सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net
लखनऊ : संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने हाल में भी अयोध्या में ‘रामायण संग्रहालय’ बनाने का प्रस्ताव लाकर लोगों को चकित किया ही है, लेकिन इसके साथ ही उन्होंने विपक्ष की आलोचना का रास्ता भी खोल दिया है.
लेकिन सबसे ज्यादा रोचक बात यह है कि रामायण संग्रहालय बनाने का मुद्दा उठाकर भाजपा ने यह साफ़ तो कर ही दिया है कि राम मंदिर उसके लिए यूपी चुनाव में राजनीति का आधार बनेगा लेकिन राम मंदिर बनाने में पार्टी की कोई रूचि नहीं है. ‘रामायण संग्रहालय’ दरअसल मुद्दे को जीवित रखने का एक प्रयास है, जिससे यह साफ़ होता है कि भाजपा के राज में ‘रामराज्य’ नहीं आने वाला.
रामायण संग्रहालय की आड़ में राम मंदिर के निर्माण का मुद्दा भले ही उठ खड़ा हुआ हो, भले ही संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने इसे ‘रामलला’ का आह्वान बताया हो या भले ही राम मंदिर आन्दोलन से जुडी हुई उमा भारती फिर से इस ताजातरीन मुद्दे में कूद पड़ी हों, लेकिन इस राम मंदिर के मुद्दे को जगाना दरअसल बाबरी मस्जिद के भूत को जगाना है.
भाजपा के सांसद विनय कटियार ने भी रामायण संग्रहालय को एक ‘लॉलीपॉप’ करार दे दिया है और उन्होंने यह कहा है कि इससे कुछ हासिल नहीं होगा. विनय कटियार का यह वक्तव्य भी सोचा-समझा हुआ है.
लेकिन मनोहर पर्रिकर और महेश शर्मा जैसे दो केन्द्रीय मंत्रियों को ध्यान से देखें तो लगता है कि केंद्र सरकार का एक बड़ा और ज़रूरी हिस्सा यूपी चुनाव के लिए एक पार्टी की ज़मीन तैयार करने में जुटा हुआ है. इसमें कोई आलोचनात्मक कदम नहीं है, लेकिन यह साफ़ है कि भाजपा अपनी राष्ट्रीय सत्ता का भरसक उपयोग ध्रुवीकरण के लिए कर रही है, और यह हर हाल में आलोचनात्मक है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दशहरे के दिन लखनऊ में दिए गए अपने भाषण की शुरुआत और उसका अंत ‘जय श्रीराम’ के नारे के साथ किया था. उसी समय यह साफ़ हो गया था कि यूपी को लेकर भाजपा की रणनीति क्या होगी?
उड़ी में हुए हमलों के बाद की गयी सर्जिकल स्ट्राइक और उसके विज्ञापन ने रक्षा मंत्रालय और मंत्री मनोहर पर्रिकर को यूपी चुनाव की दृष्टि से केन्द्रीय भूमिका में ला दिया है. सर्जिकल हमला – जो बीते समय में बैंड-बाजा-बारात के बिना किया जाता रहा – ने राष्ट्रवाद की पुरानी बहस को थोड़ा और बढ़ा दिया है. यही क्या कम है कि कमोबेश हरेक टीवी चैनल पर युद्ध की खबरें पिछले कुछ हफ़्तों से लगातार दिखायी जा रही हैं. गोरक्षा का मामला कभी न कभी सतह पर आ ही जाता है. ऐसे में यह समझना आसान है कि राम मंदिर, भारत-पाकिस्तान युद्ध और गाय माता के सहारे भाजपा अपनी नाव यूपी में खेना चाह रही है.
क्या मंदिर उत्तर प्रदेश के सभी मुद्दों का हल है?
लखनऊ के डालीबाग में रहने वाले प्रशांत कुमार के घरवालों ने बाबरी मस्जिद विध्वंस के समय आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था. प्रशांत के मुताबिक़ उनके कुछ रिश्तेदार कारसेवा में भी गए थे. लेकिन अभी की परिस्थितियों के बारे में गहरी राय रखने वाले प्रशांत कोई बड़े नाम तो नहीं, लेकिन उन्हें सुना जा सकता है. प्रशांत कहते हैं, ‘मेरे घर में अभी भी राम मंदिर का मुद्दा उठते ही लोगों के चेहरे खिलता दिखने के बजाय गुस्से में दिखते हैं. यानी बात साफ़ है कि राम मंदिर बनने में राम मंदिर बन जाने की ख़ुशी नहीं होगी, जबकि ख़ुशी होगी कि ‘देखो, हमने एक मस्जिद गिरा दी थी, इतने मुसलमान मार डाले तब हमने रामजी का मंदिर खड़ा किया’. यह हार-जीत में मिलने वाली ख़ुशी होगी, न कि धर्म और आस्था से जुड़ी ख़ुशी.’
