नासिरूद्दीन, TwoCircles.net के लिए
पिछले दिनों हमारे मुल्क में यह माहौल बनाने की कोशिश की गई कि सभी मुसलमान महिलाएं तीन तलाक़ क़ानून के नाम से मशहूर ‘मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) बिल, 2017’ के साथ हैं.
मगर हक़ीक़त क्या ऐसी ही है? यहां हम कुछ महिलाओं की बात रखने जा रहे हैं. हम बिना अपनी कोई बात जोड़े उनकी बात यहां पेश करेंगे. हम सब इतने समझदार तो हैं ही कि उनकी बातों की तह तक पहुंचने की ख़ुद कोशिश कर सकें.
ये वे महिलाएं हैं, जो हमें आमतौर पर टेलीविज़न चैनलों के दफ़्तर में नहीं दिखती हैं. वे कोई इतिहास बनाने का दावा नहीं करती हैं. वे पुरातनपंथी और बुनियादपरस्त तंज़ीम से भी नहीं जुड़ी हैं. बल्कि ये वे महिलाएं हैं जो दशकों से मुसलमान महिलाओं की ज़िन्दगियों से ज़मीनी तौर पर जुड़ी हैं. उनके सुख-दुख की साझीदार हैं. वे शोरगुल से दूर भारत के अलग-अलग कोनों में काम करती हैं. वे संविधान के उसूलों में यक़ीन करती हैं. यह महज़ पांच नहीं हैं. पांच तो सिर्फ़ नुमाइंदगी के लिए हैं. तो आइए हम अगले चार सीरिज़ में इनकी बात सुनते हैं…
शाहीन, तेलंगाना ख़ासतौर पर हैदराबाद में महिलाओं के मुद्दे पर काम करने वाली मशहूर तंज़ीम है. जमीला निशात, शाहीन की संस्थापक और मुख्य कार्यकारी हैं. उर्दू और अंग्रेजी की साहित्यकार हैं. हमने इस बिल पर उनकी राय मांगी. उनकी राय है—
तलाक़ को क्रिमिनल एक्ट बनाकर तीन साल की जेल देना बिल्कुल ग़लत है. यह मुसलमान मर्दों को जेल में भरने के मक़सद से बनाया गया है. शौहर जेल में रहेगा तो महिलाओं और बच्चों को मेंटनेंस नहीं मिलेगा. मेंटनेंस कौन देगा. इसलिए हमें यह बिल्कुल मंज़ूर नहीं है.
हम जेंडर बराबरी की बात ज़रूर करते हैं, मगर हमारा मक़सद शौहरों को जेल में डालना नहीं है. हमारे समाज में ज़्यादातर लड़की आमतौर पर साथ रहना चाहती हैं. वह यों ही शादी तोड़ने के हक़ में नहीं रहती हैं. अब अगर ऐसा होगा तो वह लड़की तो कहीं की नहीं रहेगी. पहले सामंती समाज में अगर कोई मर्द दूसरी शादी करता था या वह पहली बीवी को छोड़ देता था तो उसके साथ वह अपनी जायदाद भी दे देता था. अब ऐसा नहीं है. अगर सज़ा देना ही है तो उस पर भारी जुर्माना लगाया जा सकता है ताकि वह एक साथ तलाक़ न दे पाए. वह जुर्माना उसकी बीवी को मिले. मगर यहां तो ऐसा कुछ होता नहीं दिख रहा है.
वैसे, हमारे इलाक़े यानी हैदराबाद का इश्यू तीन तलाक़ नहीं है. यहां घरेलू हिंसा है. वैसे, यहां मर्द आसानी से महिला को घर से बाहर नहीं कर सकता है. यहां निकाहनामा है, जिसमें साफ़ तौर यह होता है कि शौहर एक मजलिस की तीन तलाक़ नहीं दे सकता है. यहां तलाक़नामा है. ज़्यादातर तलाक़ काज़ी के ज़रिए होता है. मुझे बहुत अच्छी तरह से ध्यान है कि हमारे पास 2015 के बाद इकट्ठी तलाक़ के ऐसे मसले नहीं आ रहे हैं.
हम ऐसा नहीं है कि किसी क़ानून के ख़िलाफ़ हैं. हम क़ानून चाहते हैं पर महिलाओं के हक़ में चाहते हैं. तलाक़ दोनों की रज़ामंदी से होना चाहिए. हम ऐसा क़ानून चाहते हैं. हम चाहते हैं कि अगर शौहर या बीवी एक दूसरे से अलग होना चाहें तो वे बताकर एक दूसरे की रज़ामंदी लेकर अलग हों.
यह क़ानून तो मुझे ख़ास एजेंडे के तहत लाया गया लगता है. मैं आपको एक वाक़या बताती हूं. हमारे जानने वाले का एक मामूली हिंसा का मामला था. वह मामला पुलिस के पास चला गया. हम सुलह में लगे थे. अब उस मर्द को रोज़ पुलिस में जाकर हाज़िरी देनी पड़ती थी. इससे तो मुसलमान मर्दों को परेशान और प्रताडि़त करने का पक्का बहाना मिल जाएगा.
(नासिरूद्दीन वरिष्ठ पत्रकार/ शोधकर्ता हैं. सामाजिक मुद्दों और खास तौर पर महिला मुद्दों पर लिखते हैं.)
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