नासिरूद्दीन
इसमें दो राय हो ही नहीं सकती कि नीतीश कुमार ने अपने लिए जो फैसला किया, वह बिहार के विधानसभा चुनाव के जनादेश के ख़िलाफ़ है. जनादेश किसी एक पार्टी को नहीं, बल्कि महागठबंधन को मिला था. नीतीश उस महागठबंधन के महज़ नुमाइंदा थे. इसीलिए चुनाव के दौरान वे जनता दल-यूनाइटेड के नहीं बल्कि इसी महागठबंधन के लीडर थे.
महागठबंधन सिर्फ़ दलों का मेल नहीं था…
महागठबंधन का ख़ास सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक आधार था. इस आधार का ख़ास तरह का वैचारिक ताना-बाना था. जीत का बड़ा सेहरा उस आधार से उपजे अंकगणित को जाता है. इस आधार के साथ, बहुत बड़ी तादाद में उन लोगों ने अपनी ताक़त लगाई जो महागठबंधन का हिस्सा तो नहीं. हां, वे बिहार के समरस सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने को नफ़रत की राजनीति से ज़रूर बचाना चाहते थे. महागठबंधन को भरोसेमंद बनाने, उसे ज़मीनी स्तर तक ले जाने, उसे जीत के दरवाज़े तक पहुंचाने में इन सबका ज़बरदस्त योगदान था.
सामाजिक- वैचारिक सांचे में ढली एकजुटता…
जो लोग बिहार विधानसभा चुनाव को नज़दीक से देख रहे थे, वे देख सकते थे कि ज़मीन पर राष्ट्रीय जनता दल- जनता दल यूनाइटेड और कांग्रेस किसी मोर्चे के घटक के रूप में मैदान में नहीं थे. वे महागठबंधन के रूप में एक ठोस इकाई के रूप में जनता के सामने पेश थे. ऐसा तालमेल आमतौर पर हाल के दिनों में किसी मोर्चे या गठबंधन में नहीं दिखाई दिया है.
एक ही जगह से सीटों के बंटवारे की घोषणा हुई. एक ही जगह से सभी घटक दलों के उम्मीदवारों की घोषणा की गई. सभी का प्रचार एक साथ हुआ. प्रचार गाड़ी पर सभी के झंडे एक साथ लगे. यानी यह महागठबंधन एक ख़ास सामाजिक-वैचारिक सांचे में ढाला और गढ़ा गया. इस महागठबंधन की पतवार नीतीश कुमार के हाथ में दी गई. कुछ लोगों को तब भी संदेह था, लेकिन बाक़ियों ने भरोसे की नींव डालने की कोशिश की. वह भरोसा जनता ने तोड़ा नहीं. बिहार की जनता ने जो दिखाया, वह देश के बड़े हिस्से को ताक़त दे गया.
बिहार ने इससे पहले इतना ज़हरीला चुनाव प्रचार नहीं देखा था. बिहार ने इससे पहले इतना खुला साम्प्रदायिक प्रचार भी नहीं देखा था. पहली बार, बिहार में गांव-गांव में नफ़रत के बीज बोने की कोशिश हुई. इन सबके ख़िलाफ़ वे आम लोग खड़े हुए जो महागठबंधन के किसी दल से नहीं जुड़े थे. इसका फ़ायदा महागठबंधन के हक़ में गया. नतीजे की शक्ल में बिहार ने नफ़रत की राजनीति को सीधे तौर पर नकार दिया था. देश भर में फैल रही नफ़रत की बाढ़ को बिहार ने ढाल बनकर रोकने का काम किया. इसीलिए रातों-रात नीतीश नफ़रत विरोधी मुहिम के नायक बन गए. तो दूसरी ओर, नफ़रत की राजनीति करने वालों के दिलों में बिहार कांटे की तरह चुभ गया.
नीतीश कुमार का महागठबंधन तोड़ देना- इसीलिए बड़ी घटना है. इसकी गूंज बिहार और देश में देर तक सुनाई देगी. यह राष्ट्रीय जनता दल या कांग्रेस के साथ ‘धोखा’ या ‘गद्दारी’ का मसला नहीं है. अगर है भी तो बहुत जर्रा बराबर. यह लगभग पौने दो करोड़ लोगों के साथ छल है. इसमें समाज के सभी तबक़े के लोग और ख़ासतौर पर ग़रीब, महिलाएं, दलित, महादलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक शामिल हैं. और इन सब ने विकास के वास्ते, नफ़रत के ख़िलाफ़ और उससे लड़ने के लिए महागठबंधन और उसके अगुआ के रूप में नीतीश पर अपना क़ीमती वोट न्योछावर कर दिया था. अगर धोखा हुआ है तो इन सबके साथ हुआ है. नीतीश तो असल में इन सबके मुजरिम हैं.
नीतीश को महज़ विकास के नाम पर वोट नहीं मिला था. पूर देश में ‘विकास’ का दावा करने वाले और ‘विकास’ के नाम पर केन्द्र की सत्ता में आने वाले तो महागठबंधन के मुक़ाबिल थे. अगर महज़ ‘विकास’ का वोट मिलना था तो उनको मिलता. उनकी पहचान वही थी. लाखों का पैकेज तो उनके पास था.
