आस मोहम्मद कैफ, TwoCircles.net
लखनऊ: दारुल उलूम के मुफ्ती अब्दुल क़ासिम नोमानी ने साफतौर पर कह दिया है कि वे दारुल उलूम की परिधि में आने वाली किसी भी राजनीतिक हस्ती से मुलाकात नही करेंगे. भले ही वह हस्ती कितनी ही बड़ी क्यों न हो? यह पूछे जाने पर कि अगर वह हस्ती आज़म खान और नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी हों तो, इस पर उन्होंने कहा, ‘कोई भी हो’, उनका फैसला नहीं बदलेगा.
उन्होंने कहा कि दारुल उलूम के दरवाजे अकीदतमंदों के लिए खुले हैं और सियासतमंदो के लिए बंद. मुफ्ती अब्दुल कासिम नोमानी दारुल उलूम के महाप्रबन्धक हैं और
दारुल उलूम को आधार बनाकर राजनीतिक रोटी सेंकने वालों से नाराज़ हैं. आसपास के इलाकों के मुसलमानों ने उनके इस क़दम का जोरदार खैर-ए-मकदम किया है.
वैसे दारुल उलूम के संस्थापक परिवार से ताल्लुक रखने वाले और सहयोगी संस्था जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के राष्ट्रीय अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी अक्सर समाजवादी पार्टी के मंचों पर दिख जाते है. 2014 में उन्होंने कहा था कि भारत के मुसलमानों को भाजपा को हराने के लिए एकजुट होकर वोट करना चाहिए, जिस पर बेहद नकारात्मक प्रतिक्रियाएं आई थीं. अरशद मदनी के भतीजे मौलाना महमूद मदनी भी रालोद से राज्यसभा सांसद रहे हैं और नरेंद्र मोदी के प्रति अपने नरम मिजाज को लेकर चर्चा में रहते है. एक और भतीजे मौलाना मसूद मदनी उत्तराखंड सरकार में राज्यमंत्री रहे हैं और एक भाई मौलाना असजद मदनी भी सियासत में सक्रिय हैं.
ऐसे में दारुल उलूम के इस ऐलान के बाद ऐसा लग रहा है कि दारुल उलूम ने भीतर की गतिविधियों को बंद करने के बजाय बाहर वालों को अल्टीमेटम दे दिया है.
दारुल उलूम ने पत्रकारों को जानकारी देते हुए बताया है कि इस बार चुनावी माहौल में सामाजिक आस्था केंद्र दारुल उलूम देवबंद की चौखट पर सियासी दलों के नुमाइंदे हाज़िरी नहीं लगा सकेंगे. दारूल उलूम देवबंद ने चुनावी नतीजों तक किसी भी सियासी दल के बड़े नेता या फिर प्रतिनिधि से मुलाकात नहीं करने के संकेत दिए हैं, दारुल उलूम के मुताबिक चुनावी माहौल में सियासी दलों की मंशा रहती है कि वह दारूल उलूम में हाज़िरी लगाकर कुछ सियासी लाभ हासिल कर लें.
इस फैसले के पीछे इस्लामिक शिक्षा की इस संस्था को सियासत से पूरी तरह अलग रखना ही प्रमुख कारण माना जा रहा है. दरअसल इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उत्तर प्रदेश की अधिकांश विधानसभा सीटों पर विधायकों को चुनने में मुस्लिम मतदाताओं का रोल भी अहम होता है. यही कारण है कि मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने के लिए चुनाव से पहले हमेशा से ही सियासी जमातों के नुमाइंदे दारुल उलूम देवबंद का रुख करते रहे हैं.
इतना ही नहीं, कई सियासी दल उलेमा-ए-देवबंद का आशीर्वाद लेकर सरकार बनाने में कामयाब रही हैं. संभव है कि इस बार भी कुछ सियासी दल इसकी योजना बना रहे होंगे. ऐसे सियासी दलों के लिए खबर है कि इस बार उनकी यह मंशा परवान चढ़ने वाली नहीं है क्योंकि मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने के लिए सियासी जमातों का यह रास्ता अब बंद होता दिखाई दे रहा है.