बिहार में बाढ़ पीड़ितों के बीच आधे दिन की डायरी

महेंद्र यादव

बिहार में बाढ़ कोई नई बात नहीं है, पर आधुनिक व विकसित होने की होड़ में यह सभ्यता प्रकृति प्रदत्त घटना को विकराल व भयावह बना दिया है. 2008 की बाढ़ जो राष्ट्रीय आपदा घोषित हुई, उस विकास की परिणति ही नहीं थी, बल्कि पूरी तरह सरकारी विफलता से मानवकृत थी.


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वैसे छोटी-छोटी बाढ़ भी अब विकराल रूप ले लेती हैं. पर इस वर्ष विकरालता के साथ भयावहता की त्रासद सुनकर लोग सिहर उठते हैं.

कई दिन अररिया शहर में गुज़ारने के बाद अब फ़ारबिसगंज पहुंच चुका था. अररिया शहर छोड़ने व फ़ारबिसगंज आने में एक समानता दोनों क़स्बाई शहरों की थी. इनमें सड़ चुके अनाजों के दुर्गन्ध वहां गुज़री तबाही की गवाही हवाओं के माध्यम से बिखेर रही थी. रास्ते में सड़क किनारे एनएच पर जगह-जगह पॉलीथिन की छोटी सीट लटकाकर मवेशियों के साथ-साथ बाल बच्चों को समेटे पीड़ित सरकारी राहत शिविरों के आंकड़ों को ललकार रहे थे.

टूटी-फूटी सड़क ध्वस्त घरों के दृश्य… नदी की धारा की आग़ोश में समाए खेत और पानी हटने के बाद सपाट धरती पर गिरकर गले-सड़े पीली शैवाल की शक्ल ले चुकी धान की फ़सल भी त्रासदी के गुज़रने का हलफ़नामा पेश कर रही थी.

फ़ारबिसगंज में भी पानी कम होने से बाज़ार की दिनचर्या शुरू होने लगी थी. पानी हटने जाने के बाद तबाही को भूलने की कोशिश करते लोग बर्बाद घरों, टूटे बिख़रे सामानों, मलबों की सफ़ाई करते पुनः जीवन शुरू करने की जद्दोजहद में लगे थे. इसके अलावे घरों में पानी के निशान को निहारते, अपने दुःस्वप्न भरे दिनों की यादों को ताज़ा करते अपनों की खैर की ख्वाहिश के लिए मोबाईल की बटन बार-बार दबाते इधर-उधर नेटवर्क की तलाश करते-करते ख़राब नेटवर्क पर कोसने लगते थे. 

जन प्रतिनिधि, ब्लॉक और दफ्तर घूमने वाले लोग सरकारी दफ्तरों पर झोंझ लगाये अपने-अपने आदमी की जुगाड़ में थे. जिनके घरों में पानी था वे बाहर ही सरकारी आस की अब भी टकटकी लगाए अपने घरों से पानी घटने की इंतज़ार में थे.               

बस स्टैंड से भजनपुर की तरफ़ जल्दी से बढ़ा. यह वही भजनपुर है, जो 2011 में पुलिस की गोली से 4 निर्दोष लोगों की बर्बर हुई हत्या के बाद चर्चा में आया था.

भजनपुर गांव में पहली बार बाढ़ आई थी. अर्थात 1987 में भी बाढ़ नहीं आई थी. यहां के लोग फोर-लेन पर शरण लिए थे. दो दिन पहले घरों को लौट गए थे. कुछ जो पहचानते थे, हमें देखते ही उनकी खुशी इन दुःख भरे दिनों में भी परवान पर थी कि कोई अपना जानने वाला खैरियत पूछने चला आया.

पानी घुसने के बाद भागने का दर्द साझा करते-करते, पास के नहर कटने की गाथा सुनाई, तो चोरों के आतंक से घर रखवाली की बहादुरीनामा का चर्चा हुआ. फोर-लेन पर चूड़ा शक्कर मुखिया ने बांटा था, खिचड़ी भी दो दिन बनी थी. प्रखंड व मुख्यालय से महज़ एक-दो कि.मी. की दूरी पर स्थित इन लोगों की शरणस्थली पर पदाधिकारीयों को उनकी सुधी नहीं आई और वे लावारिस पड़े रहे. ये लगभग 400 परिवार थे.

लिस्ट बनाकर फूड पैकेट लेने के लिए जनप्रतिनधि कल डटे थे, पर सीओ व एसडीओ ने कहा कि यह पैकेट राशन वितरण दुकानदार 2011 के खाद्य सुरक्षा के लिए बनी सूची से बांटेंगे, पर कुछ लोग व जनप्रतिनिधियों ने आपत्ति की कि अनेक पीड़ित परिवार वंचित हो जाएंगे.

पूरे दिन भर की जद्दोजहद के बाद तय हुआ कि अब सभी परिवारों का विवरण को पुनः एक फॉर्मेट में भर के लाना होगा और महिलाओं के नाम से वितरित होगा. आज फिर पता चला कि सूची का आधार 2011 का सर्वे ही रहेगा और आज भी फ़ूड पैकेट नहीं बंटा…

विदित हो कि फ़ारबिसगंज प्रखंड की अनेक पंचायतें बुरी तरह से प्रभावित हैं. इसी प्रखंड के जोगबनी मीरगंज में इस त्रासदी में हुई मौतें और नदी में गाड़ियों से लाकर लाश फेंकने की घटना के बाद  समाचारों में शुर्खियों में थी.

