दलितों और अल्पसंख्यकों की फेलोशिप पर होगा इस बदलाव का असर

अरविंद कुमार और दिलीप मंडल

नीयत यानी इंटेंशन अगर सही नहीं हो तो भारतीय दर्शन परंपरा में महिमामंडित न्याय और नीति का समागम भी समतामूलक आदर्श समाज की संरचना नहीं कर सकता.


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विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट) में एससी, एसटी, ओबीसी व विकलांग वर्ग को दिये जाने वाले आरक्षण के नियम में भारी बदलाव किया है. नए नियम के अनुसार अब केवल 6 प्रतिशत कैंडिडेट्स को ही नेट परीक्षा में सफल घोषित किया जाएगा और उसके बाद विषयवार रिज़र्वेशन दिया जाएगा.

यूजीसी ने ऐसा नियम केरल हाई कोर्ट के जनवरी में दिये गए उस निर्णय के अनुपालन में बनाया है, जिसमें कोर्ट ने आरक्षित समूह के कैंडिडेट्स को दिये जाने वाले कट ऑफ मार्क्स में छूट को अनारक्षित वर्ग के कैंडिडेट्स के ख़िलाफ़ भेदभाव पूर्ण क़रार दिया था. हाई कोर्ट के इस निर्णय के अनुपालन में यूजीसी ने एक कमेटी बनाई है, जिसने पिछले दो दशक के अपने डाटा के अध्ययन में पाया है कि पिछले दो दशक से लगभग 68-92 प्रतिशत आरक्षित वर्ग के कैंडिडेट्स ने नेट की परीक्षा पास की है, जबकि सभी वर्गों को मिलाकर औसतन 5.5-6 प्रतिशत कैंडिडेट ही नेट परीक्षा पास करते हैं.

ऐसे में इस कमेटी ने सुझाव दिया है कि सबसे पहले कुल 6 प्रतिशत कैंडिडेट्स को ही नेट परीक्षा में पास होने दिया जाये, और उसके बाद उस 6 प्रतिशत में चयनित कैंडिडेट्स में से ही कैंडिडेट ढूंढकर विषयवार नेट पास करने का सर्टिफिकेट दिया जाए. इस मामले में केन्द्रीय रिज़र्वेशन प्रणाली पहले 6 प्रतिशत के चयन पर लागू ना करके, केवल विषयवार लिस्ट तैयार करने में लागू की जाएगी. यह पूरा मामला उत्तर प्रदेश के त्रिस्तरीय आरक्षण के मामले जैसा दिखता है.    

यदि हम यूजीसी के पूर्ववर्ती नियम की बात करें तो उसके तहत सबसे पहले एससी, एसटी, ओबीसी व विकलांग वर्ग कैंडिडेट्स को विषयवार रिज़र्वेशन देकर, कुल 15 प्रतिशत सफल कैंडिडेट्स की एक सूची तैयार की जाती रही है. इस क्रम में इन वर्गों के कैंडिडेट्स को कट ऑफ़ मार्क्स में कुछ छूट भी मिलती रही है, और सबसे अंत में सभी विषय की सूची को मिलाकर कुल 15 प्रतिशत कैंडिडेट्स को सफल घोषित किया जाता रहा है. केरल हाईकोर्ट ने यूजीसी के इसी नियम को अनारक्षित वर्ग के कैंडिडेट्स के प्रति भेदभावकारी क़रार देते हुए, जनवरी माह में इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया था.   

यदि हम इस पूरे मामले की गंभीरता से तहक़ीक़ात करें तो पता चलता है कि केरल हाईकोर्ट के निर्णय का बहाना बनाकर यूजीसी की यह पूरी क़वायद, संवैधानिक तौर पर आरक्षण ना पाये समुदायों को 50.5 प्रतिशत का अघोषित आरक्षण देना है, जिसकी शुरुआत यूजीसी दो वर्ष पूर्व ही कर चुकी है.

विदित हो कि पिछले दो वर्षों से यूजीसी नेट/जेआरएफ़ (जूनियर रिसर्च फेलोशिप, जिसके तहत रिसर्च करने वालों को हर महीने 25,000 रुपए की फेलोशिप मिलती है)  का जो सर्टिफिकेट जारी कर रही है, उसमें कैंडिडेट की कैटेगरी का उल्लेख किया जा रहा है. अपने इस क़दम से यूजीसी आरक्षित वर्ग के कैंडिडेट्स को सामान्य सीटों पर अप्लाई करने से रोकने की कोशिश कर रही है, क्योंकि नेट सर्टिफिकेट पर जाति लिखे होने से भेदभाव होने की आशंका बहुत ज्यादा हो जाती है.

अपने इस इंटेशन यानी नीयत को यूजीसी केवल क़ानूनी जामा पहना कर लागू करना चाहती थी. केरल हाईकोर्ट के निर्णय ने उसे अपने इस अभियान में सफल होने का मौक़ा दिया है. वरना, सामान्य परिपाटी यह रही है कि सरकारी नीति के ख़िलाफ़ हाई कोर्ट के जिस निर्णय को देशव्यापी असर हो, उसे सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज किया जाता है, और वहां से निर्णय होने के बाद भी उसे केंद्र सरकार की सहमति से ही लागू किया जाता है, क्योंकि अगर केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से संतुष्ट ना हो तो संसद में क़ानून बनाकर उसे बदल सकती है. इस मामले में यूजीसी सुप्रीम कोर्ट में अपील तक करना मुनासिब नहीं समझा.

