मुज़फ़्फ़रनगर दंगे की इस तस्वीर का सच : अलीजान ‘ज़िन्दा’ हैं…

आस मुहम्मद कैफ़, TwoCircles.net


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मुज़फ़्फ़रनगर : मुज़फ्फरनगर दंगे की ये वीभत्स तस्वीर आपको ज़रूर याद होगी. यह तस्वीर दुनिया भर में मुज़फ़्फ़रनगर दंगे की पहचान बन चुकी है, ठीक उसी तरह जैसे गुजरात दंगों के बाद कुतबुद्दीन अंसारी की हाथ जोड़कर ज़िन्दगी की भीख मांगते तस्वीर बन गई थी.

2013 के चार साल बाद TwoCircles.net ने इस बुजुर्ग और इन दोनों बच्चों को तलाश लिया है. बुज़ुर्ग और बुज़ुर्ग हो गए हैं और बच्चे थोड़े और बड़े. तीनों की ज़िन्दगी में अभी भी मुज़फ़्फ़रनगर दंगे और वो लम्हें जब उन्हें जान बचाने के लिए अपना घर छोड़ना पड़ा था, अभी भी ताज़ा हैं.

76 साल के इस शख़्स का नाम मोहम्मद अलीजान सैफ़ी है और यह कुटबा गांव के रहने वाले हैं. कुटबा वही गांव है, जहां मुज़फ़्फ़रनगर दंगे में अल्पसंख्यकों के विरुद्ध सबसे पहले समूहबद्ध हिंसा शुरू हुई थी. कभी यहां सैकड़ों मुसलमान रहते थे, लेकिन अब यहां उनके खंडहर घर हैं और वीरान मस्जिदें हैं.

अलीजान मियां का परिवार पलड़ा गांव के बाहर दंगा शरणार्थियों के लिए बनी कॉलोनी में रहता है.

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उनके बेटे वसीम कहते हैं, दंगों में घर छूट गया. अपने मार दिए गए लेकिन अब्बा पिछले एक साल से रोज़ सुबह 8 बजे घर से निकलते हैं और 4 किमी दूर कुटबा चले जाते हैं. हम नहीं चाहते हैं वो ऐसा करें, मगर पूरे खानदान के समझाने के बाद भी वो नहीं मानते हैं.

दरअसल, अलीजान मियां की दुकान अभी भी कुटबा गांव में ही है. वो यहां एक खाली पड़े  घेर (बड़ी जगह जहां जानवर बांधे जाते हैं) के एक कमरे में वो तेज़ आग वाली भट्ठी में लोहा दहका रहे हैं. यहां वो खेती के औज़ारों की मरम्मत करते हैं.

लोहे पर उनके हथौड़े की ज़ोरदार चोट कहां-कहां लगती है, हम इसे समझने की कोशिश करते हैं. तक़रीबन 6 फुट के बेहद ताक़तवर क़द-काठी के अलीजान 76 साल की उम्र में भी लोहे के सरिये को हाथ से मोड़ देते हैं. वो अपने इस काम में इस क़दर मग्न हैं कि हमारी तरफ़ नज़र उठाकर देखा तक नहीं.

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पास खड़ा उनका पोता नदीम कहता है, ‘बाबा! मेहमान आएं हैं.’ वो नज़रे उठाकर हमें देखते हैं और फिर अपने काम में लग जाते हैं. उस लोहे की 5 मिनट पिटाई करने के बाद अब वो हमारे साथ पास रखी एक चारपाई पर बैठते हैं.

हम पूछ लेते हैं —जब पूरा परिवार आपको मना करता है तो आप अकेले यहां क्यों आ जाते हैं. क्या आपको डर नहीं लगता?

अलीजान कहते हैं कि 20 से ज़्यादा लोगों ने दरख़्वास्त की. मंत्री (संजीव बालियान) जी तक बात गई. बार-बार कुछ लोग बुलाने जाते थे. एक ने पैर पकड़ लिया. मैंने उसके सर पर हाथ रख दिया…

यह कहते हुए वो उठते हैं और बराबर के एक घर में चाय के लिए कह आते हैं. मैं पूछता चाय हूं कि ये लोग बना देंगे?

अलीजान बताते हैं, ‘चाहे मेरे दस मेहमान आ जाएं, सबको चाय मिलेगी.’

