क्यों क़ुबूल नहीं है मुस्लिम समाज को महिला क़ाज़ी…?

फ़हमिना हुसैन, TwoCircles.net

हम आज बदलते समाज के साथ अपनी अलग पहचान बनाने में मुसलसल लगे हैं. जिसमें अपने अधिकार और समानता को लेकर आए दिन कुछ न कुछ नए प्रावधान देखने-सुनने को मिलता रहता है. यहां तक कि मौजूदा सरकार भी अपनी कोशिशों में लगी है. फ़ेमिनिज़म को लेकर बड़े बड़े सेमिनार और डिबेट का आयोजन किया जा रहा है. 


Support TwoCircles

बावजूद इसके सच्चाई यह है कि हम औरतों के अधिकार की कितनी भी वकालत कर लें, लेकिन हक़ीक़त हमारी सोच और दलीलों से बिल्कुल अलग है. हिंदुस्तान में औरतों, ख़ासतौर पर मुस्लिम औरतों की बात करें तो उनकी हालत किसी से छुपी नहीं है.

ऐसे कई मुद्दे हैं, जिसमें मुस्लिम महिलाएं कई समस्याओं से जूझ रही हैं. कई पीड़ित महिलाएं  इंसाफ़ के लिए प्रशासन व अदालत के दरवाज़े तक जा पहुंची हैं. अदालत से तीन तलाक़ के मामले में फ़ायदा भी हुआ. उसने महिलाओं के हक़ में फैसला सुनाकर तीन तलाक़ जैसे मुद्दे पर पाबंदी लगा दी. लेकिन बावजूद इसके बाक़ी मुद्दे अभी भी बरक़रार हैं, जिसमें अदालत शरीअत का मामला समझकर कुछ ख़ास नहीं कर सकता.   

बता दें कि ज़किया सोनम जिन्होंने ‘भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन’ की स्थापना की है, उन्होंने ही पूर्व में दारुल उलूम निस्वां को भी स्थापित किया. यहां मुस्लिम समाज की 15 औरतों ने क़ाज़ी की ट्रेनिंग लेकर इतिहास रचा, लेकिन जैसे ही ट्रेनिंग मुक्कमल कर महिलाओं ने क़ाज़ी की ज़िम्मेदारी निभाने के लिए कमर कसी, तुरंत मुस्लिम समुदाय में इस पहल पर अंगुलियां उठनी शुरू हो गईं. क्योंकि दारूल उलूम देवबंद महिलाओं के क़ाज़ी बनने के पक्ष में नहीं है. ये क़ाज़ी की ट्रेनिंग को लेकर साफ़ तौर पर अपना विरोध जता चुका है.

यही नहीं, महिला क़ाज़ी के तलाक, निकाह और मेहर जैसे काम करने के ऐलान के बाद उलेमाओं सहित मुस्लिम समाज के कई संगठन भी विरोध में उतर गए हैं. इनका तर्क है कि यह शरीयत के ख़िलाफ़ है.

इस मामले में एक मौलाना का कहना है कि इस्लाम में औरतों के हक़ और अधिकार की बात कही गई है, लेकिन ज़रूरी नहीं कि वो हर काम में आगे रहे. जो शरीयत में नहीं, वो कभी मंज़ूर नहीं किया जाएगा.

इस मामले में हिफ़्ज़ की हुई तरन्नुम वसीम का मानना है कि पहले औरत अपने शरीयत व क़ानून से अनजान थीं, लेकिन इल्म की रोशनी में अब की औरतें बहुत कुछ जानने लगी हैं. आगे वो कहती हैं कि ये कोई पहली बार नहीं है, जब शरीयत का हवाला देकर औरतों को डराया गया हो.

वहीं हुसना खान जो पेशे से शिक्षक हैं बताती हैं कि, उलेमा और मुस्लिम संगठनों ने कहा कि कुरआन और सुन्नत के एतबार से महिलाएं क़ाज़ी नहीं बन सकतीं, अगर इस तरह का बयान उलेमा दे रहे हैं तो फिर वो क़ुरआन की वो आयत और हदीस के सारे हवालों को दिखाकर कहें.

ख़बरों की माने तो इन 15 महिलाओं में से अभी तक किसी को निकाह पढ़ाने का मौक़ा नहीं मिला है. दारुल उलूम निस्वां ने एक मॉर्डन निकाहनामा भी तैयार किया है, जिसमें निकाह के एक महीने पहले अर्ज़ी देने का प्रावधान है. लेकिन महिला क़ाज़ी से निकाह पढ़ाने की अब तक कोई अर्ज़ी नहीं आई है.

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि मुस्लिम समाज में हमेशा से पुरुष क़ाज़ी का ही दबदबा रहा है. ऐसे में एक रूढ़िवादी सोच के साथ महिला क़ाज़ी को स्वीकार करना आसान नहीं है.

SUPPORT TWOCIRCLES HELP SUPPORT INDEPENDENT AND NON-PROFIT MEDIA. DONATE HERE