाब में तफ़हीम बोलते हैं –‘जब तक आप दूसरों की आदर नहीं करोगे, तो दूसरा भी आपका आदर नहीं करेगा. इसलिए हमें समाज में हर धर्म व विचारधारा के लोगों के साथ मिलकर चलना होगा. अगर हमारे आस-पास किसी भी पर ज़ुल्म हो रहा है तो हमें भी बोलना होगा. खासतौर पर हमें हमने आस-पास के गरीबों, दलितों व पिछड़ों के मदद के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए.’
वहीं नज़मुल होदा कहते हैं कि –‘कम्पलेन करना अब बंद कीजिए. आप जहां भी हों, उसे ईमानदारी से कीजिए. यही सबसे बड़ी देश-सेवा है.’
आगे वो बोलते हैं कि –‘ हमें यह संकीर्ण मानसिकता नहीं रखना चाहिए कि हमारा सब कुछ बहुत अच्छा और दूसरों का सब कुछ बहुत बुरा है. खैर, देश के साम्प्रदायिक ताक़तों के खिलाफ़ हमें खुलकर सामने आने की ज़रूरत है. ये साम्प्रदायिकता हमारे लोगों में हो सकता है.’
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