क्या ये भारतीय राजनीति का हिन्दुत्व काल है?

जावेद अनीस, TwoCircles.net के लिए


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2014 के बाद से भारत की राजनीति में बड़ा शिफ्ट हुआ है जिसके बाद से यह लगभग तय सा हो गया है कि देश की सभी राजनीतिक पार्टियों को अपनी चुनावी राजनीति हिन्दुत्व के धरातल पर ही करनी होगी. इस दौरान उन्हें अल्पसंख्यकों के ज़िक्र या उनके हिमायती दिखने से परहेज़ करना होगा और राष्ट्रीय यानी बहुसंख्य्यक हिन्दू भावनाओं का ख़्याल रखना पड़ेगा.

2014 के बाद का कुल जमा हासिल यह है कि भारत में एक अलग तरीक़े के राष्ट्रवाद को स्वीकृति मिल गई है जिसका आधार धर्म है, लेकिन यह मात्र 2014 का प्रभाव नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उस धैर्यपूर्ण काम का इनाम है, जिसे वो 1925 से करता चला आ रहा है.

दरअसल, संघ हमेशा से ही भारत के स्वाधीनता आन्दोलन के गर्भ से निकले नए लोकतान्त्रिक, धर्म-निरपेक्ष भारत की अवधारणा से सहमत नहीं रहा, जहां राजसत्ता का अपना कोई धर्म नहीं है और ना उसने कभी अपने हिन्दू राष्ट्र के कामना को छुपाया. वे आज़ादी के बाद हिन्दू धर्म को भारत का आधिकारिक राज्य धर्म घोषित नहीं किए जाने को एक अन्याय के रूप में देखते हैं.

किसी विचारधारा के लिए इससे अच्छी स्थिति क्या हो सकती है कि उसके पास अपने खेल के लिए एक से ज़्यादा टीमें हो जाएं. आज हालत ऐसी बन चुके हैं कि स्वाधीनता आन्दोलन के विरासत का दावा करने वाली पार्टी कांग्रेस को धर्म-निरपेक्षता की जगह हिंदुत्व की राग को अलापना पड़ रहा है, उसके शीर्ष नेता खुद को हिन्दू साबित करने के लिये अपना जनेऊ दिखाने और मंदिरों का चक्कर लगाने को मजबूर हैं.

इस बदलाव का असर आने वाले सालों में और ज़्यादा स्पष्टता के साथ दिखाई पड़ेगा. जब बहुसंख्यकों और खुद अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को लगने लगेगा कि वे इस देश में दूसरे दर्जे के नागरिक हैं. ज़ाहिर है इस बदलाव के दूरगामी परिणाम देश के लिए अच्छे साबित नहीं होने वाले हैं.

गुजरात चुनाव के गहमा-गहमी के दौरान एक टीवी बहस में कांग्रेस प्रवक्ता राजीव त्यागी खुलकर कहते हुए दिखाई दिए कि “बाबरी मस्जिद का ताला कांग्रेस ने खुलवाया, शिलान्यास कांग्रेस ने कराया, मस्जिद को कांग्रेस ने गिरवाया और मन्दिर भी कांग्रेस ही बनवाएगी.” 

तो क्या भारत की राजनीति ने अपना धर्म चुन लिया है? कम से कम नियम तो बदल ही चुके हैं. तथाकथित धर्म-निरपेक्ष दलों को धर्मनिरपेक्ष मूल्योंके लिए खड़े होने का दिखावा भी छोड़ना पड़ रहा है और अब प्रतियोगिता हिन्दू दिखने की है.

गुजरात चुनाव के दौरान देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी ने स्पष्ट कर दिया है कि आने वाले दिनों में उसके राजनीति कि दिशा किस तरफ़ रहने वाली है. खींची गई लकीर का सन्देश साफ़ है. अब आप इस मुल्क में हिंदू विरोधी पार्टी टैग के साथ राजनीति करने का ख़तरा नहीं उठा सकते और ना ही मुस्लिम हितैषी होने का दिखावा कर सकते हैं. यह एक बड़ा बदलाव है जिसे हिंदुत्ववादी खेमा अपनी उपलब्धि मान सकता है.

दूसरी तरफ़ दक्षिणपंथी खेमा जिसके लोग इस देश के शीर्ष पदों पर बैठ चुके हैं, अब पूरी तरह से खुलकर सामने आ गया है. गुजरात चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री के पद पर विराजमान शख़्स द्वारा जिस तरह की बातें कही गई है, वैसा इस मुल्क में पहले कभी नहीं सुना गया था.

मुख्यमंत्री मोदी अपने चुनावी भाषणों में मियां मुशर्रफ, अहमद मियां पटेल, और जेम्स माईकल लिंगदोह का ज़िक्र करते थे और इस तरह से वे इशारों-इशारों में अपना सन्देश दे दिया करते थे.

