सोमप्रभ
हालांकि अभी बीएचयू मामले में कुलपति और बीएचयू प्रशासन पर पूरी तरह से एक्शन लिया जाना बाक़ी है. लेकिन पहले से ही मैं तय मान कर चल रहा हूं कि कुलपति पर जो गंभीर आरोप लगे हैं, वे उसमें दोषी साबित होंगे.
अभी तक जिस तरह कुलपति के ख़िलाफ़ ज़िला प्रशासन की रिपोर्ट आई है, वह इसकी तस्दीक़ करती ही है. लेकिन बहुतों के लिए दिलचस्पी हो सकती है कि आख़िर कुलपति जब वह सब काम कर रहे थे, जो एक दक्षिणपंथी समर्थक को करना चाहिए था. तो क्या वजह रही कि जी.सी. त्रिपाठी को बचाने के लिए भाजपा या सरकार ने कोई कोशिश नहीं की.
पहली नज़र में वह भारतीय जनता पार्टी के लिए एक मुद्दा देने की सफल कोशिश करते लग रहे थे. वे एक समूह में यह दुष्प्रचार कर चुके थे और इसे वाम दलों और भाजपा के विरोधी संगठनों की साज़िश आदि बता चुके थे. लेकिन क्या वजह रही कि आरएसएस की पृष्ठभूमि से आने के बावजूद और सारे राजनीतिक पैतरें आज़माने के बाद भी कुलपति जीसी त्रिपाठी फंस गए.
इसका भी जिक्र कर दिया जाना चाहिए कि कुलपति के बयानों से उनका राजनीतिक पक्ष और समर्थन उनके कार्यकाल के शुरुआती दौर से स्पष्ट है. उसे सार्वजनिक मंच से बोलने में उन्होंने कोई दुराव-छिपाव नहीं किया. तो हुआ क्या?
ऐसा बहुत साफ़ लगता है कि कुलपति अपनी प्रशासनिक कमियों और इस मामले में की गई लापरवाही को छिपाने के लिए इस पूरे मुद्दे को राजनीतिक रंग दे रहे थे. बहुत संभव है कि यह भारतीय जनता पार्टी या आरएसएस की रणनीति न रही हो.
कुलपति ने अपने कार्यकाल के अंतिम दौर में इस घटना से न सिर्फ़ अपनी चूक को छिपाने की कोशिश की, बल्कि वे इसके ज़रिए इतनी गंभीर घटना के वक्त भी बहुत बड़ा जोख़िम लेते हुए भाजपा और आरएसएस से अपने जुड़ाव को दिखाते रहे.
हो सकता है कि कुलपति को भ्रम पल गया हो कि इसके ज़रिए भी वे अपने कार्यकाल की दूसरी पारी शुरू कर सकते हैं. और यही उनकी चूक है.
आप देखिए यह घटना जेएनयू के विवाद से बिल्कुल अलग थी. वहां एक फ़र्ज़ी वीडियो था और जिसके ज़रिए दक्षिणपंथी तात्कालिक तौर पर दुष्प्रचार करने में कामयाब भी रहे. बीएचयू की घटना इससे अलग थी. और आंदोलन शुरू होने के बाद छात्राओं के विरोध, लाठीचार्ज आदि की कवरेज हो रही थी. सोशल साइट पर भी तस्वीरें, वीडियो शेयर किए जा रहे थे.
एक तरह से जो विवाद खडा़ करने की कोशिश ठीक आंदोलन के वक़्त कुलपति कर रहे थे, उसको झुठलाने वाले सारे प्रमाण ठीक उसी वक़्त मौजूद थे और आम लोगों तक जा रहे थे.
जेएनयू के मामले में यह प्रमाणित होने में ही वक़्त लगा कि उस घटना के पीछे साज़िश थी और वीडियो फ़र्ज़ी था. दूसरा विवाद कश्मीर, पाकिस्तान, अलगाववाद जैसे मुद्दों से जुडा़ हुआ था, जिसके ज़रिए अफ़वाह फैलाना और लोगों को ध्रुवीकृत करना कहीं आसान था.
बीएचयू मामले में ऐसा लगता है कि कुलपति अपने अतिआत्मविश्वास के कारण भी धरे गए और पूरे घटनाक्रम को वे भांप नहीं सके. टीवी पर दिए गए उनके इंटरव्यू से भी पता चलता है कि आरएसएस और भाजपा की पृष्ठभूमि से होने का वे अतिआत्मविश्वास प्रदर्शित कर रहे थे, जो आत्मघाती हुआ.
इस पूरे घटनाक्रम में कुलपति ही केन्द्र में थे और जिस तरह वे तथ्यों को तोड़-मरोड़ रहे थे, उसका बचाव करना बहुत मुश्किल था. यह कोई दूसरा अवसर होता या मुद्दा होता तो दक्षिणपंथी इसे अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश ज़रूर कर सकते थे. लेकिन मामला लड़कियों की छेड़खानी से जुड़ा होने के कारण भी पार्टी के लिए इसे अपने हित में इस्तेमाल कर पाना कठिन था. और उसी वक़्त कुलपति धारणा के स्तर पर भी एक बडे़ दायरे में दोषी साबित हो चुके थे.
कोई भी कुलपति किसी राजनीतिक दल के लिए इतना महत्वपूर्ण नहीं हो सकता है कि पार्टी इतना ख़तरा मोल लेते हुए उसका बचाव करे. यानी कुलपति ने जो राजनीति की, वह खुद को बचाने की कोशिश में की और पार्टी, संगठन के लोगों को भी इसके ज़रिए भटकाया और मनमानी करते गए.
इस राजनीति से भाजपा सरकार के लिए भी संकट खडा़ हो गया और महिला मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी के ख़िलाफ़ मोर्चे खुलने की संभावना बढ़ गई. महिलाओं को भाजपा से जोड़ने की कोशिशों को कुलपति अनजाने में नुक़सान पहुंचा रहे थे. दूसरा कुलपति ने जिस तरह से विवाद रचने की कोशिश की थी कि हैदराबाद से लड़के आए, साज़िश दिल्ली में रची गयी आदि. अगर सरकार कुलपति के बयानों की दिशा में बढ़ती तो उसके लिए सुरक्षा की बड़ी खामियों का सवाल उठना शुरू हो जाता और यह पूछा जाता कि क्या ऐसी किसी साज़िश के बारे में पहले से इनपुट होने के बाद भी कुलपति की ओर से कोई क़दम क्यो नहीं उठाया गया. या इस तरह का कोई इनपुट नहीं था और सुरक्षा एजेंसिया फेल हो गयी थीं.
हो सकता है कि आगे आने वाली जांच में अराजक तत्वों के शामिल होने वाला एक छोटा सा एंगल भी डालकर इस मुद्दे को ख़त्म कर दिया जाए. लेकिन कुलपति ने जो किया वह दिखाता है कि वह बिना विमान प्रशिक्षण के जहाज़ उड़ाने की कोशिश थी.