महागठबंधन के पास विकास तो था मगर उसके साथ संविधान के मूल्यों की हिफ़ाज़त का वादा भी था. इन्हीं में नफ़रत/साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़, धर्मनिरपेक्षता नाम के मूल्य की हिफ़ाज़त भी शामिल था. पिछड़ों और दलितों के हक़ों की हिफ़ाज़त शामिल था. इसलिए वोट सिर्फ़ विकास के नाम पर नहीं, इन सबके नाम पर मिला था.
महागठबंधन ने इंसानियत की हिफ़ाज़त और उसके विकास का वादा किया था. वोट इसलिए मिला था. ख़ौफ़ के ख़िलाफ़ वोट था. इसीलिए नीतीश का महागठबंधन तोड़ना… महज़ दलों का या नेता का अलग होना नहीं है.
नीतीश उस ख्वाब को तोड़ने के मुजरिम के रूप में याद किए जाएंगे जो बरास्ते बिहार नफ़रती सियासत पर रोक लगाने की उम्मीद जगाए था. राहुल गांधी, लालू प्रसाद या तेजस्वी का क्या होगा, यह सवाल बहुत छोटा है. ये अपना ख्याल रखने के क़ाबिल हैं.
सवाल है, उन लाखों की उम्मीदों का क्या होगा जिनकी नींद 26 जुलाई की रात नीतीश कुमार के एक क़दम ने चुरा ली. एक क़दम ने आबादी के बड़े हिस्से को ख़ौफ़ और गैर-यक़ीनी सूरतेहाल के गर्त में डुबो दिया. ऐसा नहीं है कि नीतीश इन सबसे वाक़िफ़ नहीं होंगे.
उनके पुराने साथी, उन्हें चाणक्य मानते हैं. नीतीश कुमार को यह बख़ूबी पता है कि इसका ज़हनी असर क्या होगा. मगर शायद नीतीश को यह भान नहीं है कि पिछले चुनाव के बाद बिहारी समाज में नफ़रत के बीज गहरे बोने की भरपूर कोशिश की गई है. चुनाव बाद उसके संकेत कई जगह देखने को भी मिले हैं. सवाल है, क्या वे उस बीज को सींचने और लहलहाने से रोक पाएंगे? वह फ़सल नीतीश, लालू या राहुल पर असर नहीं डालेगी… वह ग़रीब, दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक बिहारियों पर असर डालेगी. इस ‘विकास’ की ज़िम्मेदारी कौन लेगा?
हर पार्टी या नेता अपनी राह चुनने को आज़ाद है. उसे यह आज़ादी होनी ही चाहिए. मगर अपनी आज़ादी के लिए दूसरों को छलना, शायद वाजिब तरीक़ा नहीं है. नीतीश महागठबंधन से आज़ाद होने को आज़ाद थे, मगर क्या बिहारी जनता को छलने को भी आज़ाद हैं? क्या यह छल नहीं है कि जिन लोगों को ‘नफ़रती विकास’ का जनादेश नहीं मिला, उनके साथ ‘विकास’ के नाम पर महागठबंधन तोड़ कर गठबंधन बना लिया जाए? इस महागठबंधन ने जो उम्मीद जगाई थी, उसके टूटने की ज़िम्मेदारी कौन लेगा?
नीतीश कुमार भले ही वही हों पर उन्होंने जिन पुराने दोस्तों के साथ ‘विकास’ की ताज़ा राह पकड़ी है, वे काफ़ी बदल चुके हैं. अब वहां कोई मुखौटा नहीं है. इसलिए अबकी बार का गठबंधन वैसा ही नहीं चलेगा, जैसा पिछली बार चला था. यानी वे बिहार में अब एक नई राजनीति के सूत्रधार होंगे. नई राजनीति की शक्ल किस तरह की होगी, यह बहुत कुछ नीतीश कुमार पर निर्भर करेगा. अब उन पर महागठबंधन से ज्यादा बड़ी ज़िम्मेदारी आन पड़ी है.
नीतीश कुमार अक्सर गांधी जी को याद करते हैं. याद रखना चाहिए कि गांधी जी ने नफ़रत से लड़ने के लिए समझौता नहीं किया. अकेले पड़ गए पर समझौता नहीं किया. और राम का नाम लेते हुए नफ़रत की गोली झेल गए. यही नैतिकता और नैतिक बल होता है. क्या हमारे दौर में गांधी के इस कर्म का कोई मायने हैं?
मगर क्या सिर्फ़ नीतीश कुमार पर बात कर बिहार से निकली बहस ख़त्म की जा सकती है? क्या महागठबंधन से बाहर होने के लिए अकेले नीतीश ही ज़िम्मेदार हैं?
(नासिरूद्दीन वरिष्ठ पत्रकार हैं. सामाजिक मुद्दों पर लिखते रहे हैं. कई दिनों तक पत्रकारिता करने के बाद अब पूरा वक़्त लेखन को दे रहे हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.)