नासिरूद्दीन, TwoCircles.net के लिए
पिछले दिनों हमारे मुल्क में यह माहौल बनाने की कोशिश की गई कि सभी मुसलमान महिलाएं तीन तलाक़ क़ानून के नाम से मशहूर ‘मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) बिल, 2017’ के साथ हैं.
मगर हक़ीक़त क्या ऐसी ही है? यहां हम कुछ महिलाओं की बात रखने जा रहे हैं. हम बिना अपनी कोई बात जोड़े उनकी बात यहां पेश करेंगे. हम सब इतने समझदार तो हैं ही कि उनकी बातों की तह तक पहुंचने की ख़ुद कोशिश कर सकें.
ये वे महिलाएं हैं, जो हमें आमतौर पर टेलीविज़न चैनलों के दफ़्तर में नहीं दिखती हैं. वे कोई इतिहास बनाने का दावा नहीं करती हैं. वे पुरातनपंथी और बुनियादपरस्त तंज़ीम से भी नहीं जुड़ी हैं. बल्कि ये वे महिलाएं हैं जो दशकों से मुसलमान महिलाओं की ज़िन्दगियों से ज़मीनी तौर पर जुड़ी हैं. उनके सुख-दुख की साझीदार हैं. वे शोरगुल से दूर भारत के अलग-अलग कोनों में काम करती हैं. वे संविधान के उसूलों में यक़ीन करती हैं. यह महज़ पांच नहीं हैं. पांच तो सिर्फ़ नुमाइंदगी के लिए हैं. तो आइए हम अगले चार सीरिज़ में इनकी बात सुनते हैं. पेश है इस सीरिज़ की चौथी कहानी…
रज़िया पटेल, उन चंद लोगों में शुमार है जिन्होंने काफ़ी पहले मुल्क की मुसलमान महिलाओं की हालत पर विस्तृत अध्ययन किया था. वे मुसलमान महिलाओं को हक़ दिलाने के वास्ते तीन दशक पहले ज़मीनी आंदोलन कर चुकी हैं. मुसलमान महिलाओं को संविधान के तहत हक़ मिले, इसके लिए लगातार संघर्षरत रही हैं. इस वक़्त वे पुणे के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एजुकेशन में माइनारिटीज़ स्टडीज़ की हेड हैं. रचना विकास ट्रस्ट से जुड़ी हैं. इस बिल पर जब उनकी राय मांगी तो उनके पास कहने को काफ़ी कुछ था. हम उनकी चंद बातें यहां उन्हीं के शब्दों में पेश कर रहे हैं—
बतौर मुस्लिम सामाजिक कार्यकर्ता हमने एक मजलिस की तीन तलाक़ के ख़िलाफ़ लगातार आवाज़ उठाई है. मगर केन्द्र सरकार जिस तरीक़े से और जिस तरह का विधेयक लाई है, वह ढेर सारे सवाल ही खड़े करता है. शंकाएं पैदा करता है. जैसे— जब एक मजलिस की तीन तलाक़ को ख़ारिज करने वाला सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आया था तब तो क़ानून मंत्री ने किसी क़ानून को बनाने से इंकार किया था और कहा था कि घरेलू हिंसा से बचाने का क़ानून काफ़ी हैं. अचानक ऐसा क्या हुआ कि यह विधेयक लाना पड़ा? न कोई ड्राफ्ट. न कोई चर्चा. न कोई बहस. मुझे तो लगता है कि मुसलमान महिलाओं के सवाल, मुस्लिम समाज के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किए जा रहे हैं.
मेरी नज़र में ग़ैर-जि़म्मेदाराना तरीक़े से ऐसे तलाक़ देने वाले मर्दों के लिए भी कोई सहानुभूति नहीं होनी चाहिए. मगर यह बिल तो न सिर्फ़ तलाक़ देने वाले मर्द को बल्कि महिला और उसके परिवार को भी एक तरह से दंड दे रहा है. आमतौर पर महिला अपना घर टूटने से बचाने की भरसक कोशिश करती हैं. हमारे पारिवारिक न्यायालयों में भी काउंसिलिंग की व्यवस्था है. यह बिल ऐसा कोई रास्ता नहीं बताता है बल्कि रास्ता बंद कर देता है. मुझे लगता है कि मुसलमानों के बुनियादपरस्त लीडरशिप ने भी अड़ियल रुख अपना रखा है. इसकी वजह से भी यह सब हो रहा है.
यह सरकार अगर वाक़ई में महिलाओं के प्रति चिंतित है तो उसकी चिंता उन लाखों हिन्दू या अन्य महिलाओं के प्रति क्यों नहीं दिखाई देती जो पतियों द्वारा यों ही छोड़ दी गई हैं.
केन्द्र सरकार मुसलमान महिलाओं को इंसाफ़ देने की बात कर रही है. मगर मेरी राय में मुसलमान महिलाओं का सवाल सिर्फ़ तलाक़ का नहीं है. तथाकथित गो-रक्षकों द्वारा मारे जाने वाले मुसलमानों के परिवारों की महिलाएं या गुजरात, मुज़फ़्फ़रनगर जैसे दंगों की पीड़ित महिलाएं, मुसलमान महिलाएं नहीं हैं? क्या इनका सवाल न्याय का नहीं है? मुसलमान महिलाएं न्याय और सम्मान के साथ ज़िन्दगी चाहती हैं. क्या यह विधेयक इसकी गारंटी करता है? हमारे लिए यह मुद्दा महिलाओं के संवैधानिक और मानव अधिकारों से जुड़ा है. इंसानी सम्मान का है.
एक बात और. इस सरकार की भूमिका और चरित्र, सतत तौर पर मुसलमान समाज के विरोध में दिखाई देता है. इसके बावजूद कई महिला संगठनों ने इसी सरकार को बार-बार निवेदन दिया. इन्होंने उनके साथ बिना कोई सवाल उठाए सहभागिता दिखाकर सरकार को मुस्लिम विरोधी राजनीति को आगे ले जाने का मौक़ा दिया है. यह बातें अब साफ़ तौर पर दिख रही हैं. सामाजिक-राजनीतिक संगठनों से जिस तरह राजनीतिक सूझबूझ दिखाने की उम्मीद की जाती है, ज़ाहिर है, वह इन संगठनों ने नहीं दिखाई.
मेरी राय में भारत के सभी क़ानूनों की जेंडर न्याय और बराबरी के नज़रिए से समीक्षा होनी चाहिए. हमें जेंडर इंसाफ़ पर बने क़ानून के ढाँचे पर विचार करना चाहिए. लेकिन ऐसे किसी क़ानून को लाने का तरीक़ा वह नहीं होना चाहिए, जिस तरह सरकार इस बिल को लेकर आई है.
(नासिरूद्दीन वरिष्ठ पत्रकार/ शोधकर्ता हैं. सामाजिक मुद्दों और खास तौर पर महिला मुद्दों पर लिखते हैं.)
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