सम्भल : यहां ओवैसी नहीं बर्क़ का है जलवा

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCirles.net

सम्भल : यूपी के सम्भल में ओवैसी फैक्टर काम कर रहा है. ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (मजलिस) के उम्मीदवार ज़ियाउर्रहमान बर्क़ की स्थिति खासी बेहतर नज़र आ रही है. वे सपा के उम्मीदवार और कैबिनेट मंत्री नवाब इक़बाल महमूद को कड़ी टक्कर देते नज़र आ रहे हैं. जानकारों की नज़र में ज़ियाउर्रहमान जीत की स्थिति में भी हैं.


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दरअसल लोगों का मानना है कि ये जलवा ज़ियाउर्रहमान का नहीं, बल्कि उनके दादा शफ़ीकुर्रहमान बर्क़ का है. 86 साल के डॉ. शफ़ीक़ुर्रहमान बर्क़ संभल सीट से 1974, 1977, 1985 और 1989 में विधायक रह चुके हैं. 11वीं, 12वीं, 14वीं व 15वीं लोकसभा चुनाव में संभल से सांसद भी बने. 2014 लोकसभा चुनाव में बतौर सपा प्रत्याशी भाजपा के सत्यपाल सिंह से 5174 वोटों के अंतर से चुनाव हार गए.

इन सबके बावजूद इलाक़े में उनका दबदबा आज भी अच्छा-खासा है और अपने पोते की जीत के लिए उन्होंने भी दिन-रात एक कर दिया है. आखिर इन्हें इक़बाल महमूद से 2014 के चुनाव में हुए अपनी हार का बदला जो लेना है. दरअसल शफ़ीकुर्रहमान बर्क़ ये मानते हैं कि 2014 में उनकी हार की सबसे बड़ी वजह इक़बाल महमूद थे. बकौल शफ़ीकुर्रहमान, इकबाल अहमद अपनी पार्टी के प्रत्याशी को वोट दिलवाने के बजाय उलटा इन्हें हरवाने में लगे हुए थे. इधर ओवैसी भी 86 साल के शफ़ीक़ुर्रहमान बर्क़ के सहारे यूपी चुनाव में अपनी पार्टी का खाता खोलने के लिए अपनी पूरी ताक़त यहां झोंक देना चाहते हैं. वो यहां दो बार अपनी चुनावी सभा कर चुके हैं.

दीपासराय मुहल्ले में रहने वाले 48 साल के मुस्लिम नोमानी का कहना है, ‘सम्भल की सियासत में पिछले 50 साल से दो ही सियासी लोग हावी रहे हैं. यहां से चार बार बर्क़ साहब विधायक रहे हैं, तो तीन बार नवाब इकबाल महमूद के पिता मरहूम नवाब महमूद विधायक रहे. वहीं अब इक़बाल महमूद पिछले पांच बार से सम्भल के विधायक बनते आए हैं.’

वो आगे बताते हैं, ‘सपा, बसपा, रालोद और मजलिस चारों ने यहां मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है. कहीं ऐसा न हो जाए कि इनकी लड़ाई में भाजपा बाजी मार ले जाए. वैसे सम्भल का नौजवान यक़ीनन ओवैसी की तरफ़ है और जियाउर्रहमान को सिर्फ़ बर्क़ का पोता होने की वजह से वोट मिलेगा.’

दीपासराय के बग़ल के नखासा मुहल्ले में रहने वाली 40 साल की खैरून निशा बताती हैं, ‘अब तक साईकिल को ही वोट दिया है, लेकिन इस बार लोग पतंग को बोल रहे हैं. तो इसको भी देकर देख लेते हैं.’

खैरून निशा आगे बताती हैं, ‘हम औरतों के पास तो कोई उम्मीदवार वोट मांगने भी नहीं आता है. कभी-कभी नेताओं के घर की औरतें आ जाती हैं, तो हमारा ही खर्च बढ़ता है. अब घर पर कोई आया है तो चाय पिलाना तो बनता ही है. वैसे भी ये औरतें कम ही आती हैं.’

लेकिन उनकी 22 साल की बेटी मरयम निशा, जो इस चुनाव में पहली बार वोट करेंगी, कहती हैं कि उनका वोट तो अखिलेश को ही जाएगा. क्यों? इस सवाल पर उनका कहना है, ‘उसने काम किया है. मुझे खुद भी लैपटॉप मिला है. स्कॉलरशिप मिला है. और वैसे भी सरकार ओवैसी की बननी नहीं है और वो नए-नए यूपी में आए हैं.’

