2013 के दंगा पीड़ितों पर आरोप लगाती है मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट

ज़फ़र इक़बाल

21 सितंबर को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की, जिसमें आयोग ने अपनी जांच और निष्कर्षों के आधार पर कई विवादित बयान दिए. आयोग ने जो बातें रखी हैं उसका कोई ठोस आधार नहीं है इसलिए ये विवादित हैं. आयोग ने कुछ लोगों से की गयी बात के आधार पर बहुत से निष्कर्ष निकाल लिए, जिनका कोई आधार नहीं है. इस संदर्भ में 29 सितंबर को अमन बिरादरी और सद्भावना ट्रस्ट ने दिल्ली में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के ज़रिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के इस प्रयास की निन्दा की.


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आयोग से इस बात की मांग की यी कि वह अपने निष्कर्षों को पुष्ट करने के लिए तथ्य प्रस्तुत करे. ऐसा करने में अगर आयोग असफल साबित होता है तो उसको कैराना में बसे दंगा पीड़ितों से माफ़ी मांगनी चाहिए और अपनी रिपोर्ट वापस ले लेनी चाहिए. जिस तरह के निराधार आरोप कैराना की जनता पर लगाए गए हैं, वे निंदनीय हैं.

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अपनी जांच के निष्कर्षों को प्रेस विज्ञप्ति में बिंदुवार शामिल किया है,

बिंदु संख्या 12 में कहा गया है –

“कम से कम 24 चश्मदीद गवाहों ने बताया कि कैराना शहर में एक ख़ास बहुसंख्यक समुदाय (मुसलमान) के नौजवान एक ख़ास अल्पसंख्यक समुदाय की लड़कियों के ख़िलाफ़ भद्दी/अपमानजनक टिप्पणी करते थे. इस वजह से कैराना शहर में एक ख़ास अल्पसंख्यक समुदाय (हिन्दू) की लड़कियां बाहर आने जाने से परहेज़ करने लगीं. बावजूद इसके ये इतनी हिम्मत नहीं जुटा सकीं कि वे पुलिस से इन घटनाओं की शिकायत कर सकें ताकि इसके ख़िलाफ़ कोई क़ानूनी कार्रवाई हो सके.”

बिंदु 18 में कहा गया है –

“2013 में पुनर्वास के बाद के परिदृश्य में मुस्लिम समुदाय के लगभग 25-30 हज़ार लोग मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले (उ.प्र) से आकर कैराना शहर में बस गए. इससे कैराना शहर का जनसांख्यिकी अनुपात मुस्लिम समुदाय के पक्ष में बदल गया, इससे यह समुदाय और भी शक्तिशाली और बहुसंख्यक हो गया. जिन चश्मदीदों से बात की गयी वे और बहुत-से पीड़ित इस बात को महसूस करते हैं कि 2013 में इन लोगों के यहां बस जाने की वजह से कैराना शहर की सामाजिक स्थिति हमेशा के लिए बदल गयी, इसकी वजह से क़ानून-व्यवस्था की स्थिति और भी बिगड़ गई.”

इस प्रेस कॉन्फ्रेंस के अवसर पर जो प्रेस रिलीज जारी की गयी, उसमें आयोग के इन तर्कों पर सवालिया निशान लगाए गए. बिना किसी विश्वसनीय और स्वतंत्र साक्ष्य के इन बेबस दंगा पीड़ितों पर आपराधिक आरोप लगाना राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जैसी संस्था को शोभा नहीं देता.

2016 में प्रकाशित रिपोर्ट ‘सिमटती ज़िंदगीः साम्प्रदायिक हिंसा और जबरन विस्थापन, मुज़फ़्फ़रनगर और शामली के हालात’ जो व्यापक शोध पर आधारित है, जिसमें यह पाया गया कि लगभग 30,000 आंतरिक रूप से विस्थापित पीड़ित लोग पुनर्वास कॉलोनियों में बसे हैं. ये 65 कॉलोनियाँ मुज़फ़्फ़रनगर और शामली दोनों ज़िले में बसी हैं. जिस समय यह रिपोर्ट लिखी गयी, उस समय कैराना शहर में 200 परिवारों का पता चला था क्योंकि तब इस रिपोर्ट का उद्देश्य कॉलोनी के आधार पर परिवारों का सर्वे करना था. लेकिन राष्ट्रीय मानवाधिकर आयोग की रिपोर्ट के बाद सिमटती ज़िंदगी के चार लेखकों में से एक अकरम चौधरी ने कैराना शहर में हर छोटे बड़े क्लस्टर का फिर से एक सर्वे किया, जिसमें पाया गया कि कैराना शहर में 2013 के बाद कुल 270 परिवार (लगभग 2000 लोग) आकर बसे हैं. आयोग को यह बताना चाहिए कि उसने किस आधार पर 25,000 से 30,000 लोगों के 2013 से कैराना में बसने की बात स्वीकारी है? इस देश के नागरिक के नाते इस देश में कोई कहीं भी जाकर बस सकता है. मुज़फ़्फ़रनगर साम्प्रदायिक हिंसा के बाद लोग अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर हुए. कैराना पहले से मुस्लिम बहुल आबादी वाली जगह है. यहाँ लगभग 80 प्रतिशत मुसलमान आबाद हैं और उसमें लगभग 2000 की वृद्धि हो जाने से इस अनुपात में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता.

