अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
दिल्ली: रमज़ान के महीने में इफ़्तार के बाद का नज़ारा देखेने लायक तो होता ही है, लेकिन जब देर रात को घड़ी की सुईयां तीन के करीब पहुंचती हैं तो अचानक नज़ारा बदलने लगता है. कैफियत बदल जाती है. घड़ी के अलार्म बजने लगते हैं. मोबाईल पर एसएमएस और फोन आने लगते हैं, तो कहीं-कहीं आज भी चौकीदारों के डंडे और चौखट पर पड़ने वाली दस्तक ही काम आती है.
यही नहीं, मस्जिदों से सायरन भी बजते हैं और माइकों से आवाज़ आती है, ‘जनाब! नींद से बेदार हो जाइए, सहरी का वक्त हो चुका है.’ यही नहीं, कहीं-कहीं ढोल व नगाड़े भी बजाए जाते हैं और फिर आवाज़ लगाकर हर रोजे़दार को उठाने की कोशिश की जाती है. ‘रोजेदारों, सहरी का वक्त हो गया है, सेहरी खा लो, हज़रात! सिर्फ आधे घंटे बचे हैं जल्दी सेहरी से फारिग़ हो जाएं.’
लेकिन तकनीक के इस दौर में रमज़ान के सहरी में जगाने के तरीके यकीनन बदल गए हैं. जगाने वालों के तरीके भी बदल गए हैं. अब क़ाफिले के तौर पर निकलने वाली टोलियां नज़र नहीं आती. यानी हम कह सकते हैं ‘क़ाफ़िला-ए-रमज़ान’ की रिवायत अब धीरे-धीरे ख़त्म हो रही है.
जी हां! पहले रमज़ान की सहरी में लोगों को जगाने के तरीक़े अलग थे. दिल्ली के ज़्यादातर इलाक़ों में लोगों को जगाने के लिए सड़कों पर क़ाफ़िले निकलते थे. लोगों की टोलियां गलियों व मुहल्लों में घूम-घूम कर रोज़ेदारों को मीठे-मीठे नग़मों से बेदार करती हैं. लोगों को जगाने के लिए रमज़ान के गीत गाए जाते हैं. हम्द व नआते-शरीफ़ पढ़ी जाती है और जब बात इससे भी नहीं बनती तो ऐलान किया जाता है कि ‘सहरी का वक्त है रोज़ेदारों’, सहरी के लिए जाग जाओ’.
पुरानी दिल्ली के बल्लीमारान इलाक़े में रहने वाले मोहम्मद सलमान बताते हैं कि यहां का नज़ारा देखने लायक होता है. आमतौर पर यहां कोई भी सोता ही नहीं, लगभग सभी दुकानें भी खुली होती हैं और सेहरी के वक्त़ तक लोग ख़रीदारी करते रहते हैं.
पुरानी दिल्ली के ही अब्दुल मुईद बताते हैं कि हम रातों में खूब मज़े करते हैं. हमारे घरों में तरह-तरह की पकवान बनते हैं और सबसे खास बात यह है कि यहां लोग सेहरी की भी दावतें करते हैं.
लेकिन सलमान व मुईद दोनों को ही यह नहीं पता कि यह ‘क़ाफ़िला’ क्या होता है. वे बताते हैं कि बचपन में घरवालों से इसके बारे में सुना ज़रूर है, लेकिन हमने जबसे होश संभाला है, कभी क़ाफ़िला नज़र नहीं आया.
जामिया नगर में रहने वाले बिहार निवासी सरफ़राज़ अहमद खान बताते हैं कि ‘काफ़िला’ जैसी बेहतरीन परंपरा के गायब होने के पीछे आधुनिक तकनीक जिम्मेदार है. सरफ़राज़ बताते हैं, ‘पहले जब समय जानने का कोई तरीका नहीं था, तब सहरी के लिए जगाने वाले इस काफ़िले की काफी अहमियत थी. लोगों को सोते से जगाने का यह एक अच्छा तरीका था, लेकिन अब लाउडस्पीकर पर घोषणा कर देने भर से काम चल जाता है.’
वहीं पिछले छः सालों से बटला हाउस में रहने वाले मोहम्मद शाहनवाज़ बताते है कि अपने शहर में जब ‘ऐ सोने वालों, चादर हटा लो, देखो फ़लक पे रौशन है तारे….’ की मधुर धुन कानों में पड़ती है, तो आंखें अपने आप खुल जाती हैं. लेकिन यहां मोबाइल व सायरन का ही सहारा लेना पड़ता है.
ज़ाकिर नगर के दाऊद हुसैन बताते हैं कि ‘क़ाफ़िले’ के ज़रिए लोगों को सेहरी के लिए जगाने की रिवायत काफी पुरानी है. रमज़ान शुरू होने के सप्ताह भर पहले ही आठ-दस लोगों की टीम (जिसमें ज़्यादातर मदरसे के बच्चे होते है) बनाकर तैयारियां शुरू कर दी जाती थीं. इस काफिले में शुरूआत के 15 दिनों में रमज़ान की फज़ीलत और 15 दिनों बाद बिदाई के नग़मे पढ़े जाते हैं. यह काफी दिलचस्प होता है, लेकिन अब यह रिवायत धीरे-धीरे ख़त्म होती जा रही है. आखिर तकनीक का जो दौर आ गया है.
हालांकि दूसरे राज्यों में यह दस्तूर अभी भी क़ायम है. दिल्ली में भी कुछ इलाक़ों जैसे फाटक पंजाबीबाग़, बाड़ा हिन्दू राव आदि में यह रिवायत अभी भी बरक़रार है. हालांकि दिल्ली के इन इलाक़ों में अब यह रिवायत भी धीरे-धीरे ख़त्म होती जा रही है.