इंतज़ार कीजिए, अभी अखलाक़ कई बार मारा जाएगा

सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net

उत्तर प्रदेश के गौतमबुद्ध नगर के दादरी में भीड़ द्वारा पीट-पीटकर मार डाले गए मोहम्मद अखलाक़ की मौत एक बार नहीं होगी, अभी मोहम्मद अखलाक की मौत कई बार होनी बाकी है.


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हाल में एक और जांच रिपोर्ट सामने आई है, इस रिपोर्ट में कहा गया है कि दादरी से मिला सैम्पल गोमांस का ही है. जब दादरी काण्ड के बाद मोहम्मद अखलाक के फ्रिज से बरामद मांस को उस वक़्त फॉरेंसिक जांच के लिए भेजा गया था, उस समय वह मांस बकरी का निकला था. कुछ महीनों बाद मांस मीडिया में इतनी बार घूमा कि एक दिन अचानक वह गोमांस में बदल गया. कोई अचम्भा नहीं होगा – होना भी नहीं चाहिए – कि यदि यह मांस धीरे-धीरे आदमी के मांस में तब्दील हो जाए. फिर विधानसभा चुनाव आएं और वह मांस आसानी से किसी हिन्दू व्यक्ति के मांस में बदल जाए.


Photo credits: Dailycapital

ऐसे ही बार-बार अखलाक़ मारा जाएगा.

दो दिनों पहले जब यह खबर आई कि दादरी से मिला मांस गाय का था, घटना का तत्काल appropriation किया जाने लगा. भाजपा के नवनिर्वाचित प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्या ने इस खबर को भाजपा के लिए ढाल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. वहीँ विवादित योगी आदित्यनाथ ने कह दिया कि अखलाक़ के घर वालों को झूठ बोलने के लिए सजा देनी चाहिए. आख़िरकार लोग यह नहीं समझ पाए कि यह गोमांस मिला तो दादरी से ही था, लेकिन मोहम्मद अखलाक के घर से नहीं.

टाइम्स ऑफ इंडिया और इन्डियन एक्सप्रेस ने सबसे पहले इस खबर को प्रकाशित किया और धुंधलका साफ किया कि गोमांस मिला तो दादरी से था, लेकिन मोहम्मद अखलाक़ के घर से नहीं. गोमांस घोषित हुआ मांस का वह टुकड़ा उस ट्रांसफार्मर के पास से बरामद किया गया था, जहां मोहम्मद अखलाक की लाश मिली थी. यहां यह फिर से कहना होगा कि यह मांस मोहम्मद अखलाक़ के फ्रिज ने नहीं बरामद किया गया था.

दादरी के राजकीय पशु चिकित्सालय में मांस बकरी का मिलता है. कुछ महीनों बाद मथुरा के पशु चिकित्सा संस्थान में मांस गाय का हो जाता है और प्रदेश की साम्प्रदायिक पार्टियों के एक बड़े एजेंडे पर मुहर लग जाती है. इसकी तस्दीक़ करने की कोई कोशिश ही नहीं होती कि कहां से मिला मांस किसका है?

लोग इस बात को भी पूरी तरह से भूल जाते हैं कि मांस के चक्कर में एक आदमी को मार दिया गया. पूरी बहस मांस पर केन्द्रित हो जाती है.

यहां स्टैंडअप कॉमेडियन और गीतकार वरुण ग्रोवर याद आते हैं. एक कार्यक्रम में बोलते वक़्त वरुण ग्रोवर ने कहा था कि यूपी के एक गांव में मुसलमान को मारा गया. विडंबना यह है कि पुलिस आई और उसके फ्रिज से मांस निकालकर लैब ले गयी. वरुण ग्रोवर का ऐसा कहना सच है. एक आदमी मारा जाता है, गिरफ्तारियां नहीं होती हैं. सुनवाई नहीं होती है, लेकिन यह जानने की भरपूर कोशिश होती है कि खाया गया मांस किसका था.

