कलीम अज़ीम, TwoCircles.net के लिए
क्या है भीमा कोरेगांव का इतिहास और 200 साल बाद की सियासत?
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जब लाखों लोग जब भीमा नदी के किनारे स्थित मेमोरियल के पास दोपहर 12 बजे अपने नायकों को श्रद्धांजलि दे रहे थे, तभी दूर धुंआ उठता दिखाई दिया.
वहां मौजूद रहे पत्रकार दत्ता कानवटे बताते हैं कि, ‘कोरेगांव में कुछ दूर धुंआ उठता दिखाई दिया. लोगों को लगा कि पास के गांव में कुछ जल रहा है, इसलिए लोगों ने उस नज़रअंदाज किया. पर कुछ देर बाद धुंए की लपटें और बढ़ गई और एकाएक पत्थरबाज़ी शुरु हुई. लोगों के चीखने-चिल्लाने की आवाज़ें आने लगी.’
वहीं वहां मौजूद केशव वाघमारे बताते हैं कि ‘कोरेगांव से कुछ दूर पर सणसवाडी नामक गांव में दलित समुदाय के कुठ लोगों को पकड़ कर पीटा जा रहा था. घरों पर पत्थरबाज़ी की जा रही थी.’
वो आगे बताते हैं कि, पहले तो किसी को भी पता ही नहीं चला कि वो कौन लोग हैं, जो दलितों को पीट रहे हैं. लेकिन वहां मौजूद दलित संगठनों के कार्यकर्ताओं से मालूम चला कि यह लोग ‘शिव प्रतिष्ठान’ और ‘हिंदू एकता संगठन’ के कार्यकर्ता थे.
देखते-देखते हिंसक भीड़ आगे बढ़ती चली आई. भीमा कोरेगांव में भी पत्थरबाज़ी हुई. बताया जाता है कि भीड़ ने वहां खड़ी गाड़ियों को आग के हवाले कर दिया.
दत्ता कानवटे बताते हैं, ‘कुछ ही देर में हालात बेक़ाबू हो गए. इलाक़े में बड़ी तादाद में पुलिस के लोग मौजूद थे, पर उन्हें कोई कार्रवाई करते हमने नहीं देखा.’
दलित नेता और पूर्व सांसद प्रकाश अम्बेडकर बताते हैं कि, ‘ये बात सरकार की जानकारी थी कि भीमा कोरेगांव में बड़ी तादाद में लोग जमा होने वाले हैं, फिर राज्य सरकार ने सुरक्षा का इंतज़ाम क्यों नहीं किया. भीड़ की तुलना में पुलिस वाले कम थे, इसलिए उन्होंने कुछ भी नहीं किया और भगदड़ की स्थिति बन गई.’
बता दें कि, एक ख़बर के मुताबिक़ सोमवार को यहां क़रीब 5 लाख लोग भीमा कोरेगांव के अभिवादन सभा में शामिल थे. यह लोग अंग्रेज़ों के जीत का जश्न नहीं, बल्की भेदभाव पर आधारित ब्राह्मणवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ विजय का जश्न मना रहे थे.
कोरेगांव की ख़बर फैलते ही पुणे के आस-पास के गांवों से हिंसक झड़पों की ख़बरें आने लगीं. बताया जाता है कि यहां से जो लोग अपने घरों को वापस भाग रहे थे, रास्ते में कुछ अज्ञात लोग उन्हें पकड़कर मारने लगे. इसी दौरान कथित रूप से राहुल नामक एक व्यक्ति की मौत हो गई. अचानक हुए हमलों से दलित समुदाय के लोग बेहद डर गए, जिससे उनमें से कुछ युवकों ने भी पथराव करना शुरू किया.
एक साज़िश के तहत हुआ ये सब
कोरेगांव भीमा हिंसा की एक वजह गोविंद गायकवाड का स्मारक है. जिसके इतिहास को लेकर दक्षिणपंथी संगठन और इतिहासकारों में अक्सर तनातनी बनी रहती है. जिसे लेकर आए दिन दक्षिणपंथी संगठन झुठी ख़बरें फैलाते हैं.
उसी तरह भीमा कोरेगांव में दलितों के विजयोत्सव को ब्रिटिशों के समर्थन का जश्न बताकर दलित समुदाय को शक के घेरे में खड़े करने की साज़िश बीते कई दिनों से चल रही है. दलितों को ‘देशद्रोही’ बताकर दूसरे समुदाय के लोगों को भड़काया जा रहा था. जबकी महारों के लिए ये ब्रिटिशों की नहीं, बल्कि अपनी अस्मिता की लड़ाई थी.
प्रकाश अम्बेडकर इस साज़िश का मास्टरमाईंड सीधे तौर पर मिलिंद एकबोटे व संभाजी भिड़े को मानते हैं. ये दोनों लोग सीधे तौर पर आरएसएस से जुड़े हुए हैं. मिलिंद एकबोटे पर तो हिन्दू-मुस्लिम दंगे फैलाने के कई आरोप हैं. अलग-अलग थानों में इन पर एफ़आईआर भी दर्ज है.
वरिष्ठ पत्रकार निखिल वागले कहते हैं कि, ‘यह हिंसा पूर्वनियोजित थी, सरकार को इसके सुत्र जल्दी ढुंढने चाहिए.’
भीमा कोरेगांव के आस-पास भड़की हिंसा अपने पीछे कई प्रश्न छोड़ गई है. हर गांव में जगह कांच व पत्थरों का ढे़र नज़र आ रहा है. सवाल है कि इतने कम समय में इतनी बड़ी हिंसा आख़िर कैसे हो गई? वढू जैसे छोटे से क़स्बे में इतने सारे पत्थर अचानक कहां से आ गए? हिंसा कर दंगाई आख़िर कहां भाग गए? पुलिस दंगाईयों को क्यों रोक नहीं सकी? गांव में जब गाड़ियां फूंकी जा रही तब पुलिस वाले चुप क्यों थे?
दंगाई कितने थे, वो कहां से आए थे, इसके बारे में कोई नहीं जानता. पर हमलों का प्रतिरोध करने वाले दलित युवकों के बारे में सबको पता है. पिछले तीन दिनों में पुलिस द्वारा हर जगह दलित लडकों को पकड़ कर जेल में डालने की ख़बर लगातार मिल रही है.
(लेखक महाराष्ट्र से निकलने वाली मराठी पत्रिका ‘सत्याग्रही विचारधारा’ के कार्यकारी संपादक हैं.)