फहमिना हुसैन, TwoCircles.net
पटना: देश को आज़ाद हुए सालों हो चुके लेकिन दलित समुदाय के साथ भेदभाव लगातार जारी है. यह समुदाय अभी तक हाशिये पर जिंदगी जीने को मजबूर है. उनका शोषण अब भी पहले की ही तरह हो रहा है. वे अपने मूलभूत अधिकारों से वंचित हैं और आर्थिक और प्राकृतिक संसाधनों तक उनकी पहुंच नहीं है. उन्हें सिर पर मैला ढोने जैसे काम करने के लिए आज भी मजबूर होना पड़ता है.
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मुस्लिम समुदाय में एक अरज़ल जाति होती है, जिन्हें अम्बेडकर की तरह जाति-विरोधी कार्यकर्ता के रूप में माना जाता है जो कि एक अछूत की तरह हैं. अरज़ल शब्द का संबंध ‘अपमान’ से होता है और अरज़ल जाति को भनर, हलालखोर, हिजरा, कस्बी, ललबेगी, मौग्टा, मेहतर आदि उपजातियों में बांटा जाता है. अरज़ल समूह को 1901 की भारत की जनगणना में दर्ज किया गया था और इन्हें दलित मुस्लिम भी कहा जाता है.
समाज से उनको अलग थलग किये जाने का आलम यह है कि आज भी उन्हें बचा हुआ खाना खाने को दिया जाता है और सार्वजनिक उपयोग की जगहों का प्रयोग करने से वंचित रखा जाता है. इनके प्रति होने वाले भेदभाव को इस बात से ही पता लगाया जा सकता है कि इनके नाम के साथ मुहम्मद नहीं जोड़ा जाता. इन्हें मस्जिद में प्रवेश करने और सार्वजनिक कब्रिस्तान का इस्तेमाल करने से वर्जित किया जाता है. उन्हें सफाई करना और मैला ले जाना जैसे व्यवसायों के लिए मुख्यधारा से दूर किया जाता है. इनके पिछड़े हुए होने का कारण समुदाय संगठित नहीं होना भी है. इन्हें सरकार द्वारा चलायी जा रही विभिन्न योजनाओं और प्रावधानों की कोई जानकारी नहीं, जिसके चलते वे इसका फायदा नहीं उठा पाते.
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मुस्लिम दलितों का यह अछूत वर्ग इतना बड़ा वोट बैंक भी नहीं है. इस समुदाय से ताल्लुक रखने वाली असगरी बताती है कि नेता आते हैं. घर के बाहर हाथ जोड़कर सिर्फ इतना कहते हैं कि ध्यान रखना. ये बता कर नहीं जाते कि कौन-सी पार्टी से हैं? किस चुनाव के लिए वोट मांगते घूम रहे हैं?
रोहतास के डेहरी शहर के एक कोने पर बसे इस टोले की इस गली में सभी सफाईकर्मी और उनके परिवार ही रहते हैं. रोहतास जिले में सिर पर मैला ढोने का काम मुस्लिम हलालखोर जाति या मेहतर जाति के लोग करते आए हैं. लेकिन वर्तमान समय में इसको इक्का-दुक्का लोग ही करते हैं क्योंकि शहर और जिले में सभी के घरों में पक्के शौचालय बन चुके हैं.
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63 साल की जुमरतन बताती है कि उन्होंने यह काम बहुत पहले छोड़ दिया है क्योंकि अब लगभग सभी घरों में शौचालय बन चुके हैं. अगर ये नहीं बनते तो वे लोग आज भी यही काम करते. शुरूआती दिनों की बात करते हुए वो बताती हैं, ‘9 साल की उम्र में काम करना शुरू किया था. रोज करीब चार से पांच घर जाती थीं. शुरुआत में लगा कि बेहद मुश्किल है. उल्टियां तक हो जाती थी. कई बार खाना नहीं खाया जाता था, लेकिन फिर आदत हो गयी.’
कलाम बताते है कि बड़ी समस्या यह है कि इस समुदाय से जुड़े लोग कुछ और कर भी नहीं सकते. अगर कोई दुकान खोलेंगे या कोई और व्यापार करेंगे तो ठप हो जायेगा. छुआछूत के चलते इनसे कोई सामान भी नहीं खरीदेगा.
