आस मुहम्मद कैफ़, TwoCircles.net
मुज़फ़्फ़रनगर (बुढ़ाना) : मुज़फ़्फ़रनगर दंगे ने न सिर्फ़ मुसलमानों को तबाह किया, बल्कि इसके साथ-साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश की ‘मुसलमान-जाट एकता’ को भी तार-तार कर दिया.
कभी भारतीय किसान यूनियन के सरपरस्त चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत की एक आवाज़ पर जाट और मुसलमान किसान लाखों की तादाद में निकल कर सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर कर देते थे, लेकिन आज वो ताना-बाना बिखर गया है. कभी भारतीय किसान यूनियन के प्रोग्राम में सदारत एक मुसलमान किया करता था, लेकिन आज मुसलमान इससे दूर हो गए हैं.
इसी मुज़फ़्फ़रनगर दंगे के बाद 72 साल के (अब 76) की बूढ़ी हड्डियों के दम ने मुसलमानों के टूटते हौसलों को ताक़त दी. यहां किसान मज़दूरों के सबसे बड़े संगठन भारतीय किसान यूनियन के अध्य्क्ष महेंद्र सिंह टिकैत के सबसे क़रीबी साथी और यूनियन के मंचों पर अक्सर सदारत करते दिखने वाले ग़ुलाम मोहम्मद जौला ने यूनियन के साम्प्रदयिक होने का हवाला देते अलग संगठन ‘भारतीय किसान मजदूर मंच’ का ऐलान कर दिया.
इन्हीं ग़ुलाम मोहम्मद ने अपने गांव में हज़ारों दंगा पीड़ितों को शरण दी और हेकड़ी से उनकी बात कही. ग़ुलाम मोहम्मद जौला यहां 24 गाँवों के ‘चौधरी’ हैं. मुज़फ़्फ़रनगर दंगे में उनकी सरपरस्ती से बहुत बदलाव आया और उन्होंने डटकर मुक़ाबला किया. TwoCircles.net के लिए उनसे हुई यह विशेष बातचीत बहुत कुछ कहती है…
दंगो के चार साल बाद मुसलमानों में किस तरह का बदलाव आया है?
ग़ुलाम मोहम्मद जौला : बदलाव बहुत आया है. ज़्यादातर उनके ही खेतों पर मजदुर थे. उनके ही बाल काटते थे. उनके ही कपड़े धोते थे और उनके ही औज़ार बनाते थे. बहुत सारे काम ऐसे थे, जो इनसे ही लिए जाते थे. अब बिल्कुल बदले हुए हालात हैं. यहां वो खुद को आज़ाद महसूस करते हैं. अब बक़रीद को ही ले लो. जिन गांवों से ये लोग आएं, वहां ज़्यादातर में ये क़ुरबानी नहीं कर सकते थे. लेकिन यहां हर जगह क़ुरबानी हुई. वहां लड़की स्कूल भेजते हुए डरते थे. बहन बेटी को इज़्ज़त के डर से छिपाकर कर रखते थे. अब ऐसा नहीं है. यहां वो खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं. खाना वहां भी मज़दूरी करके खाते थे, यहां भी मज़दूरी करके खाते हैं. इसके अलावा मज़हबी बदलाव भी है. लोगों में दीन की जानकारी कम थी, अब वो मज़हब भी समझ रहे हैं.
तो क्या यह दंगा उन्हें ग़ुलामी से आज़ादी की ओर ले आया?
ग़ुलाम मोहम्मद जौला : हां! ये कह सकते हैं. मुसलमान यह मानता है कि अल्लाह जो भी करता है, भले के लिए ही करता है. भले ही यह बात हमारी समझ में देर से आए. यह लोग गांव में मस्जिद नहीं बना सकते थे. अपनी लड़की को स्कूल नहीं भेजते थे. दूसरी बहुत सी चीजें नहीं कर सकते थे. जब ये वहां से आए तो कई बातों का यहां पता चला. पहनावा बोलचाल रहन-सहन सब मुसलमानों जैसा नहीं था. बस नाम था. सभी ऐसे नहीं थे. कुछ अच्छे भी थे. जैसे एक गांव फुगाना से 2 हज़ार लोग आए. अब यह लोग तादाद में काफ़ी थे, मगर फिर भी इन्हें वहां माहौल हिफ़ाज़त लायक नहीं लगा. इनके दिल में डर बैठ गया था. यहां यह सब खुली हवा में सांस लेते हैं.
