फ़हमिना हुसैन, TwoCircles.net
डेहरी ऑन सोन: एक समय था जब चाय की दुकानों पर अक्सर मिट्टी के कुल्हड़ नज़र आते थे. शादियों में अक्सर मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल किया जाता था. लेकिन आज मिट्टी के ये कुल्हड़ और बर्तन पूरी तरह से मिट्टी में मिल गए हैं. ऐसे में अब शहरों की कौन कहे, गांवों में कुम्हार व उसके चाक शायद ही नज़र आते हैं.
दरअसल, मिट्टी के इन बर्तनों की जगह आज थर्माकोल व प्लास्टिक के बर्तनों ने ले ली है. हालांकि जबसे सोशल मीडिया पर यह संदेश वायरल हुआ है कि प्लास्टिक के कप में चाय पीना हानिकारक है, तब दिल्ली में कुल्हड़ में चाय का चलन बढ़ता दिखाई दे रहा है. लेकिन गांव में अभी भी मिट्टी के बर्तनों की अहमियत लोगों को समझ में नहीं आ रही है.
डेहरी ऑन सोन के सबसे भीड़भाड़ वाले बाज़ार से थोड़ी दूर एक कस्बा है. इस कस्बे में एक मोहल्ले को ‘कुम्हार टोला’ के नाम से जाना जाता है. यहां की लगभग पूरी आबादी कुम्हार बिरादरी की ही रहती है. लेकिन इनमें से ज्यादातर कुम्हारों ने अपने इस पुस्तैनी धंधे को बंदकर दूसरे धंधों में हाथ आजमाना शुरू कर दिया है. बावजूद इसके, यहां पर कुछ परिवार ऐसे ज़रूर हैं जो आज भी अपने पुस्तैनी धंधे को जिंदा रखे हुए हैं.
इस कुम्हार टोला में रहने वाले सोनू कुमार बताते हैं कि पहले वे मिट्टी के बर्तन बनाने का काम करते थें, लेकिन अब नहीं करते हैं. शहर में ही उनकी अपनी कपड़े की दुकान है. सोनू बताते हैं कि वैसे भी मिट्टी के बर्तनों के कारोबार में उतना मुनाफ़ा अब रहा नहीं. दीपावली के समय ही मिट्टी के दिए या खिलौने थोड़ा-बहुत बिकते हैं. पर सालभर बैठना पड़ता है, इसलिए दूसरा व्यापार करने में ही भलाई है.
इंद्रदेव बताते हैं कि दिनभर हाड़तोड़ मेहनत कर एक व्यक्ति 700-800 पीस भाड़ तैयार कर पाता है. इतनी मेहनत के बाद महज़ 150-160 रुपये ही कमा पाते हैं. ऐसे में घर चलाना भी मुश्किल हो रहा है.
अनुज कुमार बताते हैं, ‘सबसे बड़ी समस्या यह है कि शहर में मिट्टी के जो भी तालाब थे वो पट गए हैं, यहां सभी जगह बड़े-बड़े मकान बन गए हैं. पहले आसपास में गावों से मिट्टी मिल जाती थी, लेकिन अब सभी जगह पक्के मकान बन चुके हैं. ऐसे में हम मिट्टी लाएं कहां से? हमें अब मिट्टी भी महंगे क़ीमतों पर खरीदना पड़ता है.’
अनुज कहते हैं, ‘अब तो चाय के दुकानों पर भी प्लास्टिक व फाइबर से तैयार किये गये कपों का उपयोग किया जा रहा है. जब लालू प्रसाद यादव रेलमंत्री थे तो हम लोगों पर उन्होंने थोड़ा ध्यान ज़रूर दिया था. काश! सुरेश प्रभू भी लालू की तरह गरीब-हिमायती सोच रखते.’
दुर्गेश जी बताते हैं कि कुछ साल पहले बर्तनों को पकाने के लिए कोयला कम क़ीमत पर आसानी से मिल जाता था. पर अब मिट्टी के बर्तनों को पकाने के लिए ईंधन भी महंगा मिलता है. वो बताते हैं कि अब वे सिर्फ़ आर्डर मिलने पर ही माल तैयार करते हैं, नहीं तो बाक़ी चक्का बंद ही रहता है. वो आगे बताते है कि पहले खास महल में सरकार की तरफ़ से मिट्टी फ्री में मिलती थी, लेकिन अब तो मुफ्त की मिट्टी भी नहीं मिलती. फिर खेतों से भी मिट्टी लाने में पुलिस बहुत परेशान करती है.
73 साल की शांति आज इस गांव में बिल्कुल अकेली रहती हैं. उसके सारे बेटे गांव से पलायन करके दिल्ली में बस गए हैं. शांति बताती हैं कि अच्छा हुआ जो शहर में बस गए, नहीं तो गांव में भूखे मरते.
इस टोले में रहने वाले अधिकतर लोगों का कहना है कि जबसे प्लास्टिक और फाइबर के गिलासों का शादी-ब्याह में चलन बढ़ा है, तभी से हम लोगों का धंधा मंदा पड़ गया है. अब ज्यादातर युवा कमाने के लिए यहां से पलायन कर रहे हैं. इन लोगों का कहना है सरकार ने भले ही पॉलिथीन पर बैन लगाकर लोगों के स्वास्थ्य के लिए कुछ ठोस क़दम उठाने की पहल की है, लेकिन इसी क्रम में अब प्लास्टिक के ग्लासों पर भी सरकार को पहल करने की ज़रुरत है.
पर कड़वी सचाई तो यही है कि सरकारी योजनाओं के लाभ से ये लोग पूरी तरह से वंचित हैं. यहां रहने वाले अधिकतर लोग बताते हैं कि खाद्य सुरक्षा योजना के तहत हाल ही में उन्हें कार्ड तो मिला है, लेकिन अब तक कोई भी खाद्यान्न उन्हें नहीं मिला है. अन्य योजनाओं के लाभ से भी ये लोग वंचित हैं. सरकारी पदाधिकारी भी कभी इस समुदाय के लोगों के हाल जानने नहीं पहुंचते.
इन कुम्हारों का कहना है कि आज उनके कला के क़द्रदानों की संख्या कम हो गयी है. जिस कारण उनके सामने जीवनयापन की भी समस्या पैदा हो गयी है. वहीं सरकार भी इस ओर अपनी नज़रें नहीं फेर रही है. अगर सरकार की ओर से इस कला को संरक्षण व संवर्धन मिलता तो इनकी आगे की पीढ़ी भी इस कला से अवगत रह पाती. मगर मौजूदा स्थिति इसके बिलकुल उलट है.