निजीकरण के दौर में सरकारी स्कूल

Javed Anis for TwoCircles.net

सरकारी स्कूल हमारे देश के सावर्जनिक शिक्षा व्यवस्था की बुनियाद हैं. ये देश के सबसे वंचित व हाशिये पर पहुंचा दिए गये समुदायों की शिक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं. बल्कि देश की शिक्षा व्यवस्था के निजीकरण और इसे मुनाफ़ा आधारित बना डालने का मंसूबा पाले लोगों के रास्ते में भी यही सरकारी स्कूल सबसे बड़ी रूकावट हैं. लेकिन तमाम हमलों और विफल बना दिए जाने की साजिशों के बीच इनका वजूद क़ायम है और आज भी जो लोग सामान शिक्षा व्यवस्था का सपना पाले हुए हैं, उनके लिए यह उम्मीद बनाए रखने का काम कर रहे हैं.


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90 के दशक में उदारीकरण आने के बाद से सावर्जनिक सेवाओं पर बहुत ही सुनोयोजित तरीक़े से हमले हो रहे हैं और उन्हें नाकारा व अनुउपयोगी साबित करने हर कोशिश की जा रही है. एक तरह से सावर्जनिक सेवाओं का उपयोग करने वालों को पिछड़ा और सब्सिडी-धारी गरीब के तौर पर पेश किया जा रहा है. उच्च मध्यवर्ग और यहां तक कि मध्यवर्ग भी अब सावर्जनिक सेवाओं के इस्तेमाल में बेइज्ज़ती सा महसूस करने लगे हैं. उनको लगता है इससे उनका क्लास स्टेटस कम हो जाएगा. इसकी वजह से सरकारी सेवाओं पर भरोसा लगातार कम हो रहा है.

क़ायदे से तो इसे लेकर सरकार को चिंतित होना चाहिए था, लेकिन सरकारी तंत्र, राजनेता और नौकरशाही इन सबसे खुश नज़र आ रहे हैं, चूंकि निवेश और निजीकरण सरकारों के एजेंडे में सबसे ऊपर आ चुका है. इसलिए सामाजिक सेवाओं में सरकारी निवेश को सब्सिडी कहकर मुफ्तखोरी के ताने माने जा रहे हैं और इन्हें कम या बंद करने का कोई भी मौक़ा हाथ से जाने नहीं दिया जा रहा है.

हमारे सरकारी स्कूलों में भी धीरे-धीरे नेताओं, नौकरशाहों, बिजनेस और नौकरी-पेशा लोगों के बच्चों का जाना लगभग बंद हो चुका है. अब जो लोग महंगी और निजी स्कूलों की सेवाओं को अफोर्ड नहीं कर सकते हैं, उनके लिए सस्ते प्राइवेट स्कूल भी उपलब्ध हैं. इनमें से कई तो सरकारी स्कूलों के सामने किसी भी तरह से नहीं टिकते हैं. लेकिन फिर भी लोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूल की जगह कमतर लेकिन निजी स्कूलों में भेजना ज्यादा पसंद करते हैं. और तो और अब स्वयं सरकारी स्कूल के अध्यापक भी अपने बच्चों को प्राईवेट स्कूलों में भेजने को तरजीह देने लगे हैं.

यह स्थिति हमारी सावर्जनिक शिक्षा व्यवस्था की त्रासदी बयान करती है. आज हमारे स्कूल भी हमारे आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी के नए प्रतीक बन गये हैं. सत्ताधारियों की मदद से शिक्षा को एक व्यवसाय के रूप में पनपने के सबूत भी हैं. यह बहुत आम जानकारी हो चुकी है कि किस तरह से नेताओं, अफ़सरों और व्यपारियों की गठजोड़ ने सावर्जनिक शिक्षा को दीमक की तरह धीरे-धीरे को चौपट किया है, ताकि यह दम तोड़ दें और उनकी जगह पर प्राइवेट क्षेत्र को मौक़ा मिल सके.

