क्यों इतिहास से लापता है महात्मा गांधी व चंद्रशेखर आज़ाद का यह साथी?

ब्रिटिश हुक़ूमत से लड़कर आज़ादी हासिल करने में पूरा देश शामिल था, मगर अतीत में कई शख़्सियतें ऐसी भी रही हैं जिन्होंने सबकुछ पीछे छोड़कर अपनी ज़िन्दगी दांव पर लगा दी थी. ऐसी कई महान हस्तियां हैं, जिन्हें वक़्त-वक़्त पर याद किए जाने की ज़रूरत है ताकि इतिहास उन्हें पूरी तरह भुला ना सके. आज़ादी के ऐसे बाग़ी सिपाहियों के लिए इससे बढ़कर कोई श्रद्धांजलि नहीं होगी.

अफ़रोज़ आलम साहिल, TwoCircles.net


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आज से सौ साल पहले चम्पारण सत्याग्रह के अनुभवों व परिणामों ने आज़ादी की लड़ाई का कलेवर बदल दिया था. यह आज़ादी के दीवानों की पहली बड़ी कामयाबी थी. इन्हीं दीवानों में एक शख़्स, जिसने अपना जीवन देश की आज़ादी हासिल करने में लगा दिया, इस क्रांतिकारी शख़्सियत का नाम है —हरबंश सहाय, जिसे चम्पारण-वासी उस दौर में मास्टर साहब के नाम से पुकारते थे.

हरबंश सहाय अपने अनगिनत कारनामों के बावजूद आज इतिहास में गुमनाम हैं. जबकि ये आज़ादी के बाद भी क़रीब 23 साल न सिर्फ़ ज़िन्दा रहें, बल्कि 1953 में पहले बिहार विधानसभा का चुनाव जीत कर चम्पारण के हरसिद्धी विधानसभा क्षेत्र के पहले विधायक भी बने. मास्टर साहब आज ही के दिन 17 सितम्बर 1970 को इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह कर चले गए.

हरबंश सहाय गांधी के चम्पारण आने के पहले से अपने ख़ास दोस्त पीर मुहम्मद मूनिस के साथ लगे थे. इसका ज़िक्र 4 मार्च 1916 की बिहार स्पेशल ब्रांच की इंटेलीजेंस रिपोर्ट से भी होता है. दरअसल, 1915 के आख़िर में ही चम्पारण के देहात (वो इलाक़ा जो नील फैक्ट्री के आस-पास थे) में एक साधु की पर्चा बांटते हुए गिरफ़्तारी हुई. इस पर्चे में अंग्रेज़ों द्वारा रैयतों पर किए जा रहे ज़ुल्म की कहानी लिखी थी, जो प्रताप अख़बार द्वारा प्रकाशित किया गया था, जिसे संभवतः पीर मुहम्मद मूनिस ने लिखा था. इंटेलीजेंस रिपोर्ट में लिखा था कि बेतिया टाउन गुरू ट्रेनिंग स्कूल के शिक्षक पीर मुहम्मद मूनिस और बेतिया राज स्कूल के टीचर हरबंश सहाय ‘प्रताप’ प्रेस को न्यूज़ भेजते हैं.

यहां यह भी बताते चलें कि लखनऊ अधिवेशन में राजकुमार शुक्ल अकेले नहीं गए थे, बल्कि हरबंश सहाय और इनके ख़ास दोस्त पीर मुहम्मद मूनिस भी साथ गए थे. इसका ज़िक्र भारत के पहले राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद अपनी पुस्तक में भी करते हैं.

यही नहीं, गांधी जब चम्पारण में थे तो अंग्रेज़ों ने गांधी की मदद करने वाले 32 लोगों की एक सूची तैयार की, जिसमें आठवां नाम हरबंश सहाय का था. इनके नाम के साथ यह भी लिखा गया था —‘Harbans, a dismiss teacher of Bettiah Raj School said to be seditious, resident of Bararia, P. S. Gobindganj, Champaran, a dangerous man.’

हरबंश सहाय के दिल में आज़ादी के प्रति इस क़दर दीवानगी थी कि वो 1917 में गांधी के साथ भी थे और 1925-27 में चन्द्रशेख़र आज़ाद, भगत सिंह व राजगुरू का भी साथ दे रहे हैं. और इससे पहले 1910 में भागलपूर के एक स्टूडेन्ट्स कांफ्रेंस में एनी बेसेन्ट के साथ भी रहें.

काकोरी लूट-कांड के बाद देश में जगह-जगह छापे पड़े. बचते-बचाते 1925 के अंतिम दिनों में चंद्रशेखर आज़ाद बेतिया पहुंचे. बेतिया में वो सबसे पहले जोड़ा इनार स्थित मास्टर हरबंश सहाय के घर पर क़रीब एक महीने रहें. यही नहीं, हरबंश सहाय भगत सिंह व राजगुरू के साथ भी रहें.

