शैलेन्द्र सिन्हा
झारखंड : “आदिवासी महिलाओं को एक तो गर्भावस्था के दौरान पौष्टिक आहार नहीं मिलता. दूसरी ओर वो नियमित रुप से आयरन की गोली नहीं लेती, क्योंकि उनके बीच ये मिथक है कि गोली के कारण बच्चे के जन्म में परेशानी होगी.”
ये कहना है झारखंड के दुमका ज़िले के शिकारीपाड़ा में स्थित सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में जेनरल नर्सिंग मीडवाईफ़ यानी जीएनएम के पद पर कार्यरत अर्चना किस्कू का.
वो आगे बताती हैं, गरीबी के कारण गर्भवती महिलाएं फल व दुध का सेवन नहीं कर पातीं. सिर्फ़ पानी भात, मुनका साग, सजना साग का ही सेवन करती हैं. कारणवश उनके शरीर को पर्याप्त पौष्टिकता तो वैसे भी नहीं मिलती और जागरुकता की कमी तथा कार्यस्थल पर होने वाली कठिनाई के कारण वे इस दौरान पानी भी काफी कम मात्रा में पीती हैं. ऐसे में अधिकतर स्त्री में खुन की कमी पाई जाती है.
फिर वो आगे बताती हैं, विडंबना ये है कि राज्य के ज़्यादाकर प्रखंडों के स्वास्थ्य केन्द्रों में ब्लड बैंक ही नहीं है. ऐसे में मरीज़ों को शहर रेफ़र कर दिया जाता है.
नर्स बसंती सोरेन के अनुसार, हिमोग्लोबिन और पोषण की कमी का खामियाजा प्रसव के समय होता है. एनेमिक महिला को प्रसव कराने में काफ़ी कठिनाई होती है. प्रसव के समय बच्चे का सिर नहीं निकलता, प्रेशर बनाना पड़ता है.
सोरेन बताती हैं, आदिवासी परिवारों में गाय रखने की परंपरा नहीं है. वे सुअर और बकरी पालन करते हैं. कारणवश उन्हें नियमित रुप से दुध भी नहीं मिल पाता. हम नर्स गर्भवती महिलाओं के घर जाकर 4 बार भोजन करने की सलाह देते हैं, लेकिन वे दिन भर में दो बार ही भोजन करती हैं.
गर्भवती आदिवासी महिला बसंती हेम्ब्रमने हमें बताती है कि, गर्भावस्था में भी जलावन के लिए वे पेड़ पर चढ़कर लकड़ी काटती हैं. तब जाकर घर में चुल्हा जलता है.
हेम्ब्रमने ये भी बताती हैं कि, ये साग का सेवन कम करती हैं. क्योंकि उनकी सास ने बता दिया है कि बच्चा मोटा हो जाएगा और प्रसव में परेशनी होगी. प्रसव के एक दिन पहले वे पानी भी नहीं लेती.
गौरतलब रहे कि, ग्रामीण महिलाएं सदियों से चली आ रही परंपराओं को मान रही हैं. जिस कारण बच्चे कुपोषण के शिकार हो रहे हैं. इन रीति रिवाजों के कारण कई बार वे अपने नवजात शिशू को प्रसव के तुरंत बाद अपना दूध भी नहीं पिलाती हैं. नवजात शिशुओं को समय पर स्तनपान नहीं कराने के कारण बच्चे पर बुरा असर पड़ता है और बच्चों का विकास अवरूद्ध होता है. ऐसे कई कारण हैं, जो विशेष रुप से झारखंड में कुपोषण को बढ़ावा दे रहे हैं.
डॉ. बिन्देश्वर राम का कहना है कि, संथाल परगना प्रमंडल की आदिवासी महिलाओं में हिमोग्लोबिन का कम होना आम बात है. ऐसे में एनेमिक महिला से स्वस्थ बच्चे जनने की कामना नहीं की जा सकती. आदिवासी परिवारों में पोषण को महत्व नहीं दिया जाता. गरीबी भी एक कारण है और जागरूकता का अभाव भी है.
झारखंड में सुप्रीम कोर्ट के राज्य सलाहकार बलराम बताते हैं कि, राज्य में कुपोषण एक गंभीर चुनौती बनी हुई है. हद तो यह है कि आंगनबाड़ी केन्दों में कुपोषित बच्चों के पोषण एवं स्वास्थ्य का रिकार्ड नहीं रखा जाता और ना मोनिटरिंग ही की जाती है. केन्द्र सरकार की योजनाओं का लाभ राज्य सरकार द्वारा सही रुप में नहीं दिया जा रहा है. खाद्य सुरक्षा नियमों की अनदेखी की जा रही है.
वहीं झारखंड की कल्याण मंत्री डॉ. लूईस मरांडी का कुपोषण के सवाल पर कहना है कि, सरकार प्रयास कर रही है. शीघ्र अच्छे परिणाम सामने आएंगे. मुख्यमंत्री रघुवर दास कुपोषण को राज्य के लिए कलंक मानते हैं, इसे दूर करने के प्रयास में लगे हैं.
बताते चलें कि संयुक्त राष्ट्रबाल कोष और यूनिसेफ़ के एक रिपोर्ट के अनुसार 5 वर्ष की आयु तक के सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चे भारत में हैं. उसका बड़ा हिस्सा झारखंड में है.
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की बॉडी मास इंडेक्स यानी बीएमआई की ताज़ा रिपोर्ट भी इस बात का खुलासा करती है कि झारखंड में कुपोषित बच्चों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है. 6 से 59 महीने के बच्चों में 70 प्रतिशत खून की कमी पाई गई है. वहीं 70 प्रतिशत महिलाओं में खून की कमी है. आदिवासी महिलाओं में तो 85 प्रतिशत खून की कमी है. बता दें कि 2011 की जनगणना के अनुसार झारखंड में 50,58,212 महिलाएं कुपोषण की शिकार हैं. ऐसे में भारत के भविष्य का अंदाज़ा आप बखूबी लगा सकते हैं. (चरखा फीचर्स)