इस बार प्रधानमंत्री के तौर पर वे और ज्यादा खुलकर अपना सन्देश देते हुए नज़र आए. उन्होंने कांग्रेस से सीधे तौर पर सवाल पूछा कि वो मंदिर के साथ है या मस्जिद के, उन्होंने मुख्यमंत्री पद के लिए एक मुसलमान का नाम को आगे बढ़ाने की पाकिस्तानी साज़िश की थ्योरी को भी पेश किया और इस तरह से वे मुसलमानों को पाकिस्तान समर्थक बताने वाली धारणा को बतौर प्रधानमंत्री आगे बढ़ाते हुए नज़र आए.

भारत में राजसत्ता ने धर्म-निरपेक्षता को अपनाया ज़रूर, लेकिन एक तरह की कशमश हमेशा ही बनी रही. पंडित नेहरू के समय ही बाबरी मस्जिद में मूर्तियां रख दी गयी थीं और फिर उन्हें वहीं रहने दिया गया.

इंदिरा गांधी अपने दूसरे फेज में नरम हिन्दुत्व के राह पर चल पड़ी थीं और राजीव गांधी के दौर में तो अयोध्या में मंदिर का ताला खुलवाने और शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने जैसे काम किए गए, जिसके बाद से हाशिए पर पड़े हिंदुत्ववादी खेमे के लिये रास्ता खुल गया और फिर इस देश में आज़ादी के बाद का सबसे बड़ा आन्दोलन “राम मंदिर आन्दोलन” हुआ जिसके बाद कांग्रेस के नरसिंहराव सरकार के समय में बाबरी मस्जिद गिरा दी गई.

इसी तरह से राजनीतिक पार्टियों द्वारा अल्पसंख्यकों को वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा, लेकिन उनकी तरफ़ से इस समुदाय के उत्थान और विकास के वास्तविक प्रयास नहीं किए गए.

दरअसल, मुस्लिम समुदाय के वास्तविक मुद्दे कभी उनके एजेंडे में शामिल ही नहीं रहे, बल्कि उनकी सारी क़वायद दक्षिणपंथी ताक़तों का डर दिखाकर  मुस्लिम वोट हासिल करने तक ही सीमित रहती है.

इस दौरान साम्प्रदायिकता को लेकर तथाकथित सेक्युलर पार्टियों की लड़ाई भी ना केवल नकली दिखाई पड़ी बल्कि कभीकभी उनका दक्षिणपंथी ताकतोंके साथ अघोषित रिश्ता भी नज़र आता है, जहां ग़ौर से देखने पर वे एक दूसरे की मदद करते हुए नज़र आते हैं, जिससे देश के दोनों प्रमुख समुदायों को एक दूसरे का भय दिखाकर अपनी रोटी सेंकी जाती रहे.

कालांतर में इस स्थिति का फ़ायदा दक्षिणपंथी खेमे द्वारा बख़ूबी उठाया गया और उन्होंने धर्म-निरपेक्षता के विचार को मुस्लिम तुष्टिकरण और हिन्दू विरोधी विचार के तौर सफलतापूर्वक प्रचारित किता गया.

कुछ विचारक कांग्रेस पार्टी के नरम हिन्दुत्व की रणनीति को भाजपा और संघ के सांप्रदायिक राजनीति के काट के तौर पर देखते हैं, लेकिन यह नर्म बनाम गर्म हिन्दुत्व की एक कोरी बहस है, पते की बात तो अरुण जेटली ने कही है कि “जब ओरिजनल मौजूद है तो लोग क्लोन को भला क्यों तरजीह देंगे.” और अगर क्लोन को कुछ सफलता मिल भी जाए तो भी इसका असली मूलधन तो ओरिजनल के खाते में ही तो जाएगा.

कभी हाशिए पर रही हिन्दुत्व की राजनीति आज मुख्यधारा की राजनीति बन चुकी है. संघ राजनीति और समाज का एजेंडा तय करने की स्थिति में आ गया है. अब संघ धारा ही मुख्यधारा है. संघ के लिए इससे बड़ी सफलता भला और क्या हो सकती है कि बहुलतावादी भारतीय समाज पर एक ही रंग हावी हो जाए और देश की प्रमुख राजनीतिक पार्टियां नरम/गरम हिन्दुत्व के नाम पर प्रतिस्पर्धा करने लगें. भले ही इसका रूप अलग हो, लेकिन आज भारत की दोनों मुख्य पार्टिया बहुसंख्यक हिन्दू पहचान के साथ ही आगे बढ़ रही हैं यह भारतीय राजनीति का हिन्दुत्व काल है.

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