फिर मैं चाचा इलियास अंसारी को सारथी बनाकर मोटरसाइकिल से 3 बजे के लगभग जोगबनी के लिए रवाना हुआ. रास्ते में बथनाहा के समीप साइफ़न के पास कोशी पूर्वी में कैनाल पानी के दबाव में टूट गई थी, जो अब बड़ी नदी का आकार ले चुकी है. उस कटान पर केले की नाव पर लोग पार हो रहे थे. उस पार प्लास्टिक डालकर लोग नहर किनारे शरण लिए हुए हैं.

केले की नाव पार कर आई एक महिला ने बताया कि वहां कोई शिविर नहीं है. न ही खाना पहुंचाया गया है. ये लोग भदेश्वर पंचायत के हैं.

मुखिया ने एक-दो दिन खाना ज़रूर बनावाया था. बाक़ी कुछ नही पहुंचा. आगे नहर के टेल एन्ड तक देखने के उपरांत पुनः बथनाहा बाज़ार की तरफ़ चल पड़े. सड़क टूटी फूटी… लोग अभी भी पन्नी में  जीवन को समेटे शरणार्थी बने दिख रहे हैं. उनकी दशा ही हमारे सवालों की जबाब थी और हमारे लिए सवाल थी. 

समौना पंचायत पीड़ित मीरगंज चौक पर शिविर की सुविधाओं को लेकर 30-40 की संख्या में  सरपंच व समिति को घेरे हुए थे. बार-बार दिलासा देकर जनप्रतिनिधि भाग निकलने की फ़िराक़ में थे. कुछ नौजवान लड़के अपने मोबाईल में उस दृश्य को क़ैद कर रहे थे.

हम लोग भी सरपंच की तरफ़ बढ़े और सवाल दागे कि इनके लिए क्या सुविधाए हैं. आफ़त में फंसी जान से छुटकारा पाने को बेचैन सरपंच अपनी मोटरसाइकिल चालू करते बताया कि यहां तीन शिविर चल रहे हैं. दोनो समय खाना बनता है. पूछने पर खाली छोटे आकार के टेंट की तरफ़ इशारा किया. यह पूछे जाने पर कि अन्य सुविधायें यहां क्या हैं. बोला —कुछ नहीं. हमें और कुछ नहीं मिलता. क्या करे?

पुनः तीसरे सवाल कि शिविर में क्या-क्या सुविधाएं मिलनी चाहिए. टालते हुए बोला —नहीं जानते. झट से एक पर्चा हम लोगों ने उसकी तरफ़ बढ़ाया और उपदेश देने लगे इसे पढ़ो. फिर क्या था, लोग हम लोगों को पर्चे लेने के लिए घेर लिए. एक-एक कर हम लोग भी लोगों को पर्चा देते रहे. इतना समय तो बहुत था, जन-प्रतिनिधिगण फुर्र हो गए थे.

जल्दी से हम लोग रामपुर पुल की तरफ़ बढ़े. जहां लाश ट्रैक्टर पर लादकर फेंकी जा रही थी. पूछने पर कि कुछ लोगों ने बताया कि यदि प्रशासन ऐसा नहीं करता तो दुर्गन्ध से हम लोग बीमार हो जाते.

मृतकों के बहने के कुछ अनुभवों को सुनकर जोगबनी की तरफ़ बढ़े. रास्ते मे वही तबाही का मंज़र था. रेलवे लाइन के नीचे से नदी की धारा बहने के कारण पटरियों में सीमेंट के कसे स्लीपर जगह-जगह लटक रहे थे. नदी का पानी थम रहा था. विध्वंस के चिन्ह चारों तरफं बिखरे थें लोग इन पटरियों पर 11 लोगों के डूबने की कहानियां बताए. पूछे जाने पर ये बाढ़ इतनी भयावह क्यों आई? पूरे रास्ते में अधिकतर लोगों ने कहा —चीन ने पानी छोड़ दिया. कुछ ने कहा कोशी बैराज के 56 फ़ाटक खोल दिए गए थे.

दोनों ही बातें झूठ व अफ़वाह थी, पर सचेतन ढंग से मोदी की प्रशंसा और सरकार की विफलता को छुपाने के लिए फैलाई गई थी. पर उसी में कुछ लोग बताने लगे कि परमान नदी के साथ, केसलिया, मुत्वा, ख़दीम इत्यादि का संगम मीरगंज में होता है. नदी के जल निकासी के मार्ग तंग व संकरे होते जा रहे हैं. तेज़ वर्षा से पानी रुकने के कारण तेज़ गति में तोड़ते विध्वंस करते निकलता है.

अब हम लोग भारत-नेपाल सीमा गेट पर खड़े थे. अंधेरा अपनी आगोश फैलाने लगा था. हम लोगों के सामने भी अंधेरा छाने लगा. यह अंधेरा पीड़ितों तक सरकारी राहत नहीं पहुंचने का था. आपदा से बड़ा आपदाग्रस्त तंत्र का था. तबाही के असली कारणों पर वोट व देश मे अंधविश्वास के फैलाए अफ़वाहों का था. तमाम नियमों के बावजूद मृतकों को फेंक देने की असंवेदनशील अमानवीय घटना का था. इन सभी के बावजूद बदलाव भटकते रास्ते का था. गहराते व गहन होते इन अंधेरों के बीच अधिकारों को बताने वाला पर्चा हाथ में समेटते वापस चल पड़े.

(लेखक कोशी नव निर्माण मंच के संस्थापक और जनांदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (NAPM) के राष्ट्रीय संयोजक हैं.)

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