क्या इस्लाम सिर्फ़ लड़कियों पर लागू होता है?

लेनिन मौदूदी, TwoCircles.net के लिए

पिछले साल की तरह इस साल भी मऊ नाथ भंजन में एक शाम, तालीम के नामप्रोग्राम का आयोजन किया गया. इस बात का विशेष ख़्याल रखा गया कि प्रोग्राम में लड़कियों का प्रतिनिधित्व भी हो, जो मऊ जैसे शहर के लिए नई बात थी. लड़कियों की ओर से 3-4 लड़कियों ने मंच पर आकर अपनी बात रखी. उन्हीं लड़कियों में एक नाम ‘ज़ेबा फ़िरदौस’ का भी था. ज़ेबा ने अपने भाषण में तीन महत्वपूर्ण सवाल उठाएं :


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1. इस्लाम में अगर सह-शिक्षा (Co-Education) मना है तो तुम सिर्फ़ अपने घर की लड़कियों की ही पढ़ाई क्यों छुड़वाते हो, लड़कों की क्यों नहीं? लड़कों को क्यों भेज देते हो उन स्कूल कॉलेज में, जहां लड़कियां भी पढ़ती हैं. क्या इस्लाम सिर्फ़ लड़कियों पर लागू होता है?

2. मोबाइल फोन से अगर बुराई फैलती है तो वो कौन सी बुराई है, जो सिर्फ़ लड़कियों से फैलती है लड़कों से नहीं? लड़कों से मोबाइल फोन क्यों नहीं छीना जाता? सिर्फ़ लड़कियों से क्यों छीना जाता है?

3. लड़कियां जैसे ही घर से बाहर निकलना चाहती हैं, तुम्हारी लिजलिजी नज़र उसके बुर्क़े के अंदर भी देख लेना चाहती हैं. क्या लड़कियां बुर्क़े में भी घर से बाहर नहीं निकल सकतीं? आप लड़कियों को लिबास की नहीं, लड़कों को नज़र नीची करने की तालीम क्यों नहीं देते?

बस फिर क्या था! ज़ेबा के इन सवालों ने मऊ शहर में हंगामा मचा दिया. हर गली-मुहल्ले और चौराहे पर इस लड़की का चरित्र हनन करना शुरू कर दिया गया है. कोशिश यह है कि इस लड़की को इतना बदनाम कर दें कि आगे और कोई भी ऐसे सवाल न उठा सके. लोगों ने उसके सवाल का जवाब देना ज़रूरी नहीं समझा, बल्कि ये सवाल करने लगे कि ज़ेबा ने मर्दों के साथ स्टेज साझा क्यों किया? बिना चेहरा ढ़के (हालांकि ज़ेबा ने हिजाब पहना हुआ था) क्यों बोल रही थी? यह बड़ी ही बेहया, बेग़ैरत टाइप की लड़की है. जब मऊ में ऐसी है तो मऊ से बाहर न जाने क्या करती होगी!

कोई उसे तस्लीमा नसरीन बोल रहा है तो कोई उसे बदचलन. हद तो यह है कि इस लड़की के चरित्र हनन की शुरुआत मऊ शहर के कुछ राजनैतिक और सामाजिक व्यक्तियों की शह पर किया गया. इसके पीछे का कारण यह है कि इस प्रोग्राम को समाजवादी नेता अरशद जमाल (भूतपूर्व चेयरमैन) ने आयोजित किया था, जिसका लाभ आने वाले नगरपालिका चुनाव में हो सकता है.

बस इसी आशंका से भयभीत होकर सुनियोजित तरीक़े से अरशद जमाल के विरोधियों ने अपना राजनैतिक हित साधने के लिए इस लड़की ज़ेबा को बलि का बकरा बनाया गया. इस पूरे प्रोग्राम को ‘एक शाम, बेहयाई के नाम’ से ट्रोल किया गया.

ज़ेबा के सवालात मुस्लिम समाज के बुराइयों पर थे, इस्लाम पर नहीं. लेकिन उसे इस तरह पेश किया जा रहा है कि मानो उसने इस्लाम पर ही हमला कर दिया है.

शायद ये हमारी जहालत है. और वैसे भी भारतीय मुस्लिम समाज की तालीमी और सामाजिक हालात क्या है, यह किसी से छुपी नहीं है. हमारी अक्सरियत पसमांदा है जो अनपढ़ और ग़रीब है, फिर भी अगर आप मुस्लिम समाज की 50 फ़ीसद आबादी को ‘लॉक’ कर देंगे तो आपका विकास कैसे होगा?

