सिद्धांत मोहन, TwoCircles.net
वाराणसी: ऐसा क्या हुआ कि एक सीट भी मुश्किल से जीतने वाली भाजपा सभी सीटें निकाल ले गयी? बनारस में यह चर्चा इस समय यह चर्चा आम है और कोई भी इस समीकरण को पूरी तरह से सफल नहीं हो सका है. और यह भी कहा जा सकता है कि यह नासमझी इस वक़्त उन लोगों के भीतर सबसे ज्यादा है, जो इस चुनाव में भाजपा की विरोधी पार्टियों के साथ खड़े हुए हैं, क्योंकि भाजपा से गहराई से जुड़े लोग इस तथ्य को बखूबी जान रहे हैं.
पहले शहर के बाहर की सीटों पर बात करें. पिंडरा सीट को बाहुबली विधायक अजय राय की सीट माना जाता रहा था. अजय राय पहले सपा से भाजपा में आए फिर वे कांग्रेस में चले आए. परिसीमन के दौरान कोलअसला सीट को काटकर पिंडरा सीट बनायी गयी. किसी भी विधायक के लिए अविजित सीट मानी जाती रही इस सीट पर इस बार अजय राय तीसरे स्थान पर खिसक गए. ऐसा क्यों हुआ? इसलिए हुआ कि अजय राय इस सीट पर बहुलता में मौजूद पटेल और भूमिहार वोटों को साध पाने में नाकाम रहे. भाजपा के विजेता प्रत्याशी अवधेश सिंह भूमिहार हैं और अपना दल (सोनेलाल) से जुड़ी और केन्द्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल के जमीनी काडर का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने पटेल वोटों को अपनी ओर करने की कोशिश की. चुनाव के पहले के दौरे में यह साफ़ होता जा रहा था कि अजय राय के नाम ‘आरक्षित’ मानी जाने वाली इस सीट पर इस बार अजय राय मुसीबत में हैं. क्योंकि अजय राय ने भूमिहार वोटों को लेकर यह अंदाज़ लगाया था कि वे उनकी झोली में ही रहेंगे, बाकी वोटों को प्रभावित करने के लिए राहुल गांधी की एक जनसभा भी आयोजित की गयी थी. लेकिन अवधेश सिंह पूरे समय यह प्रसारित करते रहे कि इस सीट पर उन्हें नहीं बल्कि नरेंद्र मोदी को चुनाव लड़ना है. लोकसभा में मोदी द्वारा अजय राय को मिली बुरी हार को भी अवधेश सिंह यह कहकर भुनाते रहे कि जिसको हराकर हमने विकास का रास्ता चुना है, उन्हें फिर से हराकर हमें विकास का रास्ता चुनना है. इन सभी समीकरणों का नतीजा यह निकला कि जहां भूमिहार वोट बंटकर बड़े हिस्से के साथ अवधेश सिंह के पास चले गए, वहीँ पटेल वोट भी दो बराबर हिस्सों में बंटकर अवधेश सिंह और बसपा के बाबूलाल के पास चले गए. और इसका नतीजा यह निकला कि अवधेश सिंह ने 90,614 वोटों के साथ जीत दर्ज की.
इसके बाद वोटबैंक को गड़बड़ा देने वाली शहर की तीनों सीटों पर आएं तो इन सीटों को सबसे ज्यादा लाभ मिला नरेंद्र मोदी की तीनदिनी बनारस यात्रा का. कैंट सीट पर सबसे ज्यादा मुस्लिम मतदाता हैं. लेकिन बसपा के रिज़वान अहमद उनकी पसंद नहीं बन सके. उनके वोट का अधिकतर हिस्सा कांग्रेस के प्रत्याशी अनिल श्रीवास्तव के पास गया. लेकिन सपा-कांग्रेस गठबंधन और राहुल-अखिलेश का रोड-शो तब ध्वस्त हो गया जब भाजपा के कुख्यात प्रत्याशी सौरभ श्रीवास्तव ने 1,32,609 वोट पाए. दूसरे स्थान पर रहने वाले अनिल श्रीवास्तव से लगभग 60 हज़ार ज्यादा वोट. राहुल-अखिलेश का रोड शो इस विधानसभा की मुस्लिमबहुल इलाके से होकर गुजरा था लेकिन यह दुर्भाग्य है कि मुस्लिमों के अलावा लगभग सारे वोटों का बड़ा हिस्सा भाजपा की ओर चला गया. एक और रोचक तथ्य जो सपा और कांग्रेस से जुड़े लोग भूल रहे हैं, वह ये है कि मोदी ने गंगापार रामनगर का भी दौरा किया था. आधा रामनगर कैंट विधानसभा में आता है और अनिल श्रीवास्तव की पकड़ और उनका जनसंपर्क कार्यक्रम इस इलाके में नहीं फ़ैल सका, जिसकी वजह से उन्हें हिन्दू वोटों का भी नुकसान झेलना पड़ा.