संभव है कि बिगड़ती क़ानून व्यवस्था या अपराध की वजह से कुछ लोग पलायन करने के लिए मजबूर हुए हों, और अगर ऐसा है भी, तो यह राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह कार्रवाई करे. जो लोग ख़ुद 2013 में मुज़फ़्फ़रनगर में हुई साम्प्रदायिक हिंसा से पीड़ित हैं उन्हें कैराना शहर में कथित क़ानून-व्यवस्था की समस्या के लिए ज़िम्मेदार ठहराकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग इस घटना का साम्प्रदायिकरण कर रही है. उसका यह प्रयास निन्दनीय है.

हमारी प्रतिष्ठित मानवाधिकार संस्था अपने सार्वजनिक रिपोर्ट में इतनी लापरवाही और ग़ैरज़िम्मेदारी के साथ अपनी बात रखती है, कुछ अनाम चश्मदीदों के आधार पर कहती है कि वह ऐसा “महसूस करती है” और भारतीय नागरिकों के एक पूरे समुदाय पर अपराधी का लेबल लगा कर उसे लांछित करती है. यह अपने में गंभीर चिंता का विषय है. इस विकृत बयानबाज़ी का आख़िर क्या आधार है?

राष्ट्रीय मानवाधिकार ने 348 परिवारों के पलायन की शिकायत को आधार बनाकर अपनी जाँच शुरू की. जिस तथ्य को अख़बार अपनी रिपोर्टिंग के आधार पर पहले ही निराधार साबित कर चुकी है उसके आधार पर आयोग अपनी जाँच करे इसमें कोई तर्क नहीं है. ये लिस्ट पहली बार कैराना के भाजपा सांसद हुकुम सिंह की तरफ़ से जारी की गयी थी. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जैसी स्वायत्त संस्था ने इसे इतना महत्व क्यों दिया? ऐसा लगता है जैसी आयोग एक ख़ास पार्टी की लाईन ले रही है.

अपराध और पलायन एक ऐसी घटना है जो इस देश में कहीं भी घट सकती है और घटती रहती है. इसे किसी स्थान या समुदाय विशेष से जोड़कर देखना उचित नहीं है. पलायन को रवीश कुमार नई संभावनाओं की तलाश बताते हैं. शिक्षा तथा रोज़गार जैसे अवसरों की तलाश में उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों से पलायन सामान्य-सी बात है.

नकुल सिंह साहनी अपनी नई फ़िल्म ‘कैरानाः सुर्ख़ियों के बाद’ में इस बाद को दिखाते हैं कि यह कथित साम्प्रदायिक पलायन साम्प्रदायिक नहीं बल्कि आर्थिक और सामाजिक है. लोगों के पास काम नहीं है. रोज़गार की तलाश में लोग कैराना से बाहर गए हैं. बाहर जाने वालों में जैन समाज की संख्या अधिक है जो पारंपरिक रूप से व्यापार से जुड़े रहे हैं. जो अब भी त्योहार के समय वापस कैराना आते हैं. कैराना से बहुत से मुसलमान भी दूसरे शहरों में काम के लिए गए, जिनके घर कई साल से बन्द हैं.

लोकतंत्र का आधार देश की सरकार के साथ साथ उसकी संस्थाएँ भी होती हैं. सरकार आती जाती रहती हैं लेकिन संस्थाएँ हमेशा अपनी स्वायत्ता के साथ खड़ी रहती हैं. संस्थाओं में विश्वास लोकतंत्र में विश्वास का आधार होती हैं. पिछले कुछ सालों में इन स्वायत्त संस्थाओं ने जिस तरह से सरकार का पक्ष लेना शुरू किया है वह कोई अच्छी स्थिति नहीं है. इससे इन संस्थाओं के सामने विश्वसनीयता का संकट भी उत्पन्न हो गया है. जिस तरह से राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने कैराना की घटना की जाँच की है और अपना पक्ष रखा है वह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है. अगर हमारी संस्थाएँ इसी तरह जनता का विश्वास खोती रहीं फिर लोकतंत्र में उनके विश्वास का क्या होगा.

[ज़फर इक़बाल मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं. ‘अमन बिरादरी’ से जुड़े हुए हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.]

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