हम लगातार यह देखते आ रहे हैं कि एक अजीब सी नैतिकता मुस्लिम समाज पर जबरन इस्लाम के नाम पर थोपी जा रही है. जबकि ग़ौर से देखा जाए तो इस्लाम की अपनी कोई संस्कृति नहीं है. न वेशभूषा, न खाना, न रंग. मुस्लिम समाज ने यह फैसले अपने स्थानीय वातावरण के आधार पर लिए हैं. सऊदी अरब में जब आम होता नहीं था तो वे ख़जूर खाते थे. नबी हज़रत मोहम्मद (सल्ल.) के सबसे बड़े दुश्मन ‘अबू जहल’ का लिबास भी वही था जो नबी का था. आपको मध्य एशिया और रूस के मुस्लिम इलाक़ों में अरबी नाम नहीं मिलेंगे और यहां के मुसलमान क़ोरमा-सेवई भी नहीं खाते. बावजूद इसके हम नैतिकता के बहाने एक ख़ास ‘संस्कृति’ इस्लाम के बहाने मुस्लिम समाज पर थोपते जा रहे हैं.

चलिए, दूसरी सूरत पर बात करते हैं. एक ग़रीब मां नक़ाब और बुर्क़े की अनिवार्यता या शरीयत के साथ अपने बच्चों का पेट पालने के लिए मजदूरी कैसे करे? क्या इस्लाम खाए-पिए और अघाए हुए वर्ग के लिए है? हमें सऊदी अरब की अर्थव्यवस्था और भारतीय मुस्लिम समाज की अर्थव्यवथा में भी फ़र्क़ करना सीखना होगा. वो अगर अपनी सभी औरतों को घरों में बंद कर देंगे तब भी उनके पास उन्हें खिलाने और ‘अय्याशी’ करने के लिए बहुत पैसा है पर हमारे पास कोई तेल के कुंए नहीं हैं.

हमारे मुस्लिम समाज के धार्मिक और राजनीतिक रहनुमाओं ने कौन-सी रणनीति बनाई है, जिस पर चलकर यह समाज अपनी ग़लाज़त से निकल सके? हिंदुत्व (फासिस्ट ताक़तों) को मुसलमानों का सबसे बड़ा ख़तरा बताने वाले हमारे रहनुमाओं ने उससे लड़ने के लिए कौन-सी लोकतांत्रिक रणनीति समाज को दी है? कैसे हम इस ख़तरे का मुक़ाबला करें? क्या कोई तरीक़ा है मुस्लिम समाज के पास?

दरअसल, हमारे रहनुमा (धार्मिक और राजनीतिक दोनों) सिर्फ़ जज़्बाती बातों पर अपनी रोटियां सेंकने का काम करते हैं. इनके पास समाज की स्थिति को सुधारने की कोई रणनीति नहीं है. इसलिए यह समाज को तालीम, रोज़गार और विकास जैसे मुद्दों से भटकाने के लिए बुर्क़ा, मदरसा, ईशनिंदा, उर्दू भाषा, समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दों में उलझाए रखते हैं.

मऊ शहर में भी हमने यही देखा कि कैसे ज़ेबा के ज़रूरी सवालों को इस्लाम से जोड़ दिया गया और उसे पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित मान उन सवालों की प्रसंगिकता को समाप्त कर दिया गया. मुस्लिम मर्दों की दिक्क़त यह है कि अब औरतें मुस्लिम मर्दों के बनाए दायरे से बाहर निकल रही हैं. भले आज वो घर की ग़ुलामी से निकल कर बाज़ार (पूंजीवाद) की ग़ुलामी कर रही हैं, लेकिन उन्हें बाज़ार में अपनी हैसियत पता है और अब वो इन मर्दों की बेगारी करने को तैयार नहीं.

‘इस्लाम ख़तरे में है’, ‘इस्लाम को बदनाम किया जा रहा है’ का सारा शोर, सारी हाय-तौबा यही है कि अब औरतें ख़ुद अपने, धर्म की, समाज की व्याख्या करना चाह रही हैं. बस यही बात सबसे ज़्यादा चुभ रही है. आप औरतों को निकलने तो दो, माना अभी वो गिरेंगी, छली भी जाएंगी पर फिर वो चलना भी सीख लेंगी. अपने हित और अहित को समझेंगी भी.

अब मुस्लिम मर्दों को औरतों का ख़ुदा बनना छोड़ देना चाहिए. अभी हमें नीयत से ज्यादा हमें अपनी ज़हनियत बदलने की ज़रूरत है. अल्लाह ताला ख़ुद क़ुरआन की सूरह अर-राद में फ़रमाता है, “…अल्लाह उन लोगों की दशा नहीं सुधारता जो स्वयं नहीं सुधरते” (13:11)

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