मुज़फ़्फ़रनगर हिंसा में सरकार ने अपने ‘राजधर्म’ का पालन क्यों नहीं किया?

TwoCircles.net Staff Reporter

लखनऊ : मुज़फ़्फ़रनगर साम्प्रदायिक हिंसा की चौथी बरसी पर बुधवार को उत्तर प्रदेश के लखनऊ शहर में स्थित यूपी प्रेस क्लब में रिहाई मंच ने एक सम्मेलन का आयोजन किया. इसी सम्मेलन में एक रिपोर्ट ‘सरकार दोषियों के साथ क्यों खड़ी है?’ जारी किया गया. यह रिपोर्ट मानवाधिकार कार्यकर्ता एडवोकेट असद हयात, रिहाई मंच के महासचिव राजीव यादव व प्रवक्ता शाहनवाज़ आलम ने तैयार की है.


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इस रिपोर्ट में ख़ास तौर पर कहा गया है कि –‘मुज़फ़्फ़रनगर सांप्रदायिक हिंसा के बाद सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अनेक जनहित याचिकाएं दाखिल हुईं. सर्वोंच्च न्यायालय ने अपने आदेश दिनांक 26 मार्च 2014 में स्पष्ट रूप से यह माना है कि मुज़फ़्फ़रनगर सांप्रदायिक हिंसा को शुरु में ही रोकने में लापरवाही के लिए यूपी सरकार ज़िम्मेदार है. अगर खुफ़िया एजेंसियां समय रहते प्रशासन को सचेत कर देतीं तो शायद इन घटनाओं को रोका जा सकता था.’

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सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में यह भी लिखा कि आशा है सभी मामलों की निष्पक्ष विवेचना की जाएगी और सभी अपराधियों को गिरफ्तार किया जाएगा. सर्वोच्च न्यायालय ने किसी दूसरी जांच एजेंसी से मुज़फ़्फ़रनगर सांप्रदायिक हिंसा के मामलों की जांच कराने की मांग को ठुकरा दिया और राज्य सरकार में यह विश्वास व्यक्त किया कि निष्पक्ष जांच होगी. इसलिए राज्य सरकार का यह दायित्व बढ़ गया कि वो पूर्ण रूप से राजधर्म का पालन करते हुए निष्पक्ष जांच कराए और दोषियों को क़ानून के कटघरे में लाकर खड़ा करे और इस दायित्व का निर्ववहन करते समय राजनीतिक संबन्धों, कार्यकर्ताओं के प्रति उदारता आदि का कोई ख्याल न करे. लेकिन यह रिपोर्ट बताती है कि –‘ऐसा नहीं हुआ.’

इस रिपोर्ट के मुताबिक़ राज्य सरकार ने जस्टिस विष्णु सहाय कमीशन गठित किया, जिसने अपनी रिपोर्ट देर से ही सही, अब सरकार को सौंप दी है. इस जांच कमीशन से आशा थी कि सत्य की खोज करते हुए यह बहुत से अनुत्तरित प्रश्नों का जवाब जनता के सामने रखेगा. यह जांच कमीशन अपने न्यायिक मस्तिष्क का प्रयोग करते हुए स्वयं भी उन प्रश्नों पर जांच आगे बढ़ा सकता था. मगर ऐसा नहीं हुआ.

