‘बहुत संभाल रहा हूं अपने आपको, लेकिन ज़िन्दगी नहीं संभल रही है’

सिराज माही, TwoCircles.net

नोएडा : नोएडा सेक्टर-62 से लगा हुआ इलाक़ा, जिसे लोग खोड़ा कॉलोनी के नाम से जानते हैं. यहां अक्सर आपको मोनू जैसे लड़के मिल जाएंगे जो पढ़ने-लिखने की उम्र में नोएडा की कंपनियों में जी तोड़ मेहनत करते हैं और अपने परिवार का सहारा बनते हैं.


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वो उम्र के उस मोड़ पर अपने मां-बाप और घर को छोड़कर आते हैं, जब एक युवा अपने घर पर रहकर हाई स्कूल या इंटर की पढ़ाई करता है और मां-बाप के प्यार से नवाज़ा जाता है.

सुबह तैयार होकर नोएडा की एक स्पोर्ट्स कंपनी में काम करने लिए जाते हुए मोनू बताते हैं कि, मेरे पिता हमें तब छोड़कर गए जब हम कक्षा चार में पढ़ते थे. हमारा परिवार पिता जी के ही भरोसे था. उनका जाना, हमारे परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ने जैसा था.

मोनू घर में अपने भाई-बहनों में सबसे बड़े हैं, इसलिए तक़रीबन सभी ज़िम्मेदारियां उनके ऊपर ही आ गईं हैं. उस वक़्त छोटी सी उम्र में वह मज़दूरी करते थे और अपनी पढ़ाई करते थे. इतना काम करने के बावजूद वह शाम को भैंसों की देखभाल भी करते थे. इसके साथ ही उनकी मां भी मज़दूरी करती थीं. दोनों के पैसों से घर का ख़र्च चलता और मोनू की पढ़ाई के लिए पैसे का इंतज़ाम होता.

नम आंखों से अपने पिछले दिनों को याद करते हुए मोनू आगे बोताते हैं कि, जब घर पर रहकर परिवार का गुज़ारा मुश्किल हो गया तब हमने दिल्ली आने की ठानी.

वह बताते हैं कि, जब दिल्ली आया तब नोएडा की एक कंपनी में मैंने काम करना शुरु किया. यहां मेरी तन्ख़्वाह 5500 रुपए महीना थी. मैं रोज़ आठ घंटे ड्यूटी करने के बाद तीन-चार घंटे ओवर टाईम करता. चार महीने जी तोड़ मेहनत करने और सारे ख़र्च निकालने के बाद मैं सिर्फ़ 10 हज़ार रुपए ही बचा सका था.

मोनू ने जब हिसाब लगाय तो पाया कि शहर में आकर तो उसका घाटा हो गया. मोनू के हिसाब से अगर वह घर पर रहकर हर दिन इतनी मेहनत करते तो वह तीन महीने में 24 हज़ार रुपए ज़रूर कमा लेते. क्योंकि गांव में हर दिन मज़दूरी का 200 रुपए मिलता है. इस लिहाज़ से हर महीने 6 हज़ार रुपए बनते हैं. मोनू को लगा कि गांव और उसके साथ अपनों को छोड़कर बड़ी भूल की. इसके बाद उन्होंने गांव जाने की ठानी.

मोनू बताते हैं कि पिछली कंपनी में काम करते हुए मुझे एक आदमी मिला जिसने नोएडा की ही एक बड़ी स्पोर्ट्स कंपनी में काम लगवाया. यहां उनकी तन्ख़्वाह आठ हज़ार रुपए थी. ओवर टाईम का भी ज़्यादा पैसा मिलता था. यहां मोनू हर महीने ड्यूटी के साथ ओवर टाइम करके 15 हज़ार रुपए कमा लेते थे.

इसके बाद तन्ख़्वाह बढ़ी और 9 हज़ार रुपए महीने हो गई. अब मोनू हर महीने 16 हज़ार रुपए कमा लेते थे. यह वक़्त मोनू के लिए सबसे बेहतर था.

मोनू के लिए सबसे दुखद दिन वह था, जब वह इस बार दिवाली पर घर गए. घर से जब मोनू लौटे तब तक उनकी नौकरी छूट चुकी थी. ठेकेदार ने ज़्यादा छुट्टी करने के चलते उनको काम से हटा दिया था.

मोनू बताते हैं कि कभी सोचा नहीं था कि परिवार से मिलने की इतनी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ेगी. क़रीब दो महीना घूमने के बाद मोनू ने दोबारा एक कंपनी में काम करना शुरू किया है. अब यहां आठ हज़ार रुपए तन्ख़्वाह है, ओवर टाईम का पैसा ज़्यादा नहीं है. लेकिन फिर भी वह 8 हज़ार रुपए हर महीने घर भेज देते हैं.

मोनू को हमेशा यह ग़म सताता रहता है कि उनके पिता जी ज़िन्दा नहीं हैं. मोनू का मानना है कि अगर पिता जी ज़िंदा होते तो हमें यूं दर-दर न भटकना पड़ता. वह गांव में ही रहकर पिताजी और अपने परिवार के साथ खुश रहते. लेकिन सोचा हुआ कब पूरा होता है.

मोनू आगे बताते हैं कि फ़िलहाल घर पर सब ठीक चल रहा है. घर पर दो भैंसे हैं, जिनका दूध बेचकर घर का ख़र्च चल रहा है. खेत और हमारी कमाई से भाई-बहन की पढ़ाई चल रही है.

वह कहते हैं कि हमारी ज़िन्दगी तो ख़राब हो गई, लेकिन मैं अपने भाई-बहन की ज़िन्दगी ख़राब नहीं होने दूंगा. उन लोगों को मैं उतना पढ़ाउंगा जितना वह पढ़ना चाहते हैं. वह भी क्या याद करेंगे कि मेरा भी कोई भाई था.

बताते चलें कि मोनू उत्तर प्रदेश के ज़िला हरदोई के करवा गांव के रहने वाले हैं. अपनी बेचैनी बताते हुए मोनू आगे कहते हैं कि यार, मन बहुत परेशान रहता है. यहां अकेला रहता हूं, हर काम ख़ुद ही करना पड़ता है. घर पर होते तो कम से कम रोटी बनी बनाई मिलती. जब कंपनी में मालिक डांट लगाता है तो मन करता है, सब कुछ छोड़कर भाग जाऊं. लेकिन मजबूर हूं. लेकिन ज़िम्मेदारियां निभाने के चक्कर में फंसा पड़ा हूं. बहुत संभाल रहा हूं अपने आपको. लेकिन ज़िन्दगी नहीं संभल रही है.

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