यदि यह खबर पढ़ी जाती है कि खाया गया मांस गाय का है, तो उससे हम क्या साबित करना चाहते हैं? हम उस औचक क्षण पर किस निर्णय पर पहुंचते हैं? बहुत सारे साथियों ने दादरी में मिले मांस के गाय का होने पर पूछा कि इसे कैसे लिखेंगे? यदि मांस गाय का निकल जाता है – जो भले ही अखलाक के फ्रिज का न हो – क्या उस समय अखलाक़ दोषी हो जाता है और उस पर बीते सबकुछ को सही मान लेना चाहिए? और यदि मांस बकरी का निकले तभी उसे मार डालने वालों को गलत मानना चाहिए? इस बात से पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता कि ऐसा हो रहा है.

दादरी के जानवर से अखलाक़ की पहचान की जा रही है.

उत्तर प्रदेश में अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. आजमगढ़, फैजाबाद, अयोध्या, मेरठ, मुजफ्फरनगर जैसे इलाकों के बाद अब गौतमबुद्ध नगर भी ऐसे इलाके में शुमार हो गया है, जहां से सम्प्रदायों की आवाज़ जनादेश को निर्धारित करती है. समाजवादी पार्टी के विधायक और मंत्री भाजपा के खिलाफ कुछ-कुछ बोलते दिख रहे हैं, लेकिन उनके पास भाजपा के साथ हुए कमोबेश साम्प्रदायिक गठजोड़ का कोई जवाब नहीं है.

यह बात भी याद रखनी चाहिए कि ‘तहलका’ की खबर में यह बात सामने आई थी कि कैसे समाजवादी पार्टी के नेताओं ने वरुण गांधी के भड़काऊ भाषण वाले मामले में सभी गवाहों को ‘सेट’ करने का काम किया था? बिहार चुनाव के वक़्त मुलायम सिंह यादव मोदी की खुलेआम बड़ाई कर ही चुके हैं. लेकिन इन सभी चीज़ों से ऊपर उठकर हम उसी मानवीय सवाल की जद में पहुंचते हैं कि क्या हम इतने असंवैधानिक होते जा रहे हैं? मानवीय भावनाओं का संविधान से कोई पुख्ता और सीधा रिश्ता नहीं है, लेकिन यहां पर यह क्यों हो रहा है कि अखलाक़ की पहचान से ऊपर उठकर हम उसकी थाली से उसकी पहचान निर्धारित कर रहे हैं. यह क्यों ज़रूरी है कि अखलाक को गाय या बकरे से पहचाना जाए?

निजी अनुभव कहता है कि अखलाक़ की तस्वीर – पासपोर्ट इमेज जो हर जगह एक ही है – से क्या सवाल किये जा सकते हैं? कुछ नहीं समझ में आता तो कम से कम यह तो सोचा ही जा सकता है कि उस दिन इसने खाना न खाया होता तो शायद ज़िंदा होता? या इसके खाने में ज़हर मिला दिया होता तो इसकी मौत के बाद इतना छीछालेदर न होता? उसने अपने फ्रिज में मांस न रखा होता तो यह आदमी ज़िंदा बच जाता?

इस लेख के लिखे जाने से कोई मसला हल नहीं हो जाता, न तो मीडिया में जजमेंट आने ही बंद हो जाते हैं. लेकिन यह तय है कि अपनी बात कह जाने से हम कम से कम एक निष्पक्ष ध्रुव का चुनाव कर पाने में सफल हुए हैं. इस immediate identity – रोहित वेमुला के शब्द – के खेल में व्यथित होना और भावावेश में कुछ भी कर जाना तो आसान है, लेकिन इस तथ्य पर यकीन करना अभी मुश्किल है कि अखलाक को अभी कई बार मारा जाएगा. लिख लीजिए और इंतज़ार करिए कि ऐसा होगा.

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