रिहाई मंच द्वारा प्रस्तुत की गई रिपोर्ट ‘सरकार दोषियों के साथ क्यों खड़ी है?’ बताती है कि विष्णु सहाय कमीशन प्रतीक्षा करता रहा कि लोग आएं और उसके सम्मुख अपने बयान दर्ज कराएं. जो सूचनाएं ज़िला प्रशासन के पास थीं, वे भी विष्णु सहाय कमीशन को नहीं दी गईं. यह जांच कमीशन चंद एफ़आईआर का ही संज्ञान ले सका. सांप्रदायिक हिंसा के दौरान हत्या, आगजनी और लूटपाट की जो घटनाएं हुई थीं, उनके संबन्ध में पीड़ित व्यक्तियों द्वारा अपनी व्यक्तिगत एफ़आईआर दर्ज कराई गई थी. यह लोग वही कह सकते थे जैसा इन्होंने घटित होते हुए अपनी आंखों से देखा और भोगा. कुछ पांच सौ से ज्यादा एफ़आईआर दर्ज हुई थीं. इन सभी में यह प्रश्न समान रूप से निहित था कि क्या सांप्रदायिक हिंसा एक षडयंत्र था?

स्पष्ट रहे कि यह साम्प्रदायिक हिंसा बड़े पैमाने पर की गई थी, जिसका प्रसार शामली, मुज़फ्फ़रनगर, बागपत ज़िलों तक था. यह किसी एक साधारण घटना के कारण नहीं हुआ बल्कि साम्प्रदायिक नफ़रत को आधार बनाकर सुनियोजित तरीक़े से इसे अंजाम दिया गया. लेकिन कमीशन ने इस बात की जांच नहीं की कि 7 सितंबर 2013 से पहले घटित हुए कवाल कांड को हवा किन लोगों ने दी?

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि –‘लड़कियों के साथ हुई छेड़छाड़ की मनगढ़ंत कहानी भाजपा के नेताओं ने तैयार की. शाहनवाज की हत्या के संबन्ध में दर्ज मुक़दमा अपराध संख्या 404/2013 और मृतक सचिन और गौरव की हत्याओं के संबन्ध में दर्ज रिपोर्ट मुक़दमा अपराध संख्या 403/ 2013 में इसका कहीं उल्लेख नहीं है कि लड़की के साथ छेड़छाड़ होने की वजह से विवाद हुआ था, बल्कि इसके उलट एफ़आईआर नंबर 403/2013 में उल्लेख किया गया कि घटना का कारण मोटर साइकिलों का टकराना था.’

यह रिपोर्ट बताती है कि विवेचक द्वारा लड़कियों का बयान धारा-161 सीआरपीसी के अंतर्गत घटना के 15 दिन बाद रिकॉर्ड किया गया और ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि भाजपा और अन्य सांप्रदायिक संगठनों ने यह षड़यंत्रकारी अफ़वाह फैलाई कि सचिन व गौरव की हत्या का कारण लड़की के साथ हुई छेड़छाड़ थी और इसी आधार पर भाजपा, किसान यूनियन और उनके हमख्याल राजनीतिक संगठनों के कार्यकर्ताओं ने अपने नेताओं के इशारे पर इस अफ़वाह को सांप्रदायिक रंग देकर गांव-गांव में ज़हर घोल दिया.

इस रिपोर्ट के मुताबिक़ यह एक ऐसा षडयंत्र था जिसकी गहन निष्पक्ष विवेचना होनी चाहिए थी. अगर दलील के तौर पर इस तथ्य को स्वीकार कर भी लिया जाए कि किसी लड़की से कोई छेड़छाड़ हुई थी, तो क्या क़ानून अपना काम करने में असमर्थ था? और क्या अपराधियों को सज़ा नहीं दिलवाई जा सकती थी? क्या उसके लिए आवश्यक था कि झूठी वीडियो क्लिप इंटरनेट पर अपलोड करवाकर वितरित की जाएं, पंचायतों का आयोजन कराया जाए और फिर हज़ारों लोगों की हिंसक भीड़ को नगला मंदौड़ की पंचायत में बुलाया जाए और वहां पर हिन्दू बहन-बेटी की इज़्ज़त बचाओ का भावुक नारा देकर आम हिंदू जनमानस को मुसलमानों के विरुद्ध भड़काया जाना कहां तक उचित ठहराया जा सकता है? क्या यह विधि सम्मत है? क्या भीड़ को भड़काकर उससे हिंसा कराना कहां तक जायज़ है? इतना ही नहीं जिन नेताओं ने भाषड़ दिए उन्होंने राज्य के विरुद्ध भी काफ़ी बुरा-भला कहा और लोगों को राज्य के प्रति अविश्वास, घृणा, शासन-व्यवस्था छिन्न-भिन्न करने आदि के लिए भी उकसाया जिसके फलस्वरुप सांप्रदायिक हिंसा हुई. भारतीय कानून के अंतर्गत यह राज द्रोह है.

