दंगा पीड़ितों को लोई में नहीं मिलती दफ़नाने के लिए दो गज़ ज़मीन

आस मोहम्मद कैफ़, TwoCircles.net


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लोई : बुढ़ाना से शामली मार्ग पर 3 किमी चलने पर बाईं ओर एक खड़ंजा जाता है. यह सराय है. इसके 01 किमी आगे लोई है. पहचान के लिए इन दोनों गांव का नाम एक साथ लिया जाता हैलोई सराय.

इन दोनों में जमीयत उलेमाहिन्द ने कुछ लोगों के सहयोग से 104 घर बनवाये. इनमें सबसे ज्यादा 70 घर सराय में बने. इस कॉलोनी को शैखुल-हिंद नगर कहते हैं. यहां दंगे के बाद फुगाना, लिसाढ़ मुंडभर और टीकरी के लोग ज्यादा हैं.

वैसे तो यहां सभी मुसलमान रहते हैं, लेकिन अब दंगे के चार साल बाद एक बार फिर राजनीति हावी हो चुकी है. अब आपस की लड़ाई इस स्तर तक पहुंच गई है कि मुर्दों को दफ़न करने के लिए क़ब्रिस्तान में जगह देने से भी रोक दिया जा रहा है.

सराय में 70 घर हैं. गांव में प्रवेश से ठीक पहले यह कॉलोनी है. लगभग हर घर 50 से 60 गज़ में बना है, जिसमें एक कमरा, टॉयलेट और स्टोर रूम है. एक परिवार को एक घर दिया गया था, मगर किसीकिसी परिवार में कईपरिवारहैं. ऐसे लोगों ने इसी घर में दीवार कर कई हिस्सों में बांट लिया है. कॉलोनी की तीन रास्ते हैं और तीनों रास्तों पर तीन अलगअलग भाषा में जमीयत उलेमाहिन्द का पत्थर लगा है. एक जगह बोर्ड भी है, जहांशैखुल हिन्द नगर’ लिखा है. इस कॉलोनी की इफ़्तेताह जमीयत के महासचिव मौलाना महमूद मदनी ने की थी.

कॉलोनी के हाजी मुन्नू बताते हैं कि, सबसे गंभीर समस्या यह है कि गांव के पुराने लोग अपने क़ब्रिस्तान में उनके मुर्दों को दफ़नाने नहीं देते. हालांकि इन्हीं गांव वालों ने दंगे के बाद आगे बढ़कर मदद की, मगर अब दंगा पीड़ितों के प्रति नाराज़गी है.

इसी कॉलोनी में रहने वाले शाहिद कहते हैं कि, इसकी वजह राजनीति है. सराय गांव के आबादी 2 हज़ार है और 500 दंगा पीड़ित और जुड़ गए. अब चुनाव में दो लोग लड़े तो गांव के मुसलमान और दंगा पीड़ित बिरादरी के आधार पर बंट गये और एक अन्य बब्लू सैनी प्रधान बन गए.

अब हारने वाले प्रधान प्रत्याशी ने इसके लिए दंगा पीड़ितों को ज़िम्मेदार माना. जिसने उसे वोट दिया उसके मुर्दे तो दफ़नाने दिए जाते हैं और जिसने वोट नहीं दिया, उनको किसी और गांव में ले जाना पड़ता है.

गांव के निवासी अख़्तर हसन हालांकि कहते हैं, ऐसा नहीं है. दरअसल लोग बिरादरी के आधार पर बंटे. जिस बिरादरी के दंगा पीड़ित हैं, उनको दफ़नाने दिया और जिसके गांव में लोग नहीं है. उनको बाहर जाना पड़ा. लेकिन स्थानीय निवासी याक़ूब यह बताकर चौंका देते हैं कि इमाम साहब की फ़ूफ़ी को ही गांव में दफ़नाने नहीं दिया, उन्हें दूसरे गांव ले जाना पड़ा.

कुछ परेशानियां भी हैं. कालू कहते हैं कि, क़ब्रिस्तान की ज़मीन तो उतनी ही है, मगर 500 लोग नए गए हैं. उन्हें लगता है कि हम उनका हिस्सा छीन रहे हैं. हम खरीदने की कोशिश कर रहे हैं तो गांव के पास कोई बेच नहीं रहा है.

उधर प्रधान बब्लू सैनी भी इन्हें परेशान करने में कोई क़सर नहीं रखते. शमशाद कहते हैं, यहां का पानी बहुत ख़राब है, एकदम पीला. कॉलोनी वालों ने सबमर्सिबल लगवा दिया है ताकि साफ़ पानी मिल सके तो प्रधान ने नोटिस भेज दिया है.

वैसे कॉलोनी साफ़-सुथरी है और इसकी सड़के पक्की हैं. यह रास्ते पूर्व विधायक नवाज़िश आलम ने बनवाए हैं. वहीं नौशाद शिकायत करते हैं कि, कॉलोनी में बिजली के खंभे अपने पैसे से लगवाए जबकि मीटर तुरंत लगा दिए गए थे, मगर खंभे से तार नहीं जोड़े गए. बिजली वाले रिश्वत मांगते हैं.

सईदन ख़ातून 78 साल की है. हुक्का पीती हैं और आंखों की रोशनी आज भी टनाटन है. वो कपड़े में मोती डालने का काम करती हैं और इससे वो हर दिन 60-70 रुपए कमा लेती हैं. वो बताती हैं,लल्ला (बेटे) यहां मज़ा में हैं. कोई परेशानी नहीं. इतने सुकून से पूरी ज़िन्दगी कहीं नहीं रहे, लड़कियां घर में लुकु (छिपाकर) रखनी पड़ती थी. ज़रा सी सियानी (बड़ी) हुई तो स्कूल छुड़वा देते थे. पांचवीं से ज्यादा कोई पढ़ी. बस क़ुरान शरीफ़ पढ़ लेती थी.

इन दंगा पीड़ितों ने कभी क़ुरबानी नहीं की थी. जबसे यहां आए हैं, क़ुरबानी भी करते हैं. बस लल्ला हम तो जन्नत में गए. वैसे लड़कियां यहां भी नहीं पढ़ती हैं, मगर लड़के खूब पढ़ रहे हैं. कई घरों को कई हिस्सों में बांट दिया गया है. जैसे पैरों से विकलांग इरशाद के घर में दीवार कर ली है, जिसमें उसका दूसरा भाई रहता है. इरशाद सिलाई करता है और 100 रुपये रोज़ कमा लेता है.

कॉलोनी सुरक्षित होने के कारण उसके बाहर कुछ लोग छप्पर डालकर भी रहते हैं. इनमें से एक मोहम्मद इस्लाम हैं और वो टीकरी के हैं. उनके परिवार में बच्चों सहित 6 लोग हैं. इस्लाम टीकरी के रहने वाले हैं. टीकरी बाग़पत का चर्चित क़स्बा है.

इस्लाम बताते हैं, हम लोग दंगे की दहशत में रात में भाग आए. वहां अपना घर था. यहां झोपड़ी डालकर रह रहे हैं. ज़मीन ले ली है, मगर घर अभी नहीं बनवा पाए हैं. सरकार ने कोई मदद नहीं की, मुआवजा कुछ चिन्हित गांव को दिया गया. बाग़पत ज़िला इसमें शामिल नहीं था. हमारे यहां हिंसा नहीं हुई थी, मगर टीकरी में तनाव को देखकर हम गए. ये तनाव आज भी दिल में डर पैदा करता है.

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