मोहम्मद अलामुल्लाह
लगभग दो साल बाद एक मौलवी साहब से आज सुबह-सुबह मुलाक़ात हुई. मैंने यूं ही चलते-चलते उनकी खैरियत दरयाफ्त कर ली. लेकिन उन्होंने इसके नतीजे में जो कहानी मुझे सुनाई, मेरा दिल दुख से भर गया.
मौलवी साहब आज़मगढ़ के रहने वाले हैं. एक साल पहले मेरी उनसे मुलाक़ात उस समय हुई थी, जब वो अपनी पत्नी का इलाज कराने दिल्ली आए थे. इलाज और उपचार के लिए भी उनके पास पैसे नहीं थे. मैंने अपने एक डॉक्टर दोस्त (जो एम्स में काम करते हैं) और स्थानीय विधायक से बात करके एम्स में उनका प्रबंधन करा दिया था. तब से वह दिल्ली में ही रहने लगे. ट्यूशन और दीनियात (धर्मशास्त्र) आदि पढ़ाकर अपना खर्च चलाते हैं.
वो कहने लगे, —‘आलम भाई! आजकल तो लोग ट्यूशन भी नहीं पढ़वाना चाहते. लोगों के पास दीनियात, कुरान और उर्दू के लिए तो समय ही नहीं है. कुछ लोग अगर शौक़ भी रखते हैं तो बहुत हुज्जत के बाद चार पांच सौ रुपये मासिक पर सहमत होते हैं.’
मैं जल्दी में था लेकिन उन्होंने अपनी कहानी जारी रखी. वो कहने लगे कि, ‘मुझे मेस (जहां खाना खाते हैं) पैसा जमा करना था तो एक डॉक्टर साहब के बेटे, जिसे मैं पिछले पंद्रह दिनों में पढ़ा रहा था, के अब्बू को कहा कि —डॉक्टर साहब! पंद्रह दिन के पैसे दे दीजिए, कुछ ज़रूरी काम है. बाक़ी पैसा महीना पूरा होने के बाद दे दीजिएगा. उन्होंने मुझे दो सौ रुपए निकाल कर मुझे दे दिया. मैंने उनसे कहा, —माफ़ कीजिएगा! इससे बेहतर है आप दीजिए ही नहीं! तो उन्होंने बेशर्मी से वह राशि भी रख ली. मैंने वहां पढ़ाना छोड़ दिया. हालांकि वो बड़े डॉक्टर थे और उनका बेटा दिल्ली के एक महंगे अंग्रेज़ी मीडियम स्कूल में पढ़ता है.’
मेरे पास ज्यादा समय नहीं था. मुझे ऑफिस पहुंचने के लिए देर हो रही थी. इसीलिए मैंने उन्हें सिर्फ़ तसल्ली के लिए दो-चार शब्द कहकर चलता बना. लेकिन रास्ते भर उनकी ये बातें मुझे परेशान करती रहीं.
मैं सोचता रहा कि ओखला एक मुस्लिम बहुल क्षेत्र के रूप में जाना जाता है, जहां बड़ी संख्या में मुस्लिम बुद्धिजीवी, वकील, साहित्यकार, प्रोफ़ेसर, शिक्षक, डॉक्टर यानी के हर तबक़े व पेशे से जुड़े मालदार लोग बसते हैं. जो हमेशा आपको चाय खाने, राह चलते, वाहन और दुकानों में इस्लाम, मुसलमान, अल्पसंख्यक, उर्दू, अधिकार और दुनिया जहान के विषयों पर चर्चा करते हुए नज़र आएंगे. जिनमें से आप लगभग प्रत्येक वयक्ति से यह कहते सुनेंगे कि मुसलमानों की हालत बहुत ख़राब है और इसका ज़िम्मेदार धार्मिक समुदाय है. वो अपने बच्चों को कॉन्वेंट, गरूनानक, डीएवी, वसंत वैली, ओसलाईन, डीपीएस, ब्लूबेल, मूनफरट जैसे महंगे स्कूलों में पढ़ाते और मोटी रक़म खर्च करते हैं. और मोटी रक़में देकर ट्यूशन का प्रबंधन कराते हैं.
खुद ओखला में ऐसे सैकड़ों ट्यूशन सेन्टर्स हैं, जहां ढ़ाई हज़ार से पांच हज़ार बल्कि कुछ स्थानों पर इससे भी ज़्यादा रक़म फ़ीस के नाम पर वसूल किया जाता है. और पैसे देकर फ़िज़िक्स, केमेस्ट्री मैथ्स या बायलॉजी आदि का ज्ञान अपने बच्चों को दिलाते हैं. लेकिन जब उन्हीं बच्चों से आप इस्लाम के बुनियादी बातों को पूछ लीजिए तो बग़लें झांकते दिखते हैं.
अभी हाल ही में एसआईओ जो कि एक बड़ी इस्लामी छात्र संगठन है, ने गर्मियों की छुट्टी के मद्देनज़र ‘इस्लामिक समर कैम्प’ का आयोजन किया था, जिसके लिए बड़े पैमाने पर प्रचार व प्रसार भी की गई थी, लेकिन आप को यह जानकर हैरानी होगी कि पूरे ओखला में जहां 15 लाख से अधिक मुसलमान रहते हैं, सिर्फ़ पंद्रह बच्चे ही इस कैम्प में शामिल हुए.
यह जो इस्लाम और मुसलमानों और उनके अधिकारों का दम भरने वाले लोग हैं, उनकी इन दो मामूली घटनाओं से अनुमान लगाया जा सकता है कि वे अपने भविष्य को लेकर कितने चिंतित हैं?
(लेखक पत्रकार और ब्लॉग लेखक हैं. इनकी एक किताब ‘मुस्लिम मजलिस-ए-मशावरत : एक संक्षिप्त इतिहास’ के नाम से प्रकाशित हो चुकी है.)