शाहनवाज़ भारतीय, TwoCircles.net के लिए
अब तक हम इसी बात का जश्न मनाते आ रहे हैं कि हमारे देश को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है. लेकिन इस बात से बेख़बर हैं कि हमें ख़बर पहुंचाने वाली मीडिया हमारे लोकतंत्र की गला घोटने की कोशिश में दिन-रात लगी हुई है, इसकी गरिमा को नित्य प्रतिदिन तार-तार कर रही है.
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से भारतीय समाज के प्रबंधन में लोकतंत्र का सबसे बड़ा योगदान रहा है. लोकतंत्र का शाब्दिक अर्थ जनता का शासन.
अब्राहम लिंकन के अनुसार लोकतंत्र, “जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिए शासन प्रणाली है.”
दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि लोकतंत्र शासन की एक ऐसी प्रणाली है, जिसके अंतर्गत नीति-निर्माण और इसके क्रियान्वयन में जनता की व्यापक भागीदारी सुनिश्चित किया जाता है. अधिक संख्या वाले जगहों पर लोकतंत्र में शासन चलाने के लिए व्यस्क मताधिकार द्वारा जन प्रतिनिधि का चुनाव किया जाता है.
लोकतंत्र में जनता के व्यापक भागीदारी से अभिप्राय समाज के हर वर्ग का सरकार में भागीदारी तय होना है, अर्थात जिसकी जितनी आबादी उसकी उतनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करना तथा न्यायसंगत समाज की स्थापना करना ही लोकतांत्रिक व्यवस्था का लक्ष्य है.
हमारे देश में “सबका साथ—सबका विकास” वाली दल ने तो 17.2 करोड़ जनसंख्या वाले एक अल्पसंख्यक को लोकसभा का एक भी सीट नहीं देकर पता नहीं क्या साबित करना चाहा है. जहां तक बहुसंख्यक दलितों की बात है तो वो भी सिर्फ़ सुरक्षित सीट से ही सदन में आए हैं.
भाजपा ने असुरक्षित सीट से एक भी दलित को टिकट नहीं दिया है, हालांकि 40 दलित सांसद हैं जो सभी सुरक्षित सीट से जीत कर आए हैं. सुरक्षित सीट से दलितों को टिकट देना तो संवैधानिक मज़बूरी है.
हमारे देश को युवाओं का देश कहा जाता है. जहां मात्र 91 प्रतिशत नागरिक ही 60 वर्ष से कम उम्र (2011 जनगणना) के हैं, परन्तु 40 वर्ष से कम उम्र की संसद में भागीदारी मात्र 13 प्रतिशत (71/543) है. और तो और कृषि प्रधान देश भारत में किसानों की भलाई का राग अलापने वाले दलों में से सिर्फ़ 27 प्रतिशत सांसद ने ही अपना प्राथमिक व्यवसाय कृषि लिखा है. कितने सच में खेती करते हैं यह भी एक सघन शोध का विषय है.
हमारे देश भारत में संसदीय लोकतंत्र है, जहां साधारण बहुमत प्रणाली से जनप्रतिनिधि का चुनाव किया जाता है. माना कि एक लोकसभा क्षेत्र की कुल आबादी 100 और कुल मतदाता 80 हैं, जिसमें से 60 ने कुल 20 प्रत्याशी को मतदान किया, जिसमें से एक प्रत्याशी को 17 मत मिले और बाक़ी को 17 से कम तो वो प्रत्याशी विजय हो जाता है, जबकि कुल 43 मत उसके विरुद्ध हैं, लेकिन वो अलग-अलग प्रत्याशी में बंट गए.
इसी प्रकार जब हम साल 2014 के 16वीं लोकसभा चुनाव का तर्कपूर्ण आंकलन करते हैं तो हम यह पाते हैं कि लगभग 125 करोड़ जनसंख्या (2011 जनगणना) वाले देश में उस समय 83.41 करोड़ (66.72%) मतदाता थे, जिसमें से 55.38 करोड़ (44.30%) लोगों ने मतदान किया और भारतीय जनता पार्टी को कुल 17.16 करोड़ (कुल आबादी का 13.72%) मत आए. परिणामस्वरूप 543 में से 282 सीट जीतकर उन्होंने पूर्ण-बहुमत से सरकार बनाई.
दूसरे ओर से देखने पर हम यह पाते हैं कि 83.41 करोड़ मतदाताओं में से 28.3 करोड़ मतदातामत डालने गए ही नहीं, जो कि भाजपा को मिले कुल मत (17.16 करोड़) के डेढ़ गुणे से भी ज़्यादा है.
अब प्रश्न यह उठता है कि कुछ भारतीय मीडिया अभी से ही इस प्रचार में लग गई है कि आगामी लोकसभा (2019) में भी भाजपा पूर्णबहुमत से सरकार बनाएगी. तो क्या मीडिया ने भविष्य में जाने का कोई फार्मूला खोज निकाला है, जिससे वो यह जान गए हैं कि आगामी चुनाव में कुल कितने मत डाले जाएंगे? उनकी प्रवृत्ति क्या होगी? हर लोकसभा सीट पर कौन-कौन से दल अपना उम्मीदवार उतारेंगे और उनको कितना-कितना मत मिलेगा और भाजपा के उम्मीदवार जीत जाएंगे.
2014 लोकसभा चुनाव में डाले गए कुल मत का 31 प्रतिशत लाकर भाजपा 282 सीट जीती है और 54 सीटों पर द्वितीय स्थान प्राप्त किया. वहीं 19.3 प्रतिशत वोट लाकर कांग्रेस ने 44 सीट जीती और 224 सीटों पर द्वितीय रही. मात्र 11.7 प्रतिशत मतों के अंतर से ही 238 सीटों का अंतर हो गया तो किसी के जीत का चुनाव से एक वर्ष पूर्व अनुमान लगाना कहां तक उचित है.
कुल आबादी का मात्र 13.72 प्रतिशत और कुल मत का 20.56 प्रतिशत मत लाकर दुबारा जीत का दंभ भरना मेरी नज़र में हास्यास्पद के इलावा और कुछ नहीं. यही मीडिया इस तथ्य को जिस तरह से रखती है वो लोकतंत्र का मज़ाक उड़ाने जैसा लगता है.
अतः इस बात को कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कही जाने वाली आज की कुछ मीडिया अपनी नैतिकता (सच्चाई और सटीकता, स्वतंत्रता, निष्पक्षता और तटस्थता, जबाबदेही) को ताक पर रख लोकतंत्र का चौथा निकालने को आतुर हैं.
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में रिसर्च स्कॉलर हैं.)