मोदी सरकार के तीन साल और दलितों में टकराव व बदलाव की नई चेतना

फ़हमिना हुसैन, TwoCircles.net

देश में आज से तीन साल पहले भाजपा की मोदी सरकार बनने के साथ ही लोगों में ये उम्मीद साफ़ देखने को मिली कि शायद ये सरकार धार्मिक और जातीय भेद से परे कुछ अलग कार्य करेगी, लेकिन ऐसा देखने को फिलहाल नहीं मिल रहा है.     


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जहां एक तरफ़ अख़बार के पन्ने मोदी सरकार के तीन साल की उपलब्धियों का विज्ञापन छाप रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ़ योगी के राज में पूरा यूपी सुलगता हुआ नज़र आ रहा है.

सहारनपुर में जातिगत टकराव के बाद उत्तर प्रदेश के दलित समुदाय में एक नए तरह की लामबंदी देखी जा रही है. इसे रोहित वेमुला और गुजरात की ऊना दलित चेतना यात्रा के जारी रूप की तरह कहना ग़लत नहीं होगा.

दशकों बाद पहली बार ऐसा हो रहा है कि यह समुदाय किसी समीकरण से जुड़ी मजबूरियों को पीछे छोड़कर अपने सम्मान और सुरक्षा का मुद्दा उठा रहा है.

गाय से लेकर धर्म परिवर्तन तक, समाज में छुआछूत से लेकर शिक्षा में भेदभाव और उत्पीड़न तक, भारत का दलित समुदाय, सवर्ण अतिवाद और उन्माद का शिकार बना हुआ है. इससे टकराने के लिए ये नई दलित संवेदना, बरसों के उत्पीड़न और अस्मिता के संघर्ष को रेखांकित करती है. देश की कुल आबादी के एक चौथाई दलितों के बीच ये एक नई छटपटाहट साफ़ देखने को मिलने लगी है.

गुजरात से लेकर यूपी तक जिस तरह दलित युवाओं के दस्ते उत्पीड़न की घटनाओं पर मुखर और आंदोलित हैं, उससे लगता है कि ये लोग आमने-सामने की लड़ाई की ठान कर निकले हैं.

इतना ही नहीं, अगर आकड़ों की बात कि जाए तो एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट, 2011 के मुताबिक़ शिक्षा के निजीकरण का सबसे ज्यादा नुक़सान दलितों को हुआ है, क्योंकि उनके बच्चे महंगी शिक्षा से वंचित हुए हैं.

सोशियो इकोनॉमिक कास्ट सेंसस नाम की एक संस्था ने अपने एक सर्वे में पाया कि अनुसूचित जाति के परिवारों में सिर्फ़ 0.73 फीसदी घरों में कोई सदस्य सरकारी नौकरी पर है.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक़ 2015 में साढ़े 38 हज़ार से अधिक दलित उत्पीड़न के मामले सामने आए हैं. इनमें सबसे अधिक घटनाएं क्रमशः यूपी, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश में हुईं हैं. दलितों के खिलाफ़ अपराध की सबसे ऊंची दर (51 प्रतिशत) गोवा में है. उसके बाद राजस्थान (48.4) का नम्बप है.

दलितों के वोट से बनी सरकारें न तो उनका शोषण रोक पा रही हैं और न ही उन्हें सत्ता में भागीदारी दिला पा रही हैं. ऐसे में ये खुद ही जोखिम उठाकर अपने हक़ के लिए आगे आ रहे हैं. हैदराबाद यूनिवर्सिटी के छात्रों ने रोहित वेमुला को न्याय दिलाने के लिए जो अभियान चलाया था, वह इसी नई चेतना का परिचायक थी.

ऊना कांड के बाद जिग्नेश मेवानी ने दलितों की यात्रा निकालकर इस मुहिम को गति दी, तो अब उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर रातों रात दलितों के हीरो बन चुके हैं. ये युवा नेता दलितों की सामाजिक-आर्थिक समस्याओं पर जम कर बात करते हैं और सोशल मीडिया का भरपूर इस्तेमाल करते हैं. ये किसी बड़ी राजनीतिक शक्ति का रूप ले पाएंगे या नहीं, यह बाद की बात है.

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