अदालत ने उत्तराखंड सरकार का हलफ़नामा नामंज़ूर किया

विद्या भूषण रावत


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उत्तराखंड की सरकार भूमिहीन दलित-आदिवासियों के सशक्तिकरण के प्रति कितना सजग है, इसका उदहारण तब मिला जब नैनीताल हाई कोर्ट में सुनवाई के दौरान उसके वकील को सरकारी अधिकारियों की ग़लत-बयानी के बचाव करने के लिए हाथ पांव एक करने पड़े.

ऐसा पिछली सुनवाई में भी हुआ, जो 9 नवम्बर को हुई थी. इसमें न्यायलय ने अपने 21 सितम्बर 2017 के आदेश से सम्बंधित हलफ़नामे की बात कही थी. उस समय सरकार ने कोई हलफ़नामा दाखिल नहीं किया और साथ ही साथ कोर्ट से कोई आवेदन भी नहीं किया कि वह ऐसा नहीं कर पा रही है.

मुख्य न्यायाधीश श्री के.एम.जोसफ़ ने इस पर गहरी नाराज़गी व्यक्त की थी और सम्बंधित अधिकारी के ख़िलाफ़ अवमानना के नोटिस निकालने की बात की थी.

अपने आदेश में उन्होंने ये भी लिखा था कि यदि सचिव राजस्व 12 दिसंबर 2017 तक हलफ़नामा दाखिल नहीं किया तो उन्हें सुनवाई के दौरान व्यक्तिगत तौर पर उपस्थित होना पड़ेगा और कौर्ट के सवालों का जवाब देना पड़ेगा.

आज जब न्यायलय में सुबह सुनवाई शुरू हुई तो सबसे पहले सरकार के द्वारा दाख़िल किए गए हलफ़नामे पर चर्चा की गई.

दरअसल, अधिकारी महोदय ने हलफ़नामा तो दो पेज का दिया, लेकिन उस पर क़रीब 300 पेज के अनेक्सर जोड़ दिए जो उनके द्वारा इस सन्दर्भ में पूरे प्रदेश के ज़िलाधिकारियो को लिखे गए पत्र और उनसे मांगी गई जानकारियां लगाईं गयी थी.

ये जानकारियां हर ज़िले में मौजूद सरकारी आंकड़ें थे, जिनको किसी भी तरीक़े से न तो विश्लेषित किया गया था और न ही समझाने की कोशिश की गई थी कि आख़िर कोर्ट ने जो सवाल पूछे थे, उनका उत्तर क्या है.

मुख्य न्यायाधीश के.एम. जोसफ़ और न्यायाधीश वी.के. बिष्ट ने इस मामले में बहुत सख्त रवैया अपनाया.

दोनों ने कहा के इस प्रकार के बेहुदे हलफ़नामे से कोर्ट का केवल क़ीमती वक़्त बर्बाद होता है. जस्टिस के. एम. जोसफ़ ने तो यहां तक कहा कि हम इस शपथ-पत्र को पूरी तौर पर नामंज़ूर करते है, क्योंकि न तो ये गंभीरता से बनाया गया है और न ही इसमें उन बातो का उत्तर है, जो सरकार से पूछे गए हैं.

मज़ाक़ में जस्टिस जोसफ ने ये भी कहा कि वह इस पूरे हलफ़नामें को रद्दी में नहीं फेंकेंगे, क्योंकि इतनी बड़ी संख्या में कागज़ के बर्बादी अच्छी नहीं है.

उन्होंने कहा कि वह कोर्ट अधिकारियों को कहेंगे कि इन कागज़ों को री-सायकल कर रफ़ नोट्स आदि के लिए दोबारा इस्तेमाल कर सके.

सरकारी वकील ने बताया कि उनके पास मौजूद दस्तावेज़ में बहुत कुछ अन्नेक्सर वह जमा नहीं कर पाए, लेकिन हक़ीक़त यह है कि अधिकारियों ने आंकड़ों की बाज़ीगरी और दस्तावेज़ों के नाम पर पटवारियों की रिपोर्ट लगाकर कोर्ट को गुमराह करने की कोशिश की है.

21 सितम्बर का कोर्ट का आदेश क्या है :

21 सितम्बर 2017 को जब सुनवाई हुइ तो जस्टिस के. एम. जोसफ़ और जस्टिस आलोक सिंह ने पर्याप्त समय देते हुए याचिका पर सुनवाई की और इस याचिका को एक नया मोड़ भी दे दिया.

उन्होंने न केवल याचिका का दायरा बढ़ाकर सम्पूर्ण उत्तराखंड कर दिया, बल्कि इसमें कई नए प्रश्न खड़े कर दिए जिनका जवाब देना अधिकारियों के लिए थोड़ा मुश्किल तो ज़रुर होगा, लेकिन हम समझते हैं कि ये प्रश्न उत्तराखंड में भूमि के प्रश्नों और दलित आदिवासियों के उन पर अधिकारों के हिसाब से बहुत महत्वपूर्ण बन गए हैं.

चीफ़ जस्टिस के.एम. जोसफ़ ने उत्तराखंड सरकार से पुछा :

1.       शहीद उधम सिंह नगर ही नहीं अपितु पूरे उत्तराखंड में सीलिंग सर-प्लस लैंड की स्थिति क्या है. पूरे आंकड़ों के साथ सरकार स्पष्ट करे.

2.       सीलिंग एक्ट की धारा —25 के अंतर्गत किन-किन लोगों और प्रतिष्ठानों को भूमि आवंटित की गई है और उसकी क्या शर्ते हैं.