शहर उत्तरी ऐसी सीट है, जिस पर समय बीतने के साथ भाजपा की पकड़ मजबूत बनती गयी. इस सीट पर रवीन्द्र जायसवाल चुनाव लड़ना तो नहीं चाहते थे लेकिन पार्टी और संगठन की ख्वाहिश थी कि वे चुनाव लड़ें. इसलिए वे लड़े. उत्तरी सीट पर रवीन्द्र जायसवाल का सीधा मुकाबला गठबंधन के प्रत्याशी अब्दुल समद अंसारी से था. चूंकि इस इलाके में बुनकरों की संख्या मजबूत है, इसलिए समद अंसारी रवीन्द्र जायसवाल को टक्कर देते हुए दिख रहे थे. लेकिन यहां ने रवीन्द्र जायसवाल ने बसपा के प्रत्याशी सुजीत मौर्या के वोटबैंक में सेंध लगाना शुरू कर दिया. लोकल स्तर पर वे इस पर काफी हद तक सफल भी होते गए और रही-सही कसार प्रधानमंत्री मोदी के रोड-शो ने पूरी कर दी. रवीन्द्र जायसवाल ने इस सीट पर 1,16,017 वोटों के साथ जीत दर्ज की, जबकि गठबंधन के प्रत्याशी अब्दुल समद अंसारी 70,055 वोट पा सके. अपने वोट भाजपा के हाथ गंवाने के बाद बसपा के सुजीत मौर्या ने 32,574 वोट पाकर तीसरे स्थान पर रहे. यहां यह बात गौर करने लायक है कि 2012 के विधानसभा चुनावों में रवीन्द्र जायसवाल सुजीत मौर्या से महज़ 1700 वोटों के अंतर से जीत दर्ज कर सके थे.
मतगणना के दिन आखिरी वक़्त तक शहर दक्षिणी की सीट फंसी रही. बनारस के पूर्व सांसद राजेश मिश्रा इस सीट पर कांग्रेस की ओर से खड़े थे. चूंकि इस सीट पर ब्राह्मण वोटों की बहुलता के साथ-साथ इस सीट के पूर्व विधायक श्यामदेव राय चौधरी का टिकट काटा जाना, नीलकंठ तिवारी की अलोकप्रियता और राजेश मिश्रा का बड़ा नेता होने को राजेश मिश्रा के पक्ष में गिना माना जा रहा था. बसपा के प्रत्याशी राकेश त्रिपाठी ने इस चुनाव में करोड़ों रूपए खर्च किए लेकिन वे इस सीट पर तीसरे स्थान पर शुरू से माने जा रहे थे. इस चुनाव नतीजे में कांग्रेस प्रत्याशी राजेश मिश्रा का आखिरी वक़्त पर 15 हजार वोटों से हारना समझाता है, कि अलोकप्रिय नेता नीलकंठ तिवारी को नरेंद्र मोदी के दौरे का लाभ मिला है. और इसी वजह से वे सीट निकालने में सफल हुए हैं. वोटों का यह अंतर और भी ज्यादा बड़ा होता यदि मतदान के दिन यह खबर नहीं उड़ती कि श्यामदेव राय चौधरी ने संन्यास ले लिया है. इस अफवाह का कुछ फायदा राजेश मिश्रा को मिला, और कुछ वोट उनकी झोली में आ गिरे.
