सुनील कुमार, TwoCircles.net के लिए
दिल्ली और एनसीआर में पिछले दो माह से लगातार सिवरेज में दुर्घटना होने की ख़बरें आ रही हैं. इन दुर्घटनाओं में कम से कम 15 लोगों की जान जा चुकी है. अभी हालिया घटना 21 सितम्बर, 2017 को नोएडा के सेक्टर 110 के बीडीएस मार्केट के पास घटी, जिसमें विकास, राजेश और रविन्द्र की जान चली गई. ये तीनों मृतक आपस में मामा, भांजे, भाई थे.
विकास, राजेश और रविन्द्र झारंखड के गोड्डा ज़िले के रहने वाले हैं और अपने परिवार के साथ नोएडा सेक्टर 9 की झुग्गियों में रहते हैं.
सबसे पहले मैं विकास के घर पर पहुंचा. विकास के घर जाने का जो रास्ता है, उस रास्ते से कोई भी अनजान व्यक्ति विकास के घर तक नहीं पहुंच सकता. वह गलियां इतनी तंग थी कि दो व्यक्ति क्रास करें तो दोनों को अपने शरीर को दिवाल से सटाना होता है, ऊपर से जगह के अभाव में लोग गलियों को भी ढंक दिये हैं, जिससे कि उनके रहने के लिए थोड़ी जगह मिल जाए.
जब मैं विकास के घर पहुंचा तो बिजली नहीं थी. घर में अंधेरा था. उसी अंधेरे 6 बाई 6 के कमरे में विकास की मां, बहन, नानी, पिता, मामा शोकाकुल बैठे हुए थे. मां और नानी दोनों का रो रोकर बुरा हाल था.
विकास के पिता उपेन्द्र शाह रिक्शा चलाते हैं, जिससे वह दुकानों के माल एक जगह से दूसरे जगह पर पहुंचाते हैं. मां एक फैक्ट्री में 4000 रूपये मासिक सैलरी पर काम करती हैं. बहन बारहवीं कक्षा की विद्यार्थी है.
विकास अपने परिवार की आर्थिक स्थिति को देखते हुए पढ़ाई के साथ-साथ काम भी करने लगा था, जिससे परिवार को इस अंधेरे कमरे से निकाल सके. इसी कारण बारहवीं करने के बाद विकास ओपन से ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रहा था और अपने मामा राजेश के साथ 350 रूपये पाने के लिए काम पर जाने लगा.
रोज़ की तरह विकास अपने मामा राजेश, भाई रविन्द्र और अखिलेश व दो और बस्ती के लोगों के साथ सेक्टर 27 में गए. वहां जाने के बाद राजेश के पास ठेकेदार सोनबीर का 110 सेक्टर जाने के लिए फोन आया. राजेश, विकास और रविन्द्र के साथ 110 सेक्टर के बीडीएस मार्केट पहुंचे.
बीडीएस मार्केट के बाहर पान का खोखा लगाने वाले एक दिव्यांग दुकानदार ने बताया कि सबसे पहले उन्होंने उसके पास के सीवर को साफ़ किया. दुकानदार ने उन सफ़ाई-कर्मियों से कहा कि जल्दी सीवर को बंद कर दें, बदबू आ रही है, तो उन्होंने 5 मिनट की मोहलत मांगी और सीवर सफ़ाई करके थोड़ी दूर पर दूसरे सीवर की सफ़ाई करने लगे, जिसमें उनकी मौत हो गई.
दुकानदार के अनुसार यह घटना क़रीब दो-ढाई बजे की है. एक महिला ने बताया कि जब वह 6 बजे के क़रीब ड्यूटी से अपने घर को लौट रही थी तो लाश को निकाला जा रहा था, जहां पर पुलिस मौजूद थी और लोगों को रूकने नहीं दे रही थी.