प्रशांत कुमार का कहना है कि राम मंदिर के बन जाने से बहुत सारी हिन्दू भावनाएं वोट देने के लिए जुट सकती हैं, लेकिन भाजपा को देखकर ऐसा लगता है कि पार्टी अभी भी 1992 और 2002 की लीग पर चल रही है. वे कहते हैं, ‘लोकसभा चुनाव के दौरान पार्टी विकास की बात कर रही थी, लेकिन प्रदेश चुनावों में उतरते ही भाजपा को पता नहीं क्या हो जाता है कि फिर से अपनी पुरानी किताब खोल लेती है.’
प्रशांत कुमार कहते हैं कि वे भाजपा समर्थक हैं, लेकिन अंधसमर्थक नहीं. इसलिए वे कहते हैं, ‘पार्टी को चाहिए कि असल मुद्दों की ओर ध्यान दे, मंदिर बनाकर यदि उत्तर प्रदेश में बेरोज़गारी, पलायन और कानून-व्यवस्था की समस्या हल की जा सकती है तो बना लीजिए मंदिर. लेकिन मंदिर मुद्दों का हल नहीं है.’
लखनऊ ही क्यों, राममंदिर आन्दोलन के खेत अयोध्या में भी यही हाल है कि युवा हिन्दू वोटरों को मंदिर से आगे का रास्ता देखना है.
हनुमान गढ़ी इलाके में रहने वाले अंकित सेठ युवा हैं और कोई नौकरी ने मिलने के कारण सर्राफा का कामधाम सम्हाल रहे हैं. अंकित सेठ कहते हैं, ‘हमारे पास नौकरी नहीं है. घर का धंधा है तो मजबूरी में देखना है. आप राम मंदिर बनाके या रामायण संग्रहालय बनाके हमको नौकरी दे दो, तो ठीक है. एक छोटा-सा मोबाइल चोरी होता है, उसका रिपोर्ट लिखाने जाओ तो थाने में सौ रुपया देना पड़ता है. बाइक चोरी की एफआईआर का रेट है दो सौ रुपया. मंदिर बने न बने, ये सब सही हो तो ठीक है. ये सब करवा दो.’
हालांकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आगे बढ़ते हुए पूर्वी उत्तर प्रदेश में हिन्दू युवा वाहिनी के कार्यकर्ताओं द्वारा ध्रुवीकरण को तेज़ी से अंजाम दिया जा रहा है. फिर भी आम हिन्दू युवा वोटर को भाजपा के अभी के प्रचलित एजेंडे से आगे की राह देखनी है, जिससे उसका कुछ उद्धार हो सके.
भाजपा को नहीं चाहिए मुसलमानों और दलितों के वोट
पार्टी का यूपी कैम्पेन देखते हुए लगता है कि भाजपा ने एक ख़ास समुदाय और एक ख़ास जाति वर्ग की ओर अपना निशाना साध रखा है. ऊंची जातियों के हिन्दू वोटर के अलावा भाजपा किसी अन्य समुदाय पर अपनी नज़र नहीं डालना चाह रही है. राम मंदिर आंदोलन के दौरान पिछड़ी जातियों का एक बड़ा हिस्सा भाजपा के साथ था. लेकिन समय बदलने के साथ ही प्रदेश में दलित समाज के नए चेहरे के रूप में मायावती का कद बढने लगा. दलितों को यह भी मालूम चला कि राम मंदिर निर्माण या बाबरी मस्जिद विध्वंस से दलित समुदाय का कोई हित नहीं जुड़ा है. और इस आन्दोलन में सवर्ण हिन्दुओं के जुड़ने से दलित किनारे होने लगे.
मजलिस-ए-मशावरत के राष्ट्रीय अध्यक्ष नावेद हमीद बताते हैं, ’90 के दशक के ख़त्म होते-होते दो बड़े बदलाव हुए. एक तो दलितों को पता चल गया कि राम मंदिर से उनका कुछ नहीं होने वाला है और राम मंदिर की हवा भी भाजपा के साथ नहीं रह पायी.’ वे आगे बताते हैं, ‘भाजपा भले ही केंद्र की सत्ता में हो, तब भी मुस्लिम वोटर की ओर उनका कोई रुझान नहीं रहा है. ऐसे में 2016 में जब सारी दुनिया आगे भाग रही है, राम मंदिर जैसे मुद्दे को हवा देने का मतलब साफ़ है कि आपको दलितों और मुसलमानों से कोई मतलब नहीं है.’
पूरे मुद्दे पर बात करते हुए नावेद हमीद कहते हैं, ‘भाजपा का मकसद मंदिर बनाना नहीं है. वे भावनाओं को बरगलाना चाह रहे हैं कि भावनाएं किसी तरह से वोट में तब्दील हो जाएं. जिस दिन राम मंदिर बन जाएगा, उस दिन पार्टी के लिए राजनीति का एक मुद्दा भी ख़त्म हो जाएगा.’
ऐसा नहीं है कि यूपी में राम मंदिर के मुद्दे का बाज़ार बनाकर भाजपा कोई गलती कर रही है. कई वोटर ऐसे मिलते हैं, जिनकी प्रमुख समस्याएं राम मंदिर से हल होती दिखती हैं. लेकिन जनादेश की होड़ में उत्तर प्रदेश हमेशा जाति और धर्म का मुद्दा सबसे पहले समझाएगा, असल मुद्दे कभी नहीं.