इसलिए जब कुछ अपवाद सामने आते हैं, तो वे राष्ट्रीय ख़बर बन जाते हैं. 2011 में इसी तरह की एक ख़बर तमिलनाडू से आई थी. जहां इरोड ज़िले के कलेक्टर डॉ. आर. आनंद कुमार ने जब अपनी 6 साल की बेटी का नाम एक सरकारी स्कूल में दर्ज कराया तो यह घटना एक राष्ट्रीय ख़बर बन गई. स्कूल स्तर पर भी इसका असर देखने तो मिला था. कलेक्टर की बच्ची के सरकारी स्कूल में जाते ही सरकारी अमले ने उस स्कूल की सुध लेनी शुरु कर दी और उसकी दशा पहले से बेहतर हो गयी.

ज़ाहिर है अगर यह अपवाद आम बन जाये तो बड़े बदलाव देखने को मिल सकता है. शायद इसी को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सितम्बर 2014 में केंद्र सरकार से कहा था जिस तरह से सरकारी मेडिकल कॉलेज सबसे अच्छे माने जाते हैं, उसी तरह से सरकार देशभर में अच्छे स्कूल क्यों नहीं खोलती है.

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी पिछले साल अगस्त में एक महत्वपूर्ण फैसला देते हुए यूपी सरकार से कहा था कि –‘जन-प्रतिनिधियों व सरकारी ख़ज़ाने से वेतन या मानदेय पाने वाले हर व्यक्ति के बच्चे का सरकारी स्कूल में पढ़ना अनिवार्य किया जाए और इसकी अवहेलना करने वालों पर कड़ी कार्यवाही हो.’

इस फैसले का आम जनता द्वारा तो खूब स्वागत किया गया, लेकिन संपन्न वर्ग की प्रतिक्रिया थी कि पालकों को यह आज़ादी होनी चाहिए कि उन्हें अपने बच्चों को कहां पढ़ाना है. हाईकोर्ट के इस आदेश के बावजूद उत्तर प्रदेश के मंत्री और नौकरशाह इस पर अमल के लिए तैयार नहीं हुए.

पिछले दिनों जो ख़बरें आई हैं, उसके अनुसार यूपी सरकार हाईकोर्ट के इस आदेश के खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) दाखिल करने की तैयारी में है.

यह एक ऐसा दौर है, जब तमाम ताक़तवर और रुतबे वाले लोग ‘सरकारी स्कूलों के निजीकरण’ के लिए पूरा जोर लगा रहे हैं. इसके लिए खुले तौर लाबिंग की जा रही है. यह लोग सरकारी स्कूलों को ऐसा सफ़ेद हाथी बता रहे हैं जो अब भ्रष्ट, निष्क्रिय और बोझ बन चुका है.

सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी नाम की कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी नुमा एक सामाजिक संस्था है, जिसका मानना है कि सरकारी स्कूल भारत के बच्चों की ज़रूरतों पर खरे नहीं उतर रहे है. इसीलिए यह निजी स्कूलों की वकालत करती है.

सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी द्वारा “स्कूल चयन अभियान” नाम से एक परियोजना चलाई जा रही है, जिसके तहत स्कूलों की जगह छात्रों को फंड देने की वकालत जा रही है, जिसे वे “स्कूल वाउचर” का नाम दे रहे हैं. उनका तर्क है कि इस वाउचर के सहारे ग़रीब और वंचित परिवारों के बच्चे भी अपने चुने हुए स्कूलों में पढ़ सकेंगे.

ज़ाहिर सी बात है इससे उनका मतलब निजी स्कूलों से है. सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी की एक प्रमुख मांग यह भी है कि आरटीई कानून को लेकर उस गुजरात मॉडल को अपनाया जाए, जहां निजी स्कूलों की मान्यता के लिए ज़मीन व अन्य आवश्यक संसाधनों में छूट मिली हुई है और लर्निग आउटपुट के आधार पर मान्यता का निर्धारण होता है.

इस साल फ़रवरी में निजी स्कूलों के संगठन नेशनल इंडिपेंडेंट स्कूल्स एलांयस (नीसा) द्वारा इसी मांग को लेकर दिल्ले के जंतर-मंतर पर एक प्रदर्शन भी किया गया है, जिसमें प्रधानमंत्री से स्कूलों की मान्यता के मामले में गुजरात मॉडल को देशभर मे लागू करने की मांग की गयी थी.

