नैय्यर इमाम सिद्दीक़ी
मशहूर पाकिस्तानी क़व्वाल अमजद साबरी को बुधवार दोपहर कुछ लोगों ने कराची के लियाक़ताबाद इलाक़े में गोलियों से भून दिया और उनकी मौक़े पर ही मौत हो गई. 45 साल के अमजद मशहूर साबरी भाईयों के मेंबर थे. ब्रांड ‘साबरी ब्रदर्स को 1950 के दशक में उनके पिता ग़ुलाम फ़रीद और चाचा मक़बूल ने बनाया था, जिनका तानसेन के खानदान से खूनी रिश्ता है. हरियाणा के रोहतक में जन्मे इन दो भाइयों ने ही दुनियाभर में क़व्वाली को पहचान दिलाई. बाद में अमजद ने परिवार की सूफ़ी गायक़ी के परम्परा को आगे बढ़ाया.
अमजद साबरी मशहूर क़व्वाली गायक मक़बूल साबरी के भतीजे थे. मक़बूल का 2011 में इंतक़ाल हो चुका है. मक़बूल साबरी ने अपने भाई ग़ुलाम फ़रीद साबरी के साथ मिलकर 50 के दशक में क़व्वाली ग्रुप बनाया था. अमजद इस विरासत को आगे बढ़ा रहे थे. जब भी साबरी ब्रदर्स ने एकसाथ क़व्वाली गई, वे काफी चर्चा में रहे. उनकी कुछ मशहूर क़व्वाली ‘भर दो झोली मेरी’, ‘तजदर-ए-हरम’ और ‘मेरा कोई नहीं तेरे सिवा’ हैं. उनकी फ़ारसी बंदिश ‘नमी दनम छे मंजिल बूद’ भी काफी मशहूर हुई थी. ‘भर दो झोली’ को मूल रूप से साबरी ब्रदर्स ने ही गाया था. यह क़व्वाली उनके पिता ग़ुलाम फ़रीद और चाचा मक़बूल ने गाई थी.
सूफी गायक अमजद के परिवार ने यह तस्दीक़ की कि 2014 में ईशनिंदा के आरोपों के बाद से उन्हें लगातार जान से मारने की धमकी मिल रही थी. पाकिस्तान के तालिबान गुट से अलग हुए गुट तहरीक-ए-तालिबान ने इस हमले की जिम्मेदारी ली है. 2014 में इस्लामाबाद हाईकोर्ट ने ईशनिंदा के आरोपों पर जियो और एआरवाय न्यूज को नोटिस जारी किए थे. दोनों चैनल्स ने अपने मॉर्निंग शो में एक क़व्वाली पेश की थी. आरोप है कि क़व्वाली में शादी का जिक्र था, जिससे धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचती थी. कुछ धार्मिक चरित्रों का ज़िक्र भी इसमें किया गया था. इसके बाद तारिक़ असद नाम के एक वकील ने क़व्वाल अमजद साबरी और इसे लिखने वाले अक़ील मोहसिन नक़वी के खिलाफ केस दर्ज कराया था.
पैग़म्बर मुहम्मद साहब के बारे में या इस्लाम के बारे में कोई किसी भी तरह की टिप्पणी करता है, तो यह उसकी निजी सोच का मामला है. इसके लिए उस पर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती. ऐसे घृणित काम के लिए उसे सजा या माफ़ी सिर्फ़ अल्लाह ही दे सकता है, इंसान नहीं. क्योंकि इस्लाम के हिसाब से ‘किसी बेगुनाह व्यक्ति का क़त्ल करना पूरी इंसानियत की हत्या के बराबर है’ तो भला ऐसा मज़हब हिंसा व दहशतगर्दी की इजाज़त कैसे दे सकता है? और वो भी ईशनिंदा के नाम पर जिसका क़ुरआन और हदीस में कहीं ज़िक्र तक नहीं है. ऐसा कहना कि ईशनिंदा (पैग़म्बर मुहम्मद या इस्लाम के बारे में अपमानजनक टिप्पणी) करने पर इस्लाम में मौत की सज़ा का फ़रमान दिया गया है, गलत है और यह कानून भी इसलाम के खिलाफ़ है.
अब्बासी राज में ही इस्लाम का स्वर्ण युग शुरू हुआ और इसी काल में यानी 750 ई० में पहली बार ईशनिंदा क़ानून वजूद में आया. दुनिया के कई मुल्कों, जैसे उत्तरी अफ़्रीका, दक्षिण यूरोप, सिंध और मध्य एशिया में अब्बासी वंश का क़ब्ज़ा था. उस दौरान मुसलमान और मुस्लिम शासक राजनीतिक शिखर पर थे. उनके सत्ता के इस ग़ुरूर ने ही ईशनिंदा जैसे कानून को जन्म दिया. यह एक नयी क़ानूनी इजाद थी, जिससे क़ुरआन और हदीस दोनों इनकार करते हैं.
पाकिस्तान एक लोकतांत्रिक मुल्क ज़रूर है, लेकिन उसकी कुछ राजनैतिक नीतियां धर्म आधारित हैं. आज तक वहां जितनी भी हत्याएं हुई हैं, उनके पीछे राजनीतिक कारण कम और धार्मिक कारण ज्यादा रहे हैं. धार्मिक क़ानून को मानने वाले मुल्क़ों में तरक़्क़ीपसंद लोगों के लिए अपनी बात कह पाना बहुत मुश्किल होता है. उनकी प्रोग्रेसिव सोच को या तो दबा दिया जाता है या लोगों के बीच पहुंचने से पहले ही उनकी हत्या कर दी जाती है. ऐसी हत्याएं पाकिस्तान में ही नहीं होतीं. दुनिया के और भी कई मुल्क हैं, जहां प्रोग्रेसिव सोच के लोगों की हत्याएं होती रहती हैं. ख़ुद अपने भारत में दाभोलकर, पनसारे और कलबुर्गी इत्यादि हों या पड़ोसी देश बांग्लादेश के ब्लॉगर.