थोड़ी देर में चाय के साथ-साथ बिस्किट भी आ जाता है. वो बताते हैं, ‘हमारा गांव बहुत अच्छा था. जब यहां मुसलमान रहते थे, जाट लोग उनकी हर तरह से मदद करते थे और मुसलमान उनके लिए हर वक़्त तैयार रहता था. मगर एक ही दिन ने सबकुछ बरबाद कर दिया…’

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मैं उनको उनका फोटो दिखाता हूं और पूछ लेता हूं कि आप रोने क्यों लगे थे?

अलीजान एकदम से भावुक हो जाते हैं. बुरी तरह से रोने लगते हैं. हम सहम जाते हैं. फिर वो अपनी आंखों से आंसू पोछते हुए कहते हैं, ‘रोता तो अब भी हूं. इसलिए नहीं कि उस दिन मेरे अपनों का क़त्ल हुआ था, बल्कि इसलिए भी उस दिन के बाद मेरे गांव की इज़्ज़त पर कलंक लग गया…’

अलीजान की बात हमें अंदर तक छील जाती है, जब वो फोटो खिंचवाते वक़्त सर्दी से बचने की गर्म टोपी उतार कर जेब से दूसरी टोपी पहनते हैं और कहते हैं, ‘मैं मुसलमान हूं. डरता नही हूं. मर तो उसी दिन गया था. अब बार-बार भी कोई मरता है क्या?’

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हमारे फोटो लेने के बाद वो फौजी और देवेंद्र कहकर दो लोगों को आवाज़ देते हैं. दोनों तुरंत ही हाज़िर हो जाते हैं.

देवेंद्र बताते हैं, उस दिन गांव में बाहर के लोग आए थे. उन्होंने शराब पी रखी थी. कुछ लोग बहक भी गए. बहुत बुरा हुआ. हमें दुख है. ऐसा नहीं होना चाहिए था.

फौजी बताते हैं, मेरे बच्चे पुलिस में हैं. कुटबा का नाम सामने आते ही लोग उनसे सवाल पूछते हैं.

वो कहते हैं कि अच्छे लोगों को जाट-मुसलमानों के बीच फिर से एकता के लिए आगे आना चाहिए.

वो बताते हैं कि, कल मुलायम सिंह यादव ने एक पंचायत बुलाई थी, जिसमें मुज़फ़्फ़रनगर के प्रमुख जाट और मुस्लिम लोगों ने शिरकत की. अब लोग फैसले की बात कर रहे हैं.

जब हम फिर से अलीजान के घर के लिए चलते हैं तो उनका पोता नदीम भी हमारे साथ होता है. वो रास्ते में हमें कहता है कि, ‘लोग हमारे घर के मर गएं, फ़ैसला मुलायम सिंह कैसे कर लेंगे.’ 

बुजुर्ग अलीजान की बीवी मीना हमें बताती हैं, हमने उन्हें गांव में जाकर काम करने के लिए बहुत मना किया, मगर वो नहीं माने. घर वालों को बिना बताए चले गएं. मैं पूछती हूं कि मुसलमानों के बहुत से गांव हैं, उसी गांव में जाना ज़रूरी है क्या. ज़ख़्म ताज़े हो जाते हैं.

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कभी अलीजान की गोद में डरे-सहमे बैठे दोनों बच्चे अब थोड़े समझदार हो गए हैं. इनमें लविश अब 8 साल का है और रिहान की उम्र अब 7 साल है. लविश अब तीसरी क्लास में पढ़ता है और रिहान दूसरी में.

उसके चाचा वसीम हमसे बताते हैं कि, ‘ये दोनों कुटबा गांव में सीबीएससी के अच्छे स्कूल में पढ़ते थे. स्कूल बीच में छोड़ना पड़ गया तो लविश अपने स्कूल की यूनिफार्म देखकर रोता था.’

लविश हमें बताता है कि, ‘वो स्कूल अच्छा था. उसमे मेरा एक दोस्त अमित भी था.’ रिहान कम बोलता है, मगर 8 साल के लविश की गंभीरता आपको चोंका देगी.

वो कहता है, ‘बहुत सारे लोगों ने हम पर हमला कर दिया था. मेरी किताबें भी जल गई थी. बस यूनिफार्म बच गई. हमें मिलिट्री लेकर आई थी.’

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इसी कॉलोनी में एक घर के दरवाज़े पर वही तस्वीर लगी है और फिर इस पर तिरंगा भी लहरा रहा है. हम ऐसे एंगल से फोटो लेते हैं, जिसमें दोनों चीज़ें एक फ्रेम में आ जाए. यह दोनों चीज़ें तो एक फ्रेम में आ जाती हैं, मगर मुल्क की सियासत है कि सब मज़हब के लोगों को एक फ्रेम में नहीं आने दे रही…

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