‘हमारा क़सूर सिर्फ़ इतना था कि हम मुसलमान हैं’

अफ़रोज़ आलम

नई दिल्ली : दुनिया भर के कई देशों में रोहिंग्या मुसलमान शरणार्थी बनकर रह रहे हैं. दिल्ली में इनकी संख्या 1,000 से अधिक है. संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी संस्था के अनुसार भारत में क़रीब 14,000 रोहिंग्या मुसलमान शरणार्थी हैं.


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दिल्ली-नोएडा के बॉर्डर पर ओखला इलाक़े के शाहीन बाग़ में तक़रीबन 50 परिवार 2011 से शरणार्थी शिविर में रह रहे हैं.

ओखला में इनको ज़कात इंडिया फाउंडेशन की तरफ़ से रहने के लिए ज़मीन दी गई है, जो कि 50 परिवारों के रहने के हिसाब से बहुत कम है. इनका घर ट्रेन के डिब्बे की तरह दोनों साईड से बना हुआ है. बीच में पतली सी जगह आने-जाने के लिए छोड़ रखा है, जैसा ट्रेनों में होता है.

दोनों साईड से छोटे-छोटे दरबेनुमा रुम. इसके ही अन्दर एक परिवार की दुनिया बसती है. इसकी के अंदर ये रहते हैं. इसी में लकड़ी वाले चूल्हे पर खाना बनाते हैं. इसमें न तो हवा बाहर जा सकती है और न बाहर की हवा अन्दर आने की कोई व्यवस्था है.

इनकी हालत ये देखकर कोई भी इनको दुनिया का सबसे पीड़ित वर्ग ही कहेगा. जैसा कि कभी संयुक्त राष्ट्र ने गंभीर चिंता जताते हुए कहा था कि ‘ये दुनिया के सबसे पीड़ित लोग हैं.’

शरणार्थी शिविर में ही किराने की दुकान चला रहे मुहम्मद सलीम बताते हैं, ‘दिल्ली में हम 2011 से रह रहे हैं. यहां हमें सरकार और संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी संस्था से ज्यादा लोकल लोगों की तरफ़ से मदद मिली, जो हमारे लिए फ़रिश्ते की तरह साबित हुए.’

बर्मा की घटनाओं को याद करते हुए सलीम बताते हैं, ‘हमारा क़सूर सिर्फ़ इतना था कि हम मुसलमान हैं.’ लड़खड़ाती हुई जुबान से सलीम आगे बताते हैं, ‘वहां की आर्मी कट्टरपंथी संगठनों के साथ मिलकर मुसलमानों को बेरहमी से काटा-मारा. उन लोगों ने न ही औरतों को बख्शा न ही बच्चों और न ही बुजुर्गों को.’

सलीम की बातों में सबसे ज्यादा गुस्सा नोबेल शांति पुरस्कार विजेता आंग सान सू की के ख़िलाफ़ दिखा.

सलीम बताते हैं कि, ‘सू की को हम लोकतंत्र और सेक्युलरिज्म की देवी मानते थे, लेकिन जब हम पर ज्यादती हुई तो उन्हेंने हमारे लिए एक शब्द नहीं बोला. हम खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं.’

इस कैंप में रह रहे हर किसी की अपनी आपबीती है. हर किसी के दिल-दिमाग़ में बर्मा के घटना की काली परछाई घर चुकी है. ये लोग उस दर्द से बाहर भी नहीं निकल पा रहे हैं और निकले भी तो कैसे इनको दर्द से बाहर निकलने का ज़रिया भी तो नहीं मिल रहा.

आठ साल की शाहिदा पेट में थी. उसी दौरान उसकी मां अपनी जान बचाकर वहां से भाग निकली, लेकिन शाहिदा के पिता लापता हो गए. न तो शाहिदा अपने पिता को देख पाई और न ही उसके पिता अपनी पहली संतान को.

शाकिर बताते हैं, ‘हमारे पास मजदूरी करने के अलावा कोई दूसरा रोज़गार का साधन नहीं है. औरतें घर-घर जाकर बर्तन-कपड़े साफ़ कर कुछ पैसे कमा लेती हैं और यहां रह रहे मर्द दिहाड़ी मज़दूरी करके अपना गुज़र बसर कर रहे हैं.’

शाकिर बच्चों की पढ़ाई-लिखाई पर चिंता जताते हुए बोलते हैं कि, ‘हमारी सबसे बड़ी समस्या है कि यहां रह रहे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का सही इंतज़ाम नहीं हो पा रहा. बच्चों को सही तालीम नहीं मिल पा रही है.’

ओखला कैंप में रह रहे शरणार्थियों के लिए राहत की बात ये है कि जबसे ये भारत आए हैं, इनको कभी किसी तरह का भेदभाव नहीं झेलना पड़ा. हर तबक़े के लोगों ने इनकी मदद की.

मुहम्मद सलीम बताते हैं कि, ‘हमारे अपने देश बर्मा में जहां हमारे साथ सिर्फ़ इसलिए बर्बरता की गई कि हम मुसलमान हैं, लेकिन यहां हमें सिर्फ़ एक इंसान के तौर पर देखा गया जो ज़रूरतमंद है.’

वहीं रोहिंग्या मुसलमानों की एक बड़ी आबादी जम्मू में भी रह रही है. इन शरणार्थियों ने हमेशा जम्मू को अपना दूसरा घर माना. लेकिन आज हालात बदल गए हैं. जम्मू के अलग-अलग इलाकों में रोहिंग्या को निशाना बनाते हुए ‘जम्मू छोड़ो’ के पोस्टर लगाए गए हैं. जिससे इनकी रातों की नींद हराम हो गई है. अपना भविष्य ‘अनिश्चित’ नज़र आने लगा है.

ख़बर यह भी है कि केंद्र सरकार भारत में अवैध रूप से रह रहे 40,000 से ज़्यादा रोहिंग्या मुसलमान को देश से बाहर निकालने की योजना पर काम कर रही है. इस ख़बर से ओखला के इस कैम्प में रहने वाले भी काफ़ी परेशान नज़र आ रहे हैं. इन्हें इस बात की चिंता सताने लगी है कि अब इनका भविष्य क्या होगा.

चिंता का विषय यह है कि म्यांमार यानी बर्मा में रोहंगिया मुसलमानों के ख़िलाफ़ हुई हिंसा की ख़बर दुनिया भर में चर्चा का विषय तो बना, लेकिन इसका कोई समाधान नहीं निकल पाया. न ही बर्मा में हो रहे मुसलमानों पर ज़ुल्म कम हुए और न ही उनका पलायन रूका.

बर्मा में अभी भी वहां हिंसा जारी है. बर्मा की सरकार ने कभी किसी अंतर्राष्ट्रीय मीडिया को वहां जाने की अनुमती नहीं दी है.

(अफ़रोज़ आलम जी न्यूज़ से जुड़े हुए हैं.)

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