इस पूरे मामले की सुप्रीम कोर्ट में अपील ना करके यूजीसी ने एक असंवैधानिक कृत्य है, क्योंकि यह सर्वविदित है 50.5 प्रतिशत सीट, उन जातियों/वर्गों जिनको संवैधानिक आरक्षण नहीं मिला है, के लिए आरक्षित ना होकर, सभी जाति, धर्म, भाषा, लिंग के लोगों के लिए खुली हैं. इस आलोक में केरल कोर्ट का यह मानना कि जनरल कैटेगरी का मतलब आनारक्षित जातियों/वर्गों से है, असंवैधानिक है.

बदलाव से आरक्षित वर्ग पर पड़ने वाला नकारात्मक प्रभाव

नेट परीक्षा में चयनित व्यक्ति ही सहायक प्रोफ़ेसर बन सकता है और इसी परीक्षा के माध्यम से भारत सरकार जूनियर रिसर्च फ़ेलोशिप (जेआरएफ़) भी देती है. इसके अलावा विश्वविद्यालय/महाविद्यालय में चयन से लेकर प्रमोशन तक में यूजीसी ने एपीआई सिस्टम लागू किया है, जिसमें नेट व जेआरएफ़ को अलग से मार्क्स दिया जाता है.

यदि नए नियम से आरक्षित वर्ग के कैंडिडेट्स चयन में कमी आती है, तो उसका नकारात्मक प्रभाव उपरोक्त मामलों में भी दिखाई देगा और इस बात की पूरी आशंका है कि चयन में नियम के बदलाव से यह कमी आएगी ही क्योंकि नेट परीक्षा जो कि साल में दो बार होती थी, 2017 में केवल एक बार होगी.

यदि ऐसा होता है और पास प्रतिशत 15 से घटाकर 06 होता है, तो ज़ाहिर है कुल कैंडिटेट का कम चयन होगा और जब कम कैंडिडेट का चयन होगा, और उसके बाद विषयवार रिज़र्वेशन लागू किया जाता है तो इस बात की प्रबल आशंका रहेगी कि किसी विषय में आरक्षित वर्ग के कम कैंडिडेट मिलें, किसी में ज्यादा. ऐसे में यह ख़तरा आरक्षित वर्ग के साथ ज्यादा बना रहेगा कि किसी विषय में सीटें ही खाली चली जाए.

कुल मिलाकर इस बदलाव का एक परिणाम यह होगा कि आरक्षित वर्ग के कैंडिडेट्स का उनकी सीट की तुलना में कम चयन हो सकता है. जिसके परिणाम स्वरूप इन वर्गों के कम कैंडिडेट सहायक प्रोफेसर हेतु मिलेंगे. चूंकि इसी परीक्षा के माध्यम से जेआरएफ़ दिया जाता है तो इस बात की भी प्रबल संभावना होगी कि कम कैंडिडेट को जेआरएफ़ मिले.   

यूजीसी ने अभी हाल ही में विवादास्पद यूजीसी गज़ट अधिसूचना-2016 में बदलाव किया है और इस बदलाव के अनुसार देश भर के सभी विश्वविद्यालयों को तीन श्रेणियों में बाँट दिया गया है. श्रेणी तीन में आने वाले विश्वविद्यालयों के लिए यह अनिवार्य कर दिया है कि वो केवल नेट/स्लेट पास कैंडिडेट को ही अपने यहां एमफिल/पीएचडी में दाखिला दे सकते हैं. ज़ाहिर है कि इससे ग्रामीण परिवेश के ख़ासकर आरक्षित वर्ग के कैंडिडेट्स के शोध क्षेत्र में आने वाले दरवाज़े बंद हो जाएंगे या फिर कम हो जाएंगे.

इसका एक असर यूजीसी द्वारा दी जाने वाली अन्य फेलोशिप पर भी पड़ेगा. एससी, एसटी और ओबीसी को मिलने वाली नेशनल फेलोशिप, जिसका पुराना नाम राजीव गांधी नेशनल फेलोशिप (आरजीएनएफ़) था. अल्पसंख्यक छात्रों को मिलने वाली मौलाना आज़ाद फेलोशिप और हर कैटेगरी के छात्रों को मिलने वाली आईसीएसएसआर डॉक्टरल फेलोशिप के लिए अप्लाई करने की शर्त यह है कि कैंडिडेट का एमफिल या पीएचडी में एडमिशन हो. एडमिशन के लिए शर्तों को सख्त करके इस बात की व्यवस्था कर दी गई है कि ये फेलोशिप क्लेम ही न हो या कम क्लेम हो.

कुल मिलाकर, सरकार बेशक नॉलेज इकोनॉमी की बात कर रही है, लेकिन व्यवहार में वह उच्च शिक्षा का दायरा सीमित कर रही है. इसकी मार हर तबके पर पड़ेगी, लेकिन सबसे बुरी मार समाज के ऐतिहासिक रूप से वंचित समूहों पर पड़ेगी.

(अरविंद कुमार सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज़, जेएनयू में रिसर्च स्कॉलर हैं. दिलीप मंडल पत्रकार हैं.)

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