क्या तीन तलाक़ के फौजदारी क़ानून से महिलाओं का भला होगा?

नासिरूद्दीन, TwoCircles.net के लिए


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अगर बीमारी की जांच-पड़ताल ग़लत होगी तो दवा भी ग़लत दी जाएगी.

क्या सारे सामाजिक दु:खों का सिर्फ़-सिर्फ़ एक इलाज है कि एक और नया क़ानून बना दिया जाए? वैसे, हर परेशानी के लिए नए क़ानून की बात करना या इसका ख्याल बहुत इंक़लाबी लगता है. मगर एक और नया क़ानून ज़िन्दगी की पेचीदगियों का हल दे ही देगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है. अब तीन तलाक़ के नाम पर भी नया क़ानून बनाने की चर्चा ज़ोरों पर हैं. 

मगर नए क़ानून से पहले यह देखना निहायत ज़रूरी है कि क्या बीमारी के इलाज के सारे मौजूदा उपाय नाकाम, नकारा या बेअसर हो गए हैं? तो क्या यह उपाय मुसलमान महिलाओं के दुखों का इलाज कर देगा? और क्या जो उपाय पहले से हैं, उनका कारगर इस्तेमाल किया गया है?

इकट्ठी तीन तलाक़ और सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला

महीनों गर्मागरम बहस और सामाजिक-राजनीतिक तनाव के बीच, इसी साल अगस्त में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने एक मजलिस की तलाक़ (तलाक़-ए-बिद्दत) को ख़ारिज कर दिया था. हालांकि वह यह काम दूसरे तरीक़े से 15 साल पहले भी कर चुका था. यानी क़ानूनी ऐतबार से इस तरह का तलाक़ अब हमारे देश में बेमानी है. यह लागू नहीं होगा.

फिर अचानक चंद दिनों से इस तरह के तलाक़ को रोकने के लिए एक क़ानून का ज़िक्र शुरू हो गया. कहा जा रहा है कि चूंकि कोर्ट के फ़ैसले के बाद ऐसे तलाक़ रुके नहीं हैं, इसलिए सख़्त क़ानून ज़रूरी है. ऐसा कहा जा रहा है कि यह सब मुसलमान महिलाओं के हक़ों की हिफ़ाज़त के लिए किया जा रहा है.

… तो सहज सवाल ज़ेहन में उठता है कि क्या तलाक़ का कोई नया क़ानून मुसलमान महिलाओं की चिंताएं ख़त्म कर देगा?  क्या यह नया क़ानून मुसलमान महिलाओं के हक़ों की हिफ़ाज़त की गारंटी कर देगा? मगर इस सवाल तक पहुंचने से पहले कुछ और बातें करनी ज़रूरी हैं.

हम इस तरह के तलाक़ का विरोध क्यों करते हैं?

हमारे मौजूदा समाज में आज भी ज्यादातर लड़कियों की ज़िन्दगी शादी से ही जोड़कर देखी जाती है. इस शादी के नतीजे के रूप में दुनिया में आई औलाद का लालन-पालन भी स्त्री की ही ज़िम्मेदारी मानी जाती है.

शादी वाले घर या पिया के घर में उसके पास अपना कहने, उस पर हक़ जताने और हक़ का इस्तेमाल करने के लिए बहुत कुछ नहीं रहता है. यहां तक कि शादी के साथ ही नैहर पर भी उसका हक़ ख़त्म मान लिया जाता है.

इसी वास्ते से तलाक़शुदा/विधवा जैसे लफ़्ज़ हमारे समाज में स्त्र‍ियों के लिए कलंक वाले माना जाते हैं. महिलाओं की यह शादीशुदा सामाजिक हालत उन पर एक नहीं वरन कई मुसीबतों की वजह बनती हैं. हमारे मुल्क की हर मज़हब की महिलाओं की ज़िन्दगी का यह कड़वा सच है.

ऐसे मर्दाना निज़ाम वाले समाज में एक मजलिस की तलाक़, लड़कियों को पल भर में बेसहारा बना दोराहे पर खड़ा कर देती है. दाने-दाने को मोहताज बना देती है. उसके लिए अपनी और अपनी औलाद की ज़िन्दगी गुज़र-बसर मुश्क‍िल हो जाती है. कुल मिलाकर वह सबके लिए अनचाही बन अधर में लटक जाती है.

एक मजलिस में दिया जाने वाला तलाक़ मनमाना भी है. इकतरफ़ा भी है. इसलिए गैर-इंसानी है. स्त्री मुख़ालिफ़ है. इंसाफ़ और बराबरी के मज़हबी उसूल के सख़्त ख़िलाफ़ है. यह रिश्ते में गैर-बराबरी पैदा करने वाला है और हिंसा की वजह है. इसलिए इसका ख़त्म होना ज़रूरी है. मगर इसके ख़त्म होने के साथ ही ज़रूरी है —सम्मान से ज़िन्दगी जीने की महिलाओं की हक़ों की हिफ़ाज़त की गारंटी.

