अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net
सिद्धार्थनगर: छोटी-छोटी कोशिशें हमारे आसपास कितना बदलाव ला सकती हैं, ऐसी कई मिसालें दुनिया के कोने-कोने से अक्सर देखने और सुनने को मिलती हैं. ऐसी ही एक कहानी पूर्वी उत्तर प्रदेश से बेहद पिछड़े ज़िलों में शुमार सिद्धार्थनगर ज़िले में आकार ले रही है. इस शहर के कुछ नौजवान अपनी कमाई का एक छोटा-सा हिस्सा निकालकर एक जगह जमा करते हैं और हर महीने समाज के अंतिम आदमी की पहचान कर उसे आर्थिक मदद देते हैं. यह मदद बेहद मामूली होती है लेकिन इसे पाने वाले के लिए किसी बड़ी राहत से कम नहीं होती है.
साल 2013 के रमज़ान महीने की बात है जब ज़िला मुख्यालय की सबसे बड़ी बद्र मस्जिद में बैठे एक नौजवान वकील सरफ़राज़ नज़ीर को ग़रीबों के लिए कुछ करने का ख़्याल आया. सरफ़राज़ के साथ तीन-चार दोस्त थे जो इस गुत्थी को सुलझाने में लगे हुए थे कि कैसे शहर में किसी ज़रूरतमंद की मदद की जा सकती है. फिर तय हुआ कि हम सभी दोस्त अपनी आमदनी का एक हिस्सा हर महीने जमा करेंगे और जहां कहीं भी कोई आर्थिक मदद मांगेगा, जमा रक़म उसे ले जाकर दे देंगे. सरफ़राज़ कहते हैं कि हमारी इस कोशिश में इक्का-दुक्का लोगों की मदद की गुंजाइश थी लेकिन हमें लगा कि मदद छोटी हो या बड़ी, होती तो मदद ही है.
चूंकि सरफ़राज़ के ज़ेहन में यह सारी उथल-पुथल मस्जिद में इबादत के दौरान चल रही थी, इसलिए उन्होंने अपनी इस मुहिम को ‘बैतुलमाल’ नाम दिया. बैतुलमाल इस्लामिक बैंकिंग का एक रूप है जिसमें रुपए जमाकर ज़रूरतमंदों की मदद की व्यवस्था होती है.
इस तरह सिद्धार्थनगर ज़िला मुख्यालय पर 2013 में बैतुलमाल की स्थापना हुई. शुरू में जमा रक़म उन ज़रूरतमंदों को दी गई जो रोज़गार करना चाहते थे, लेकिन उनके पास पूंजी नहीं थी. हालांकि उन्हें यह रक़म उधार में दी गई, इस शर्त पर कि रोज़गार चल जाने पर रक़म वापस कर दी जाएगी.
इसके अलावा बीमारी के इलाज, ग़रीबों की शादी, सर्दी में गर्म कपड़े और रमज़ान महीने में लोगों के लिए राशन का इंतज़ाम भी इस बैतुलमाल के ज़रिए किया जाने लगा. जब इस मुहिम ने रफ़्तार पकड़ी और बैतुलमाल में रक़म बढ़ने लगी तो विधवा और ग़रीब महिलाओं को वज़ीफ़ा देने की व्यवस्था शुरू की.
सरफ़राज़ बताते हैं, ‘बैतुलमाल मुख्य रूप से इस समय ज़िले की 20-25 महिलाओं को हर महीने डेढ़-दो हज़ार रूपये का वज़ीफ़ा दे रहा है. क्योंकि हम मानते हैं कि इनकी मदद करने वाला कोई नहीं होता. ऐसे में हमारी मदद से वो अपने दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ कर लेते हैं और किसी के सामने हाथ फैलाने की ज़रूरत नहीं पड़ती है.’
इन बेवा औरतों के बाद ध्यान अब बेरोज़गार लोगों पर है. तक़रीबन 30 साल के इक़बाल बेरोज़गार थे. पहले तो उन्हें इस बैतुलमाल के सदस्यों ने रोज़गार के लिए प्रेरित किया. फिर जब वो फल बेचने के रोज़गार के लिए तैयार हुए तो उन्हें इस बैतुलमाल ने ठेला खरीदकर दिया, जिसे इक़बाल कमाने के बाद ठेले की क़ीमत इस बैतुलमाल को लौटा देंगे.
सरफ़राज़ के मुताबिक़ 2016 में 12 मार्च को ज़िला मुख्यालय से सटे एक गांव सेमरा में भयानक आग लग गई थी, जिसमें पांच सौ बीघा फ़सल तो जली ही, 33 लोगों के घर भी स्वाहा हो गये थे. इसके हादसे के बाद बैतुलमाल ने अपने छोटे से बजट में से उनमें सबसे ज्यादा परेशान 12 पीड़ितों की पहचान कर उनकी मदद की. मदद पाने वालों में हिन्दू-मुस्लिम दोनों थे क्योंकि सभी बुरी तरह बर्बाद हुए थे.