दरअसल यह ढील इसलिए मांगी जा रही है, क्योंकि लाखों की संख्या में प्राइवेट स्कूल शिक्षा अधिकार कानून के मानकों को पूरा नहीं कर रहे हैं. इसलिए उन पर बंद होने का ख़तरा मंडरा रहा है.

हमारी शिक्षा व्यवस्था सफ़ेद नहीं बीमार हाथी की तरह है, जिसे गंभीर इलाज की ज़रूरत है. लेकिन समस्या यह है कि हर कोई इसका अपने तरह से इलाज करना चाहता है. यहां सूंड और पूंछ की कहानी सच साबित हो रही है और कुछ लोग इस भ्रम को और बढ़ाकर शिक्षा को अपनी दूकानों में सजाना चाहते हैं.

सरकारी स्कूल अगर बीमार हैं, तो इसके लिए जिम्मेदार कोई और नहीं हमारी सरकारें हैं. शिक्षा को स्कूलों के एजेंडे से गायब कर दिया गया है और इसकी जगह पर शौचालय, एमडीएम एवं सतत् व व्यापक मूल्यांकन प्रणाली (सीसीई) को प्राथमिकता मिल गयी है. सारा ज़ोर आंकड़े दुरुस्त करने पर है. स्कूल एक तरह से ‘डाटा कलेक्शन एजेंसी’ बना दिए गये हैं.

कागज़ी काम बहुत हो गया है और शिक्षकों का काफी समय आंकड़े जुटाने व रजिस्टरों को भरने में ही चला जाता है. हर काम के लिए लक्ष्य और निश्चित समयावधि निर्धारित कर दी गयी है. हमारे शिक्षकों का सारा ध्यान इसी लक्ष्य को पूरा करने की जोड़-तोड़ लगा रहता है.

हमारे स्कूल ऐसे प्रयोगशाला बना दिए गये हैं, जहां हर कोई विचारों और नवाचारों को आज़माना चाहता है. देश के लगभग 20 फीसदी स्कूल एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं. समुदाय के लोगों की ज्यादा रुचि स्कूल में होने वाली शिक्षा की जगह वहां हो रहे आर्थिक कामों में अपना हिस्सा मांगने में दिखाई पड़ने लगी है. शिक्षकों के लिए किसी भी तरह के प्रोत्साहन की वयवस्था नहीं है. उलटे सारी नाकामियों का ठीकरा उन्हीं के सर पर फोड़ दिया जाता है.

इन तमाम समस्याओं से जूझते हुए भी हमारी सावर्जनिक शिक्षा व्यवस्था अपने आप को बनाये और बचाए हुए है. बल्कि यूं कहें कि दौड़ नहीं तो कम से कम चल रही है.

मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अनुसार देश भर में क़रीब दो लाख सरकारी स्कूल हैं, जहां 13.8 करोड़ बच्चे पढ़ते हैं. जबकि प्राइवेट स्कूलों में क़रीब 9.2 करोड़ छात्र पढ़ते हैं. यानी अभी भी सरकारी स्कूल ही है, जो तमाम कमजोरियों के बावजूद हमारी शिक्षा व्यवस्था को अपने कंधे पर उठाये हुए हैं.

आज भी सबसे ज्यादा बच्चे अपनी शिक्षा के लिए इन्हीं सरकारी पर निर्भर हैं, जिनमें ज्यादातर गरीब और हाशिये पर पंहुचा दिए गये समुदायों से हैं. इसलिए ज़रूरी है कि इन्हें मज़बूत बनाया जाए. लेकिन यह काम सभी की सहभागिता और सहयोग के बिना नहीं हो सकता है. इस दिशा में राज्य, समाज, शिक्षकों और स्कूल प्रबंधन समिति आदि को मिलकर अपना योगदान देना होगा. कोठारी कमीशन द्वारा 60 के दशक में ही समान शिक्षा प्रणाली की वकालत की गयी थी. मज़बूत सावर्जनिक शिक्षा व्यवस्था हमें उस सपने के और क़रीब ला सकती है.

जावेद अनीस स्वतंत्र पत्रकार हैं और भोपाल में उनकी रिहाईश है. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.

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