यह रिपोर्ट बताती है कि इस गंभीर अपराध की गहन विवेचना होनी चाहिए थी, लेकिन हैरत की बात है कि सत्ताधारी दल ने ऐसा कराने में कोई दिलचस्पी नहीं ली, उल्टे अपराधियों को सुरक्षा मुहैया कराया और उनपर लगे रासुका को भी हटा लिया. 3 सितंबर 2013 को शामली में सांप्रदायिक हिंसा और 5 सितंबर 2013 को लिसाढ़ की पंचायत तथा बामनौली जनपद बागपत में हुई हिंसा क्या इसी षडयंत्र का एक भाग नहीं था? शामली नगर में एक दलित लड़की के साथ कथित सामूहिक बलात्कार की घटना को नगर शामली में हिंदू बहू-बेटी की इज़्ज़त पर हमला बताते हुए सांप्रदायिक ज़हर घोला गया. अभी कुछ माह पूर्व उसी लड़की ने सेशन कोर्ट मुज़फ्फ़रनगर में अपना बयान दर्ज कराया कि उसके साथ बलात्कार की कोई घटना नहीं हुई और उसने बलात्कार की रिपोर्ट कुछ लोगों के दबाव में दर्ज कराई.

इस तरह हिंदू लड़की के साथ मुसलमान युवकों द्वारा बलात्कार करने की एक झूठी कहानी तैयार कराई गई और कवाल की झूठी कहानी को जोड़कर, इन दोनों मामलों के आधार पर हिंदू जन मानस को सांप्रदायिक रूप से भड़काया गया. इस मामले में ऐसा नहीं था कि अफ़वाह फैलाने वाले लोग अज्ञात थे. ये वो लोग हैं जो सांसद, विधायक और जाने-पहचाने राजनीतिक व कथित सामाजिक कार्यकर्ता हैं. इन्होंने आम जनता के बीच में भाषण दिए और पंचायतें बुलाईं. मीडिया में इनके बयान भी प्रकाशित हुए जिनका इन्होंने उसी समय खंडन नहीं किया.

यह रिपोर्ट सवाल उठाती है कि संगीत सोम के फेसबुक एकाउंट पर जो वीडियो क्लिप डाऊनलोड की गई और शेयर की गई उसने जंगल की आग का काम किया, क्या यह षडयंत्र का हिस्सा नहीं था? 7 सितंबर 2013 को नगला मंदौड़ में जो महा-पंचायत बुलाई गई उसमें शामिल होने के लिए लोग हथियारों के साथ क्यों गए? उन्होंने रास्ते में जाते हुए भड़काऊ नारेबाजी, गाली गलौज और हिंसा शाहपुर थाना क्षेत्र में क्यों की? क्या यह षडयंत्र नहीं था? नगला मंदौड़ पंचायत में जिन नेताओं ने भड़काऊ भाषण दिए उनके विरुद्ध धारा-120 बी के अंतर्गत मुक़दमा दर्ज क्यों नहीं किया गया?

रिहाई मंच द्वारा जारी की गई यह रिपोर्ट मुज़फ़्फ़रनगर दंगे और सरकार की भूमिका पर कई सवाल खड़े करती है. उन तमाम सवालों को TwoCircles.net सिलसिलेवार तरीक़े से अपने पाठकों के लिए आगे प्रकाशित करेगी.

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