सरफ़राज़ नज़ीर के मुताबिक ‘चार-पांच लोगों से शुरू हुए इस ‘बैतुलमाल’ में अब तक़रीबन 250 सदस्य हैं. जो हर महीने सौ रूपये से लेकर हज़ार रूपये तक इसमें दान देते हैं.’
वो बताते हैं कि ‘अब इस बैतुलमाल में ज़कात का भी पैसा लिया जाने लगा है. इस तरह से सिर्फ़ रमज़ान के महीने में डेढ़-दो लाख रूपये हमारे पास आ जाता है. वहीं हर महीने 22-25 हज़ार रूपये तक जमा हो जाता है और अब हम भरपूर मदद कर पा रहे हैं’
चूंकि बैतुलमाल में रक़म बढ़ती ही जा रही है तो इसका विस्तार करते हुए ज़िले को चार हिस्सों में बांट दिया गया है. हर हिस्से में हर नौजवान को इसकी ज़िम्मेदारी दी गई. वो हर महीने बैतुलमाल के सदस्यों से क्लेक्शन करके बैतुलमाल के सदर को पैसे पहुंचा देता है. वो ये सारा काम निस्वार्थ भाव से करता है और इसके लिए वो कोई कमीशन या पैसा नहीं लेता है.
सरफ़राज़ बताते हैं, ‘ज़रूरतमंद लोग बैतुलमाल को पहले आवेदन देते हैं. फिर हमारी दो लोगों की टीम उसकी जांच करती है और उसके बाद ही आर्थिक मदद की मंज़ूरी मिलती है. वैसे यह विशुद्ध रूप से इस्लामिक सिद्धांतों पर आधारित प्रयास है, लेकिन मदद देने का आधार धार्मिक नहीं है, बल्कि ज़रूरतमंद की हालत देखकर रक़म दी जाती है.’
वो आगे बताते हैं कि, ‘जब पैसे बढ़ने लगे तो इस बैतुलमाल की ज़िम्मेदारी शहर के बुजुर्गों को दे दी गई. अब शहर के एक डॉक्टर डा. एम.एस. अब्बासी (65) इस बैतुलमाल के अध्यक्ष हैं तो शहर में कपड़े की दुकान चलाने वाले अब्दुर रहमान आफ़ाक़ इसके सचिव हैं. बाक़ी सारे युवा इसके सदस्य हैं. हर महीने इन्हीं बुजुर्गों की क़यादत में मीटिंग होती है, जिसमें हम सब शामिल होते हैं और मदद करने की मुहिम पर नई-नई रणनीति बनती है.’
सरफ़राज़ आगे बताते हैं, ‘हमारे कामकाज को देखकर कई लोगों ने हमें विदेश से भी संपर्क किया लेकिन हमने मना कर दिया. क्योंकि हम इस मुहिम को स्थानीय लोगों की मदद से ही चलाना चाहते हैं ताकि सभी को अपनी ज़िम्मेदारी महसूस हो सके.’
यहां यह जानना भी ज़रूरी है कि यह बैतुलमाल ना कोई पंजीकृत संस्था है और ना ही इसका उद्देश्य किसी तरह का आर्थिक लाभ हासिल करना है. यह बैतुलमाल विशुद्ध रूप से आपसी भरोसे और अपनी जेब से निकाले गए धन से चलाया जा रहा है.
महज़ चार साल पहले शुरू हुई इस पहल से अब हर कोई वाक़िफ़ है. कमाल यह है कि यह कोशिश इसी ज़िले के अलग-अलग हिस्सों में रहने वालों को भी प्रेरित कर रही है और ज़िले में कई नए बैतुलमाल खुल गए हैं. सरफ़राज़ बताते हैं कि ‘खुशी की बात ये है कि हमारे कई दोस्त बैतुलमाल के इस प्लान को अपने इलाक़े में भी चलाने लगे हैं.’
सरफ़राज़ कहते हैं कि उन्हें यह प्रेरणा उनके मज़हब से मिली. इस्लाम न्याय और बराबरी की बात करता है और अपने मज़हब पर सही अमल कर उसी न्याय और बराबरी को लाने की कोशिश कर रहे हैं. काश, ऐसा ही बैतुलमाल पूरे देश के कोने-कोने में खुल जाए तो रोते हुए चेहरों को थोड़ा बहुत ज़रूर हंसाया जा सकता है.