बनारस में समाजवादी पार्टी की कब्र रोहनिया और सेवापुरी की विधानसभा सीटों पर खुदी. सेवापुरी पर कैबिनेट मंत्री सुरेन्द्र पटेल खड़े थे, जबकि रोहनियां सीट पर उनके भाई महेंद्र सिंह पटेल. दूर से देखने पर सेवापुरी सीट पर सपा मजबूत लग रही थी, लेकिन नरेंद्र मोदी के दोनों आदर्श ग्राम यानी नागेपुर और जयापुर सेवापुरी ब्लॉक में मौजूद हैं. सेवापुरी में छोटे-छोटे गांवों में संघ की मदद से भाजपा ने जमीनी स्तर पर जनसंपर्क कार्यक्रम कराया. लोग धीरे-धीरे भाजपा से जुड़ते गए. इस इलाके में न मोदी ने रैली की न कोई रोड-शो. अलबत्ता बसपा ने ज़रूर इस इलाके में जनसंपर्क कार्यक्रम को जोर दिया हुआ था. यह स्पष्ट तो नहीं है लेकिन यही वजह मानी जा रही है कि संघ के जनसंपर्क कार्यक्रम की वजह से अपना दल(सोनेलाल) के नीलरतन पटेल को इस सीट पर पचास हजार वोटों से भी ज्यादा वोटों से जीत मिली है. रोहनिया अनुप्रिया पटेल की पुरानी सीट रही है लेकिन इस बार इस सीट पर भारतीय जनता पार्टी के सुरेन्द्र नारायण सिंह खुद खड़े थे. अनुप्रिया पटेल की मां निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में खड़ी थीं, और उन्हें सहानुभूति के 9549 वोट मिल भी गए लेकिन इस सीट पर सुरेन्द्र नारायण सिंह को भी फायदा मिला अनुप्रिया पटेल के जमीनी काडर का.
शिवपुर और अजगरा दो ऐसी सीटें हैं, जो दलितबहुल हैं. भाजपा के जीते प्रत्याशी इसकी तस्दीक भी करते हैं. शिवपुर के दलितों ने सोचा था कि लोकसभा की तरह गलती नहीं करेंगे और इस बार बहनजी को वोट देंगे. लेकिन शिवपुर ने बसपा से हाल में ही भाजपा में गए अनिल राजभर ने उनके वोटों पर कब्जा कायम कर लिया. चूंकि बचे-खुचे ओबीसी वोटों को साधने के लिए बैठे हुए सपा के आनंद मोहन गुड्डू यादव कुछ यादव वोट समेट पाए लेकिन फिर भी 50 हजार वोटों के अंतर के साथ में दूसरे स्थान पर खिसक गए. इस सीट पर बसपा भी दलित वोटों को साधने की फ़िराक में नहीं दिख रही थी. बसपा को लगा कि दलितों का चिर-परिचित वोट तो उन्हें मिल ही जाएगा, बचे-खुचे भूमिहार भी मिल जाते हैं तो फायदा होगा. इसलिए बसपा ने वीरेन्द्र सिंह को टिकट दिया. कुछ हद तक वीरेन्द्र सिंह इस रणनीति में सफल भी हुए लेकिन दलित वोट बसपा के पुराने नेता अनिल राजभर की झोली में गिर गए और यह सीट उन्होंने जीत ली. मोदी के दौरे का भी उन्हें लाभ मिला और हार का अंतर बढ़ गया. अजगरा सीट पर सोनकर समुदाय के वोटों के बंटवारे ने यह सीट भाजपा की झोली में डाल दी है. 2012 से यह सीट तो बसपा के बड़े नेता त्रिभुवन राम की थी, लेकिन सपा और भाजपा दोनों ने सोनकर प्रत्याशी उतार दिए. मोदी ने दौरा किया और हार-जीत के अंतर में बीस हजार का फर्क आ गया. त्रिभुवन राम पिछली बार 60 हजार वोटों के साथ चुनाव जीते थे, लेकिन इस बार वे 52 हजार वोट ही पा सके. दूसरे स्थान पर रहने वाले सपा के लालजी सोनकर ने 62,429 वोट पाए और जबकि विजेता प्रत्याशी कैलाशनाथ सोनकर इस सीट पर 83,778 वोट पाकर सफल हुए. कैलाशनाथ सोनकर की जीत के बारे में यह भी कहा जा रहा है कि उन्हें कुछ संख्या में ओबीसी वोट मिले हैं. और यदि ऐसा सचमुच में हुआ है, तो यह विजय में दस से पंद्रह हजार ओबीसी वोट बड़ा अंतर डाल सकते हैं.
मायावती ने इवीएम में गड़बड़ी होने की आशंका जता दी है. इस पर अब बात भी होने लगी है. भाजपा की जीत का कयास लगाया गया था लेकिन इतनी बड़ी जीत का अंदाज़ शायद पार्टी को भी नहीं था. बनारस की आठों सीटें अब भाजपा के पास हैं. कल होली बीती है और कई जगहों पर भाजपा के जत्थे केसरिया होली अभी भी खेल रहे हैं और जश्न मना रहे हैं. नारा भी लगा रहे हैं – ‘एक ही नारा एक ही नाम, जय श्री राम जय श्री राम.’