पाकिस्तान के इतिहास पर नजर डालें तो पंजाब प्रांत के गवर्नर सलमान तासीर की हत्या से पहले जुल्फ़िकार अली भुट्टो, बेनज़ीर भुट्टो और लियाक़त ख़ान जैसे नेताओं की हत्या में कहीं न कहीं धार्मिक कट्टरता शामिल थी. पाकिस्तान में ईशनिंदा कानून जनरल ज़ियाउल हक़ के शासनकाल में लागू किया गया था.
यदि कोई ईशनिंदा करता है, तो उस पर तो कोई कानूनी सज़ा का मामला ही नहीं बनता क्योंकि वह मानसिक सोच का मामला है. इस ऐतबार से हम किसी को ऐसा करने पर सज़ा कैसे दे सकते हैं? इस तरह का क़ानून इस्लाम में कहीं है ही नहीं. आज इसको मानने वालों की पूरी दुनिया में एक लंबी फ़ेहरिस्त है, जिसके परिणामस्वरूप लोगों की हत्याएं होती रही हैं.
इस्लाम के मुताबिक अगर कोई पैग़म्बर मुहम्मद साहब या इस्लाम के बारे में अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करता है, तो यह उसकी नासमझी है. हर पैगम्बर/नबी के दौर में ख़ुदा और उसके नबी के इंकार करने वालों की एक बड़ी तादाद रही है लेकिन इस्लामिक इतिहास में ये कहीं भी नहीं आया है कि नबी या उनके माननेवालों ने अल्लाह और उसके नबी को ना मानने वालों या उनकी शान में गुस्ताख़ी करने वालों को मौत के घाट उतारा हो. ख़ुद पैग़म्बर मुहम्मद (स०) के चाचा ने अल्लाह और उनके रसूल के शान में गुस्ताख़ी की उनका कहना नहीं माना लेकिन ना तो पैग़म्बर मुहम्मद (स०) ने, ना सहाबा ने और ना ही उनके मानने वालों ने उनपर क़ातिलाना हमला किया. मूसा (अ०स०) के मानने वालों ने फिरऔन पर हमला किया.
पैग़म्बर मुहम्मद जब रास्ते से गुज़रते थे, तो उनके दुश्मन उनके और इस्लाम के बारे में अपमानजनक टिप्पणी करते थे. सहाबा (मुहम्मद साहब के साथी) गुस्सा होकर कहते थे कि हुज़ूर, अगर आप इजाज़त दें तो हम उनको सबक़ सिखाएं. लेकिन पैग़म्बर मुहम्मद ने उन्हें मना करते हुए अपने सहाबी साबित अल-अंसारी से कहा था कि उनके अंदर समझ की कमी है. मैं अल्लाह से दुआ करता हूं कि अल्लाह उन्हें अच्छी हिदायत दे. पैग़म्बर मुहम्मद ने उनके ख़िलाफ़ किसी भी तरह की सज़ा से इनकार कर दिया था.
इस्लाम हमेशा किसी मसले की जड़ तक जाकर कोई फ़ैसला देने की बात करता है. इसके अलावा किसी भी तरह के अपराध के लिए इस्लाम में कहीं भी मौत या मौत जैसी सज़ा मुक़र्रर नहीं है. अगर कहीं ऐसा होता है तो ऐसे मुल्क की सरकार को चाहिए कि पहले वो इस्लाम को समझने की कोशिश करे, फ़िर कोई सज़ा का प्रावधान बनाये और वो सज़ा भी मौत की नहीं होनी चाहिए. इस्लाम तो साफ़-साफ़ कहता है कि अगर किसी ने कोई अपराध किया है तो उसे सज़ा संवैधानिक कोर्ट से ही दी जानी चाहिए और वह भी जुर्म साबित हो जाने के बाद. इस्लाम का दायरा बहुत बड़ा है. लोगों के दिमाग में एक धारणा बन गयी है कि क़ुरआन एक फ़रमान जारी करने वाली किताब है. यह बहुत ही गलत धारणा है. क़ुरआन कोई क्रिमिनल कोड (अपराध संहिता) नहीं है, बल्कि यह तो राजी होने या करने वाली किताब है.
जब इस्लाम में ईशनिंदा का कहीं ज़िक्र तक नहीं है, फिर वे कौन लोग हैं जो धर्म के ठेकेदार बने हुए हैं और इस्लाम पर या पैग़म्बर या इस्लामी हस्तियों से जुड़े लोगों की शान में गुस्ताख़ी के बदले मौत चाहते हैं और किसी बेगुनाह के जान का सौदा कर रहे हैं? जब हम सबका ईमान फ़ैसले वाले दिन पर है तो फिर हमें किसी की गुस्ताख़ी पर फ़ैसला करने का हक़ किसने और कब दे दिया? और फ़ैसला ऐसा कि किसी की जान ही ले ली जाए. इस्लाम में नाहक़ ख़ून बहाने वालों की कहीं भी जगह नहीं है चाहे वो ख़ून मज़हब के नाम पर ही क्यों न बहाया जा रहा हो.
[नैय्यर इमाम स्कॉलर और स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.]