इसी मुहल्ले में 19 साल के मो. आतिफ़ भी पहली बार मतदान करेंगे. आतिफ़ की पसंद ज़ियाउर रहमान बर्क़ हैं. वो बताते हैं, ‘ओवैसी की तक़रीर पहली बार सुनी है, काफी अच्छी बातें कही थी. वो कह रहे थे कि आपस में क्यों लड़ते हो. सब एकजुट हो जाओ. वोट चाहे जिसे भी दो.’

नखासा में बिरयानी की दुकान चलाने वाले हाजी परवेज़ का कहना है, ‘हमारा वोट तो पतंग छाप को जाएगा.’ क्यों? इस पर वो बोलते हैं, ‘बर्क़ का नाम ही काफी है यहां.’ क्यों ओवैसी के नाम आप नहीं जानते? वो तुरंत बोलते हैं, ‘ये कौन है? मैं किसी ओवैसी को नहीं जानता. सम्भल वाले सिर्फ़ बर्क़ साहब को जानते हैं.’

शंकर चौराहा के क़रीब राजा मार्केट में एक दुकानदार तेजभान का कहना है, ‘हम चाहते हैं कि सम्भल का विकास हो. आज तक सम्भल का ज़िला मुख्यालय ही तय नहीं हो पाया है.’ लंबी बातचीत में तेजभान मोदी और अखिलेश को भी निशाने पर लेते हैं. लेकिन उनका मानना है कि बहन जी के राज में प्रशासन चुस्त-दुरूस्त रहता है. आखिर में वो ये भी कहते हैं, ‘हम सकून से जीना चाहते हैं, लेकिन ये नेता लोग हमें जीने नहीं देते.’

वहीं 82 साल के भस्सू सिंह कहते हैं, ‘बचपन से आज तक सम्भल में कुछ भी बदलते नहीं देखा, हां! सिर्फ़ यहां की जनसंख्या बढ़ी है. शासन तो कांग्रेस का ही अच्छा रहता है, इस मोदी ने तो देश को डुबा दिया. अब बताइए मेरे बाज़ार में शिव कुमार के जनधन योजना वाले खाते में 44 हज़ार रूपये थे, और बैंक वालों ने उसका खाता ही सील कर दिया.’

एक उर्दू अख़बार से जुड़े पत्रकार साद नोमानी बताते हैं कि यहां सपा थोड़ी ताक़तवर है लेकिन लोगों की शिकायतें बहुत हैं. 20 साल से विधायक हैं, 10 साल से मंत्री हैं, लेकिन इन्होंने यहां के युवाओं के रोज़गार के लिए कुछ भी नहीं किया. इन शिकायतों की बुनियाद पर लोगों का झुकाव मजलिस की ओर अधिक है. और वैसे भी नौजवान ओवैसी को ज़्यादा पसंद करते हैं, लेकिन शिक्षित लोग ओवैसी के ख़िलाफ़ हैं.

बताते चलें कि सम्भल विधानसभा सीट से इस बार 9 उम्मीदवार मैदान में हैं. मजलिस ने ज़ियाउर्रहमान, सपा ने इक़बाल महमूद, भाजपा ने डॉ. अरविन्द, बसपा ने रफ़तुल्लाह, रालोद ने क़ैसर अब्बास और जनशक्ति दल ने नेम सिंह जाटव को चुनावी मैदान में उतारा है. इसके अलावा अजय कुमार, फरहाद व संतोष कुमारी बतौर निर्दलीय प्रत्याशी अपनी क़िस्मत आज़मा रहे हैं.

सम्भल विधानसभा से 2012 में यहां सपा के इक़बाल महमूद की जीत हुई थी. उन्हें कुल 79,820 वोट मिले थे. दूसरे नंबर पर रहने वाले भाजपा प्रत्याशी राजेश सिंघल को 49,773 वोट हासिल हुए थे. वहीं 46,220 वोट लाकर बसपा के रफ़तुल्लाह तीसरे नंबर पर थे.

सम्भल की लड़ाई इसलिए भी दिलचस्प है कि क्योंकि शफ़ीक़ुर रहमान बर्क़ सपा व बसपा दोनों ही जगह रह चुके हैं. इनके पोते को दोनों ही पार्टियों से टिकट न मिलने के कारण वो ओवैसी की पार्टी में शामिल हुए हैं. मजलिस इनके लिए तीसरी पार्टी है. यहां से मजलिस की हार-जीत का गणित कुछ हद तक आगे की राजनीत में मुस्लिम वोटों के रूझान पर भी असर डाल सकता है. यहां मतदान 15 फरवरी को है.

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