सवाल यह है कि यह घटना के तीन से चार घंटे तक प्रशासन क्या करती रही? जब यह तीन लोग काम पर गए तो इनको सुरक्षा उपकरण क्यों नहीं दिए गए, वहां पर कोई ज़िम्मेवार अधिकारी क्यों नहीं था?
राजेश अपनी पत्नी चमेली और तीन साल की बेटी अंजली के साथ सेक्टर 9 की झुग्गी में 2200 रूपये के किराये पर रहते थे. राजेश की शादी 2008 में हुई तब से वह पत्नी के साथ यहीं रह रहे थे और ठेकेदार सोनबीर के पास काम कर रहे थे.
चमेली तीन माह की गर्भवती है और ऊपर से पति के मरने का दुख उनके जीवन पर भाड़ी पर रहा है. चमेली बताती हैं कि वह प्रतिदिन 5 बजे के क़रीब राजेश को फोन करती थी. घटना वाले दिन जब उसने राजेश को फोन किया तो राजेश का फोन बंद था. उसके बाद विकास को फोन किया उसका भी फोन बंद था. रविन्द्र के फोन पर घंटी जा रही थी, लेकिन कोई फोन उठा नहीं रहा था. ठेकेदार को फ़ोन करने पर उसका फोन भी स्विच ऑफ़ जा रहा था.
कुछ समय बाद चमेली ने राजेश के दोस्त बबलेश शर्मा को फोन किया तो उन्होंने कहा कि तुम दस सेक्टर आ जाओ. चमेली के दस सेक्टर पहुचंने पर बबलेश अपने बाइक से सेक्टर 34 के अस्पताल ले गए. उसके बार-बार पूछने के बाद भी उसे कुछ नहीं बताया गया.
अस्पताल में पुलिस वाले ने चमेली को राजेश की लाश दिखाई. चमेली के रोने पर पुलिस ने चमेली और बबलेस को गाड़ी में बैठा लिया और कुछ दूर ले जाकर उन्हें छोड़ दिया और बबलेश से कहा कि इसे घर ले जाओ.
गर्भवती महिला जिसका पति अभी-अभी अकाल मौत के मुंह में डाल दिया गया हो, उसकी क्या हालत हो रही होगी, ऐसे में पुलिस द्वारा बीच रास्ते में गाड़ी से उतार देना पुलिस की अमानवीय छवि का दर्शाता है.
विकास के पिता भूप सिंह को भी उनके बेटे की मौत की ख़बर उनके गांव के लोगों से मिली. वे लोग सेक्टर 34 के अस्पताल गए और पुलिस में शिकायत दर्ज करनी चाही. पुलिस ने घटनास्थल फेस-2 थाने का बताया और वहीं जाकर रिपोर्ट दर्ज कराने की बात कही.
जब वे लोग फेस-2 थाने पहुंचे तो उनसे कह गया कि ‘‘सुबह 8 बजे आना मामला दर्ज हो जायेगा.’’
भूप सिंह बताते हैं कि वे लोग रात में मोरचरी के पास थे, उसी समय रात के दो बजे डॉक्टर को पोस्टर्माटम के लिए बुलाया. इस पर झुग्गी के लोगों ने काफ़ी संख्या में पहुंच कर विरोध किया तो पोस्टमार्टम को रोक दिया गया और डॉक्टर वापस जाना पड़ा.
भूप सिंह का कहना है कि, पुलिस चाह रही थी कि बिना रिपोर्ट दर्ज किए मामले को दबा दिया जाए. यहां तक कि इन परिवारों वालों को दुर्घटना के बारे में जानकारी भी अलग-अलग माध्यमों से मिली. पुलिस-प्रशासन का कोई भी व्यक्ति उनको इस घटना की जानकारी देने नहीं गया. इससे पता चलता है कि पुलिस-प्रशासन की मंशा ठीक नहीं थी.
विकास की मां सविता बताती हैं कि, पुलिस ने उनकी लाश को नहीं निकाल कर दिया और उनसे कहा गया कि खुद जाकर पहचान कर लाश निकाल लाओ.