3.       भूमि सुधार अधिनिनियम की धारा —27 के अंतर्गत क्या भूमि का सेटलमेंट किया गया है या नहीं और यदि हां तो कितना. पूरे प्रदेश के आंकड़े मांगे गए हैं.

4.       सरकार को एक एफिडेविट देकर बताना होगा कि उत्तराखंड में क्या कोई भी आदिवासी कृषि श्रमिक भूमिहीन है या नहीं और जिनको भूमि अधिनियम की धारा —198 के तहत ज़मीन का आवंटन नहीं हुआ है. दरअसल सरकार के वकील की दलील थी कि प्रदेश में कोई भी आदिवासी भूमिहीन नहीं है, इसलिए उत्तराखंड बनने के बाद किसी भी आदिवासी को भूमि आवंटित नहीं की गई है.

5.       सेक्शन —25 के तहत आवंटित भूखंडों के बारे में उनकी शर्तों के अलावा ये भी बताना होगा कि क्या वे स्थाई तौर पर दी गई है या अस्थाई.

अब अधिकारियों ने जो जवाब दाख़िल किए, उनमें बहुत चालाकी से मात्र ज़मीनों की स्थिति है और कोई ऐसा आंकड़ा नहीं है वो कब से लंबित है. जैसे सभी ज़िलों में सीलिंग की स्थिति बताई गई है और ये भी जानकारी दी गई कि कई मामले कोर्ट में लंबित हैं.

सवाल ये था कि सरकार ये बताए कि ये कोर्ट में कब से लंबित थे और किन-किन अदालतों में लंबित है तथा सरकार ने इन मामलों से निपटने के लिए क्या प्रयास किए.

अधिकारियों ने आंकड़ों में भी गड़बड़ की है और शपथ-पत्र में उस गड़बड़ी को मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जोसफ़ ने पकड़ लिया.

सरकार ने शपथ-पत्र में कोर्ट के पिछले आदेश के क्रमांक 4 और 5 के बारे में कोई जानकारी नहीं है. यानि पिछली बार सरकारी वकील ने कहा था कि प्रदेश में कोई भी व्यक्ति जो अनुसूचित जनजाति का नहीं है, जो भूमिहीन हो और अपने पिछले शपथ-पत्र में सरकार ने स्वीकार किया कि उत्तराखंड राज्य के गठन के बाद से अब तक सरकार ने एक भी आदिवासी को ज़मीन प्रदान नहीं की. इसके अलावा अनुसूचित जाति जिनकी आबादी उत्तराखंड में लगभग 17 फ़ीसद है, उन्हें भी ज़मीन नहीं मिली है.

सरकार को चाहिए कि वह उत्तराखंड के पहाड़ी इलाक़ों और तराई-भाबर के मैदानों में ज़मीनों और सामूहिक संशाधनों के स्थिति पर अपना पूरा विश्लेषण रखे और ये बताए कि इन दोनों स्थानों में क्या कोई भी व्यक्ति भूमिहीन नहीं है और यदि है तो क्या उनका तटस्थ आंकड़ा सरकार के पास है या नहीं ?

हम सब जानते हैं कि तराई में सीलिंग क़ानूनों के खुले तौर पर धज्जियां उड़ाई गई हैं और उनके चलते दलितों और आदिवासियों की ज़मीनों पर उत्तराखंड से बाहर के लोगों का कब्ज़ा है.

कई लोगों को सरकार ने विभाजन के बाद से 1947 में बसाया था, लेकिन बहुत बड़ी संख्या में लोगों ने बिना किसी सरकारी पत्रों के आदिवासियों की ज़मीनों पर क़ब्ज़ा किया है.

सीलिंग क़ानूनों की धज्जियां बिना किसी सांठ-गांठ के संभव नहीं है. अगर मैदानी इलाक़ों में सीलिंग क़ानूनों से सरकार ज़मीन ईमानदारी से ले लेगी तो उत्तराखंड में आपदा और अन्य कारणों से विस्थापित लोगों को जंमीन दी जा सकती है, लेकिन सरकार प्रयास तो करे.

फिलहाल न्यायलय ने अपनी नाराज़गी ज़ाहिर कर 27 फ़रवरी को अगली सुनवाई तक  के लिए सरकार को समय दिया है. हाँ, आदेश में न केवल इस शपथ-पत्र को ख़ारिज किया गया है, अपितु अगली बार उसे पूरी गंभीरता से इसे दाख़िल करने की बात कही गई है. और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अगली सुनवाई के दौरान प्रदेश सरकार के एक बड़े अधिकारी को हाई कोर्ट में जजों के जवाब देने के लिए व्यक्तिगत तौर पर उपस्थित भी होना पड़ेगा.

उत्तराखंड में अगर जुडिशियल एक्टिविज्म के ज़रिए ही भूमि सुधारों पर सरकार का ध्यान चला गया तो प्रदेश में एक नए दौर के शुरुआत होगी. जब राजनैतिक दल जनता के मुद्दों से भटकते हैं तो जनता के पास न्याय प्रक्रिया के ज़रिए ही न्याय पाने के अलावा कोई चारा नहीं है.

उम्मीद है कि अगली बार सरकार गंभीर दिखेगी. हम साफ़ तौर पर ये मानते हैं कि यदि सरकार ने इच्छा शक्ति दिखाई तो उत्तराखंड में राजनैतिक तौर पर भी उनके लिए ये बहुत बड़ी उपलब्धि होगी. उम्मीद है सरकार को बात समझ आएगी और उत्तराखंड में भूमि-सुधार ईमानदारी से लागू होंगे.

(लेखक दलित विमर्शकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं. ये उनके अपने विचार हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.)

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