हरबंश सहाय बेतिया राज स्कूल के पहले प्रधानाध्यक थे. 1906 से 1909 तक ये इस प्रधानाध्यापक पद पर रहे. इसके बाद ये बतौर शिक्षक इसी स्कूल में पढ़ाते रहे. इस दौरान वो अपने छात्रों को क्रांति की बातें बताने लगे. मूनिस के साथ मिलकर अंग्रेज़ों के विरूद्ध लोगों में जागरण पैदा करने लगे तो इसकी ख़बर बेतिया राज के अंग्रेज़ मैनेजर को हो गई. बस फिर क्या था, इन्हें स्कूल से बर्ख़ास्त कर दिया गया.

पूर्वी चम्पारण के गोविन्दगंज थाना स्थित बरियरिया गांव में जन्मे गगन देव लाल के ये पुत्र चम्पारण के पहले ग्रेजुएट के तौर पर जाने जाते हैं. इन्होंने उस समय के सबसे प्रसिद्ध कलकत्ता के प्रेसेंडेंसी कॉलेज से अंग्रेज़ी भाषा में स्नातक किया था.

पिता की ख़्वाहिश थी कि बेटा कलेक्टर बने और सच यह भी है कि अगर हरबंश सहाय चाहते तो आसानी से उस दौर में डिप्टी कलेक्टर बन जाते, लेकिन इन्होंने शिक्षक बनकर समाज व देश का काम करने को प्राथमिकता दी और बेतिया को अपनी कर्म-भूमि बनाया. इन्होंने अपनी ज़िन्दगी में कई किताबें लिखी हैं. इनके द्वारा लिखित बिगीनर्स इंग्लिश ग्रामर एंड ट्रांसलेशन आज से क़रीब 20 साल पहले तक बिहार के छात्र पढ़ते रहे हैं.

चम्पारण के स्थानीय इतिहासकार अशरफ़ क़ादरी अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि, हरबंश सहाय को जब अंग्रेज़ों में बेतिया राज स्कूल से निकाल दिया तो इन्होंने खुद अपना एक ‘आदर्श स्कूल’ स्थापित किया, जो बेतिया शहर के काली बाग और फिर गंज मुहल्ला में उन्हीं के देखभाल में चलता रहा.

जब गांधी ने भितिहरवा, बहरवा लखनसेन और मधुबन में स्कूल खोला तो हरबंश सहाय की इसमें ख़ास भूमिका रही.

देश की आज़ादी के लिए अपने क्रांतिकारी काम की वजह से वो 1920, 1930 और 1942 के आन्दोलनों के दौरान जेल भी गए. लेकिन इससे इनका मनोबल और बढ़ता गया.

हरबंश सहाय के पोते हेमन्त कुमार सिन्हा (58) बताते हैं कि हरबंश सहाय के तीन बेटे और तीन बेटियां थी. सबसे बड़े बेटे सूर्यदेव प्रसाद वर्मा, उसके बाद तारा प्रसाद वर्मा और चन्द्रदेव प्रसाद वर्मा थे. बेतिया राज ने इन्हें हरनाटांड में ज़मीन दी थी. इसके अलावा पटखौली व मलकौली गांव में भी दादा की ज़मीनें थीं, जिन्हें ब्रिटिश राज ने ज़ब्त कर लिया.

वो आगे बताते हैं कि, आज़ादी के बाद भी हरबंश सहाय कांग्रेस के सक्रिय नेता रहे. मेरे बाबू तारा प्रसाद वर्मा उनके बारे में बहुत सारी कहानियां अक्सर सुनाया करते थे. बिहार की पहली सरकार में दादा को मंत्री बनने का भी ऑफर मिला था, लेकिन उन्होंने मंत्री पद ठुकरा दिया और कहा कि हम विधायक रहकर ही जनता की सेवा करना चाहते हैं.

उस दौर में सिंचाई के लिए किसानों को पानी की किल्लत हो रही थी. तब सिंचाई मंत्री महेश बाबू थे. दादा ने हाऊस में मंत्री जी पर तंज कसते हुए कहा कि, इंद्र भगवान की कृपा होगी तभी ना किसानों का कुछ हो पाएगा. महेश बाबू गुस्से में बोल दिए —हम कोई भगवान हैं कि वर्षा कर दें. तब हरबंश सहाय ने जवाब दिया —आप किसानों को पानी नहीं दे सकते तो आपको कुर्सी पर रहने का कोई हक़ नहीं है. इसके कुछ ही दिनों बाद दादा ने खुद ही इस्तीफ़ा दे दिया.

हेमन्त कुमार सिन्हा कहते हैं कि, आज चम्पारण सत्याग्रह की शताब्दी वर्ष मनाई जा रही है, लेकिन किसी ने भी, यहां तक कि स्थानीय नेताओं ने भी उन्हें याद नहीं किया. ये काफ़ी दुखद है. उन्हें कम से कम उचित सम्मान तो मिलना ही चाहिए…

याद रहे कि अगर अपने हीरो को भूलते हैं तो कोई दूसरा इसे बचाने नहीं आएग… और हमारी अगली नस्लों के लिए इतिहास में अपनी मिट्टी का कोई हीरो नहीं बचेगा.

(लेखक इन दिनों हरबंश सहाय की जीवनी पर शोध कर रहे हैं. वो जल्द ही इन पर एक पुस्तक लाने की तैयारी में हैं.)

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