सविता के अनुसार कुछ लोगों ने लाश निकालने की कोशिश की, लेकिन बदबू के कारण वह लौट आए. अंत में विकास के दोस्त सलीम ने जाकर तीनों के शवों को निकाल कर बाहर लाए और उनका अंतिम क्रियाकर्म किया गया. इन लाशों की अंतिम क्रियाकर्म के लिए प्रशासन द्वारा कोई भी सुविधा पीड़ित परिवारों को नहीं दी गई.
इस घटना के तीन दिन बाद जब हम घटनास्थल पर पहुंचे तो उसी सीवर की सफ़ाई का काम चल रहा था. जहां पर पानी निकासी के लिए एक पम्पिंग सेट लगा था, लेकिन वह भी ख़राब था. पास ख़ड़े मज़दूर पम्पिंग सेट में पानी डाल रहे थे, जिससे कि वह पानी को निकाल पाए. इससे यह पता चलता है कि यूपी की सरकार कितनी कुंभकर्णी नीन्द में सो रही है कि इतनी बड़ी घटना के बाद भी वहां पर किस तरह की मशीन लगाई गई है और चार दिन बाद भी उस सीवर की सफ़ाई नहीं की जा सकी है.
बताते चलें कि यह घटना न तो पहली है और न अंतिम. इससे पहले दिल्ली के छत्तरपुर, लाजपतनगर, कंड़कड़डुमा, एलएनजेपी अस्पताल, मुंडका और नोएडा सेक्टर—52 में भी इस तरह की घटनाएं दो माह के अंदर घट चुकी हैं. ऐसा नहीं है कि इस तरह की मौतें दिल्ली, एनसीआर या देश के बड़े शहरों में ही हो रही है, बल्कि 9 सितम्बर को ही बिहार के सिवान ज़िले में 4 लोगों की मौत सीवर सफ़ाई के दौरान हो गई. इस तरह से पूरे भारत में हर साल सैकड़ों की संख्या में सिवर सफ़ाई-कर्मियों की मौत होती है, जिसका सरकार के पास कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. हर मौत के बाद मशीन से सफ़ाई कराने का फ़रमान जारी किया जाता है लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात वाला ही होता है.
केन्द्र सरकार ने भी 2013 में ‘प्रोहिबिशन ऑफ एंप्लॉयमेंट मैनुअल स्कैंवेंजर एंड देयर रिहैबिलिटेशन एक्ट’ क़ानून पास किया है, जिसके अन्तर्गत यह दर्ज है कि किसी भी व्यक्ति को सिवरेज में नहीं उतारा जाएगा. इसके अलावा 2014 में सुप्रीम कोर्ट, 1996 में बाम्बे हाईकोर्ट का निर्देश है कि सिवरेज में किसी व्यक्ति को नहीं उतारा जाएगा और अगर आपात स्थिति में ज़रूरत पड़ी तो सभी सुरक्षा उपकरण के साथ अधिकारियों और एम्बुलेंस, फायर बिग्रेड की उपस्थित में ही सिवर में कोई व्यक्ति उतरेगा. इसके अलावा सन 2000 में मानव अधिकार आयोग ने भी रोक लगा रखा है.
बावजूद इसके अभी न जाने कितने विकास, राजेश या रविन्द्र की जानें जाना बाक़ी है. सीवर में मरने वाला कोई भी व्यक्ति किसी धन्नासेठों, अफ़सरशाह, मंत्री के घर का या रिश्तेदार नहीं होता है. वह सामाजिक, आर्थिक रूप से पिछड़े कमज़ोर तबक़े से होते हैं. आखिर इन मौतों के ज़िम्मेदार कौन है? क्या वक्तव्य दे देने से या कर्मचारियों को गिरफ्तार करने या निलम्बन करने से इस समस्या का समाधान हो सकता है?