सफाई कर्मचारी आंदोलन की ओर से किए गए ताजा सर्वेक्षण के अनुसार 15 राज्यों के 225 जिलों में अभी भी 43,234 सूखे शौचालय मौजूद हैं. आज भी लगभग 8842 लोग इन शौचालयों से रोजाना मैला ढोने के लिए मजबूर है. हर एक मैला ढोने वाले की फोटो और स्थानीय पते के साथ सुप्रीम कोर्ट को सौंपी गयी इस रिपोर्ट के अनुसार ज्यादातर राज्यों ने अभी तक इन लोगों के पुनर्वास और रोजगार का कोई प्रबंध नहीं किया है.
इस समुदाय की ज्यादातर औरतें घर-घर जा कर झाड़ू-पोछे का काम करती हैं. वे कहती हैं कि घर के मर्द परिवार चलाने में उनकी मदद नहीं करते हैं. अगर कहीं मज़दूरी मिल भी गई तो शराब में पैसे उड़ा देते हैं. इसलिए अपना पेट पालने के लिए ये काम करना पड़ता है. घरों में काम करने वाली इन औरतों की ज़िन्दगी में रोज़ भेदभाव से रोज़ गुजरना पड़ता है. हलालखोर समुदाय की इन औरतों का कहना है कि ये जिन भी घरों में काम करने जाती हैं, वहां इनके बर्तन तक अलग कर दिए जाते हैं. उन्हें घर में किसी बिस्तर या कुर्सी पर तक बैठना माना होता है.
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कई मामलों में यह भेदभाव दैहिक अत्याचार और यौन शोषण तक पहुंच जाता है. इसी समुदाय से ताल्लुक रखने वाली नाजिया (बदला हुआ नाम) बताती है, ‘वो और उनके पति शहर के एक परिवार में काम करते थे. नाज़िया के पति ड्राइवर का काम करते थे और नाज़िया खुद उस घर में साफ़-सफाई और झाड़ू-पोछे का काम करती थीं. नाज़िया के मुताबिक वहां उनके साथ शारीरिक बदसलूकी की गई जिसके कारण उसने वहां काम करना छोड़ दिया.’
वे आगे बताती हैं कि वे पुलिस में जाना चाहती थी लेकिन जब इस बात का ज़िक्र उन्होंने अपने पति से किया तो उनके पति ने उन्हें पुलिस के पास जाने से रोक दिया. खुद नौकरी छोड़ने के बाद यदि नाज़िया पुलिस के पास शिकायत दर्ज करा देतीं तो उनके पति की नौकरी भी खतरे में पड़ सकती थी और खाने के लाले पड़ सकते थे.
नाज़िया रोते हुए बताती हैं कि आर्थिक तंगी के कारण ही वो पुलिस के पास नहीं जा सकी. उनका कहना है कि ऐसा सिर्फ उनके साथ ही नहीं, औरों के साथ भी होता आया है. कितनी बार तो पुलिस वाले उनका केस ही दर्ज़ नहीं करते हैं. आगे बताती है कि वो आज किसी के घर काम करने नहीं जाती हैं. हालांकि उनके पति की आमदनी ज्यादा नहीं है, फिर भी जैसे-तैसे घर का गुज़ारा चलता है.
इस मोहल्ले में रहने वाले ज़्यादातर बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं. या तो वे गैराजों में काम करते हैं या किसी कबाड़ी की दुकान में काम करते है. पूछने पर उनके माता-पिता बताते हैं कि जब तक घर के सभी लोग काम नहीं करेंगे उन सभी का गुज़ारा कैसे होगा. इस महंगाई में सभी का कमाना बहुत जरूरी है वरना हम भूखे ही मर जाएंगे. हैरानी की बात ये है कि इन सभी घरों में सिर्फ एक वक़्त का खाना बनता है.
8 नवंबर 2015 को मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तराखंड ने कोर्ट में अपने हलफनामे में एक भी मैला ढोने वाले के न होने का जिक्र किया था लेकिन गुप्त रूप से पता लगाने पर पर वहां के निवासी बताते हैं कि वर्तमान में केवल रोहतास जिले में अभी भी 10-12 औरतें मैला ढोने का काम करती हैं. इससे स्थिति का अंदाज़ लगाया जा सकता है कि पूरे बिहार और देश में क्या स्थिति होगी.