तो मर्दों के जेल जाने से महिलाओं को सम्मानजनक ज़िन्दगी मिल जाएगी.

अब सवाल है, अगर किसी शौहर नामी मर्द ने एक साथ तीन तलाक़ दे दिया और ख़बर के मुताबिक़, नए क़ानून के तहत उसे सज़ा हो गई तो क्या इससे स्त्री को सम्मान से ज़िन्दगी जीने का हक़ मिल जाएगा? वह बेघर और बेसहारा नहीं होगी? उसकी संतान सड़क पर नहीं आएगी?

जैसे ही पारिवारिक मामला दीवानी से निकलकर फौजदारी केस बनता है, आमतौर पर वह रिश्ता टूटन की ओर ही बढ़ता है. इसीलिए आमतौर पर पारिवारिक मामलों में सलाह-मश्व‍िरा, बातचीत, झगड़े की हालत में मध्यस्थता की बात की जाती है. इस्लाम भी रिश्ते को पूरी तरह ख़त्म करने से पहले बातचीत की प्रक्रिया पर ज़ोर देता है.

सज़ा का मुद्दा तो आपराधि‍क मामलों में आता है. सोचने वाली बात है कि अगर एक मजलिस के तीन तलाक़ का मामला आपराधि‍क दायरे में आ गया तो वह रिश्ता जुड़ा रहेगा या टूटेगा?

यही नहीं, इसमें तो कई और एजेंसियों की दख़लंदाज़ी बढ़ जाएगी. जैसे —पुलिस.

मगर क्या तलाक़-ए-बिद्दत दोनों को हमेशा के लिए अलग कर देंगे… 

तलाक़ और तलाक़-ए-बिद्दत के मामले में सज़ा की पूरी सोच ही भ्रम से भरी है. इसका हमारे समाज और ख़ासकर स्त्र‍ियों की ज़िन्दगियों की ज़मीनी हक़ीक़त से कम ही वास्ता लगता है. एक मजलिस की तीन तलाक़ को अपराध बनाने और उसके लिए सज़ा तजवीज़ करने का मतलब क्या है? क्या इसका मतलब यह मान लेना नहीं है कि इकट्ठी तीन तलाक़ बोलने से तलाक़ प्रभावी हो गया? स्त्री-पुरुष में अब निकाह का क़रार हमेशा के लिए टूट गया? मगर इस मुल्क के संविधान के तहत अब ऐसा मुमकिन है?

चलन में चाहे जो हो, पर अब इस मुल्क के संविधान के दायरे में असल में ऐसा नहीं हो सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने 2002, 2017 में और कई हाईकोर्ट अपने फैसलों में साफ़ तौर पर कह चुके हैं कि इस इकट्ठा तीन तलाक़, तलाक़ ही नहीं होगा. तलाक़ बिना सुलह की प्रक्रिया और स्त्री की सम्मानजनक ज़िन्दगी की गारंटी किए बिना लागू नहीं होगी. तब इसके लागू होने का सवाल ही कहां उठता है.

इन फ़ैसलों की रोशनी में महिलाओं के हक़, पहले जैसे ही रहेंगे. उनके निकाह नहीं ख़त्म होंगे. वे तलाक़शुदा नहीं होंगी. मसला तो तब खड़ा होगा, जब कोई मर्द इस तरह तलाक़ आधार पर स्त्री से अपना पिंड छुड़ाना चाहेगा. उसे, उसके हक़ नहीं देगा. 

तो क्या ऐसे मामलों में हमारे मौजूदा क़ानून कोई रास्ता बताते हैं?

क्या मुसलमान महिलाओं के पास अभी कोई क़ानूनी रास्ता है?

जी. कई रास्ते हैं. बशर्ते आम महिलाओं को वे रास्ते पता हों और वे उनका इस्तेमाल कर पाने की हालत में हों.

पहली बात तो यही है कि अब तलाक़ का यह तरीक़ गैर-क़ानूनी है. इसका कोई असर नहीं होगा. उनकी शादीशुदा समाजी हालत पहले जैसी ही रहेगी. 

दूसरी बात, घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण विधेयक, घर के अंदर हिंसा से बचाने का दीवानी क़ानून है. हिंसा के ख़िलाफ़ दीवानी क़ानून महिला आंदोलन के लम्बे जद्दोजेहद और ज़मीनी हक़ीक़त से निकला क़ानून है. यह इस मुल्क की सभी महिलाओं को सबसे बड़ी और ज़रूरी क़ानूनी हिफ़ाज़त देता है. इसमें वह सारी बातें शामिल हैं, जो किसी भी स्त्री को किसी भी हालत में बेघर, बेसहारा और दाने-दाने का मोहताज होने से बचा सकती हैं. यह सम्मानजनक जीवन जीने के लिए ज़रूरी हर तरह के हक़ों की हिफ़ाज़त करता है. चूंकि, तलाक़ की धमकी या एक साथ तीन तलाक़ देना भी हिंसा की ही एक शक्ल है, तो यह उस हालत में भी लागू होगा.