मुसलमानों में यह डर और दहशत क्यों है? क्या भाजपा की सरकार में यह ज़्यादा हो गई है?
ग़ुलाम मोहम्मद जौला : ग़रीब मज़दुर पर सरकार का ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ता. सरकार का असर हैसियत वाले और नेताओं पर पड़ता है. मुसलमानों के तो नेताओं में भारी दहशत है. दंगो में कईयों ने फोन बंद कर लिए. कुछ छिप गए. एक दो विदेश चले गए. बड़े-बड़े खुद को मजबूर और कमज़ोर बताने लगे. कई तो दंगो के बाद मंत्री पद मांगने में जुट गए. मुसलमानों में खुद को ‘छोटा’ समझने की भूल है. मुसलमानों को मुल्क में हेकड़ी से रहने की ज़रुरत है. देश हमारा है और हमारे बाप का है. हम यहीं के हैं. कहीं बाहर से नहीं आए. हम यहां किराएदार नहीं हैं. कमज़ोरी के अहसास को हमें मारना पड़ेगा और छाती ठोककर रहना होगा.
इसी दंगे की वजह से किसानों में आपस में फाड़ हो गई?
ग़ुलाम मोहम्मद जौला : भारतीय किसान यूनियन देशभर में मजदूरों और किसानों का सबसे बड़ा संगठन था. इसके अध्यक्ष चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत में हिन्दू-मुस्लिम का कोई भेदभाव नहीं था. अगर वो ज़िन्दा होते तो हालात इतने ख़राब नहीं होते. 7 सितम्बर की महापंचायत का ऐलान भारतीय किसान यूनियन ने ही किया था. इससे एक दिन पहले लिसाढ़ में एक पंचायत हुई, जिसमें नरेश ने (टिकैत पुत्र) ने मुसलमानों को लेकर बेहद आपत्तिजनक बात कही. मैंने नरेश को फोन किया और ऐतराज जताया. इसके बाद फिर 7 तारीख को झगड़ा हुआ. नफ़रत की हद यह थी कि लिसाढ़ वाली पंचायत में एक नेता महाराज सिंह ने यह कह दिया कि खुदा भगवान एक ही होते हैं तो उसे मंच पर से उतार दिया कि खुदा का नाम क्यों लिया. मुसलमान भी किसान है, वो सब यूनियन से अलग हो गएं.
अब जाटों को पछतावा होता है. किसी तरह के मेल-मिलाप की कोई कोशिश…
ग़ुलाम मोहम्मद जौला : बहुत ज़्यादा पछतावा है. आप जिस घर में बैठे हैं. यह भी जाट का ही घर है. इनका नाम वीरपाल सिंह है. कुछ नौजवान लड़के भाजपा से जुड़े हैं. वो बात नहीं समझते, मगर सारे बुजुर्ग इस दंगे से से दुखी हैं. यहां जगह-जगह जाट मुस्लिम एकता प्रोग्राम भी चल रहे हैं. जाट मान रहा है कि उसका इस्तेमाल हुआ. दूसरी कोई हिन्दू जाति उनके साथ नहीं लड़ी. सिर्फ़ जाट और मुसलमान ही बर्बाद हुए, जबकि सबसे ज़्यादा गहरी दोस्ती भी इन्हीं की थी. रालोद तो ख़त्म ही हो गई. अजीत सिंह कहते हैं कि संभाल लो, इस मोहब्बत को बचा लो. दो गांवों में लोग वापस गए, वहां वो खुश हैं. अभी थोड़ा वक़्त और लगेगा फिर सब ठीक हो जाएगा…