आस मुहम्मद कैफ़, TwoCircles.net
मुज़फ़्फ़रनगर : मोनिश 11 साल का है. पांचवीं में पढ़ता है. उसकी स्कूल की फ़ीस 150 रुपए महीना है. मगर वो 300 रुपए रोज़ कमाता है. चौथी क्लास तक वो रोज़ स्कूल जाता था. अब सात दिन में एक बार जाता है. वो ऐसा इसलिए करता है, क्योंकि उसे परिवार को मज़बूत करने के लिए काम करना होता है.
मोनिश के अब्बा इरशाद को पिछले साल दिल की बीमारी हुई तो क़र्ज़ हो गया. इसे उतारने के लिए अपने दो बड़े भाईयों के साथ उस पर भी सामूहिक ज़िम्मेदारी आ गई. पढ़ाई छोड़ी तो नहीं गई, मगर नियमित नहीं रही.
11 साल का मोनिश मुज़फ़्फ़रनगर बस स्टैंड पर केले बेचता है. मोनिश हम से बताता है कि, डॉक्टर बनना चाहता है. यह कहते हुए उसकी आंख में चमक आती है और चेहरा खिल जाता है. मगर सात दिन में एक बार स्कूल जाने वाला मोनिश डॉक्टर बनने के लिए क्या कर सकता है आप समझ सकते हैं.
ये कहानी अकेले मोनिश की ही नहीं है. 14 साल का अली रज़ा भी ऐसा ही है. सिर्फ़ पहली क्लास तक पढ़ने वाला अली रज़ा को भी पारिवारिक ज़िम्मेदारी यहां तक ले आती हैं. मोनिश के पास में ही अली रज़ा ज़मीन पर बैठकर मूंगफली बेचता है.
अली रज़ा बताता है कि बचपन में वो रोज़ स्कूल जाता था. लेकिन बाद में घर वालों ने भेजने में कोई रूचि नहीं दिखाई. पिछले चार साल से वो खुद काम करता है और एक महीने में 5 हज़ार रुपये कमा लेता है. ख़ास बात यह है अली रज़ा भी डॉक्टर ही बनना चाहता था. मगर यह संभव ही नहीं है.
12 साल का तालिब मदरसे में पढ़ता है. सुबह-शाम जाता है और दिन में मवाना बस स्टैंड पर केले बेचता है. पूरी तरह से परिपक्व तालिब को बहकाकर भी आप एक केले का हेरफेर नहीं कर सकते न ही मोलभाव में उसे विचलित कर सकते हैं. इससे यह पता चलता है कि अनुभवी है.
तालिब बताता है वो पांच साल की उम्र से अपने अब्बा की साथ यही सीख रहा है. मगर क्या उसके बच्चे का भी यही भविष्य रहेगा. तालिब चुप हो जाता है.
भुम्मा रोड पर 7 साल की इकरा और 6 साल का सुभान साईकिल के टायर को लकड़ी से गोल-गोल घुमाकर खेल रहे हैं. हमारे यह पूछने पर कि वो आज स्कूल नहीं गए, वो दौड़ लगा लेते हैं. पास में स्पोर्ट्स के सामान की दुकान चलाने वाले जुबैर कहते हैं, मुसलमानों के बहुत कम बच्चे स्कूल जाते हैं. वो लोग से कहते हैं, मगर उनकी प्राथमिकता पेट है. यह लोग रोटी कपड़ा और मकान में उलझे हैं.
पास के एक खाली पड़े मैदान पर बच्चों के अधिकतर समूह ‘गिल्ली डंडा’ खेल रहा है. इस मैदान पर बड़ी रौनक है. काफी भीड़ भाड़ है. इत्तेफ़ाक़ यह है कि यह सभी बच्चे मुसलमान हैं. ख्याल रहे आज बुधवार है, मगर मुसलमानों के ‘गंदी’ सी बस्ती के बाहर इन बच्चों का मुस्तक़बिल उछल-कूद कर रहा है.
7 साल का अयाज़ और 9 साल का अब्दुल समद मदरसे में सुबह-शाम जाते हैं और फिर दिन भर खेलते रहते हैं. दोपहर में भूख लगने पर घर चले जाते हैं और फिर लौट आते हैं. हम जब उनसे पूछते हैं कि वो क्या बनना चाहते हैं, तो उनका जवाब है —’पुलिस’. मगर पुलिस बनने के लिए क्या करना होगा, यह वो नहीं जानते.
ज़ाहिर है इन सबके मां-बाप भी पढ़ाई को लेकर जागरूक नहीं हैं या जिनके जागरूक हैं वो मजबूर हैं.
मुज़फ़्फ़रनगर की सामाजिक संस्था पैग़ाम-ए-इंसानियत के अध्यक्ष आसिफ़ राही बताते हैं कि, जैसे-जैसे क्लास बढ़ती है. मुस्लिम बच्चों की स्कूल में तादाद घटती जाती है. 12वीं तक आते-आते तो आधी रह जाती है और स्नातक तक यह 25 फ़ीसद से भी कम हो जाती है.
वो बताते हैं कि, यह तादाद रोज़गार कम होने की वजह से भी है. अक्सर लोग यह मानते है कि पढ़ा-लिखा लड़का ठेली लगाने जैसे काम करता हुआ शर्म मानता है और नौकरी उसे मिलती नहीं, इसलिए उसका ज्यादा पढ़ना ठीक नहीं. यही वजह है अक्सर गाड़ियो में या सड़क के किनारे मुस्लिम बच्चे गले में थैला लटकाए कुछ न कुछ बेचते मिल जाते हैं.
मुस्लिम हितों के काम करने वाले हाजी महबूब कहते हैं कि, तकलीफ जब होती है जब ऐसे मुस्लिमों से हिंदुत्व को ख़तरा बताया जाता है. यह लोग तो सिर्फ़ अपना पेट भरने की जुस्तुजू में हैं, इनसे किन्हें ख़तरा हो सकता है!