सज़ा हो गई तो उनका क्या होगा, जो रिश्ता बचाना चाहते हैं…

यही नहीं, एक मजलिस की तीन तलाक़ की वजह से टूटती शादी में बड़ी तादाद उन लोगों की भी है, जो बाद में पछताते हैं. वे इस दर से उस दर शादी बचाने के लिए मत्था टेकते हैं. फ़तवा लाते हैं. यह ज़मीनी हक़ीक़त है. यानी वे ग़ुस्से या किसी और वजह से तलाक़ बोल तो देते हैं पर वे असलियत में अलग नहीं होना चाहते हैं. हलाला की वजह यही है.

एक मजलिस की तीन तलाक़ की छुरी की धार कुंद करने का अर्थ यही है कि ऐसे लोगों के रिश्ते टूटे नहीं ब‍ल्क‍ि रिश्ते बने रहे. हलाला जैसी अपमानजनक हालत से किसी महिला को न गुज़रना पड़े. अब अगर ऐसी हालत में ऐसे लोगों को जेल की सज़ा होगी तो क्या रिश्ते बने रहेंगे? महिलाओं का क्या होगा? क्या यह महिलाओं के साथ ज़ुल्म नहीं होगा?

और अगर रिश्ता ख़त्म ही होना है तब…

और अगर रिश्ता टूटना ही है या रिश्ते में हिंसा ही हिंसा है तो उस हालत में भी मौजूदा आपराधि‍क क़ानून बख़ूबी काम आएंगे. क्या पति या उसके परिवारजनों के उत्पीड़न से बचाव के लिए 498ए या इस तरह की दूसरी धाराएं मुसलमान महिलाओं पर लागू नहीं होती हैं? होती हैं न. शौहर का ज़ुल्म जुर्म है. उसके जुर्म की सज़ा उसे मिलनी चाहिए.

यही नहीं, अगर किसी वजह से रिश्ता ख़त्म हो गया तो शाहबानो केस के बाद तलाक़शुदा महिलाओं के लिए बना क़ानून भी है. अपने हक़ों की हिफ़ाज़त के लिए स्त्री उसका सहारा ले सकती है.   

हां, जिनकी ज़िन्दगियां इस ज़ालिमाना तलाक़ की वजह से तबाह हुई हैं, वे ज़रूर चाहेंगी कि तीन तलाक़ बोलने वालों को सज़ा मिले. उनका ग़ुस्सा जायज़ है. उनकी ज़िन्दगी का क़ीमती हिस्सा तबाह हुआ. मगर सवाल उनसे भी संवाद करने का है. यह कौन करेगा?

महिला अधि‍कार आंदोलन और ख़ासकर मुसलमान महिलाओं के साथ काम करने वाली तंज़ीमें भी क़ानून बनाए जाने के सवाल पर एक राय नहीं हैं. मुसलमान स्त्रियों की ज़िन्दगियों से सीधा वास्ता रखने वाली फ्लेविया एग्निस या रज़िया पटेल जैसी अनेक महिला अधि‍कार कार्यकर्ता, जल्दबाज़ी में उठाए गए ऐसे किसी क़दम के हक़ में नहीं हैं, जो महिलाओं को और मुसीबत में डाल दे. इनमें से कई तो जेण्डर समानता के आधार पर बने क़ानून के हक़ में हैं, लेकिन उस क़ानून की शक्ल क्या होगी इस पर भी सबकी एक राय नहीं है. इसलिए जल्दबाज़ी में महज़ तीन तलाक़ के लिए फौजदारी क़ानून बनाने का ख़्याल, अभी तो तार्किक नहीं लगता है.

वैसे, अगर महिलाओं के हक़ में वाक़ई कुछ होना ही है तो काफ़ी गौर ओ फिक्र के बाद सभी समुदायों के पारिवारिक निजी क़ानून को जेण्डर समानता की कसौटी पर कसने पर विचार करना चाहिए. ऐसा करने से पहले इस पर खुली चर्चा होनी चाहिए.

ज़ाहिर है, मुख़ालिफ़ आवाज़ भी होंगी. मगर भरोसे के साथ ईमानदारी से उठाए गए क़दम के साथ ढेरों खड़े भी होंगे. इस वक़्त तो सबसे बड़ा सवाल भरोसे का ही है. वैसे, डॉक्टर ईमानदार हो और उस पर भरोसा हो तो कड़वी से कड़वी दवा आसानी से पी जा सकती है.

इस सीरीज़ के पहले हिस्से को यहां देखा जा सकता है.

आख़िर तीन तलाक़ पर क़ानून की बात इसी वक़्त क्यों उठी? 

(नासि‍रूद्दीन वरिष्ठ पत्रकार/ शोधकर्ता हैं. सामाजिक मुद्दों और ख़ास तौर पर महिला मुद्दों पर लिखते हैं.) 

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